उपन्यास : देवल देवी (कड़ी 44)
40. निष्फलताएँ
कई घटनायें दिल्ली सल्तनत और उनसे संघर्ष कर रही रियासतों में घटीं। इन घटनाओं के उपरांत देवलदेवी और अधिक अवसाद में चली गई।
एक- जालोर का राजकुमार विक्रम दिल्ली सल्तनत की शहजादी, जिससे वह प्रेम करता था, को लेकर जालोर चला गया। एक शुद्ध तुर्की नस्ल की शहजादी के साथ एक काफिर हिंदू शय्या सहचरी करे, यह बात बयाना के काजी मुगसुद्दीन और दिल्ली के कोतवाल अला-उल-मुल्क को बेहद नागवार गुजरी। इन दोनों धूर्तों की इस्लाह पर सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने हरम की एक बांदी गुलेबहिश्त को एक बड़े लश्कर के साथ जालोर भेजा। सुल्तान ने बांदी गुलेबहिश्त को जंग का सिपहसालार इसलिए बनाया था कि शहजादी फिरोजा इसकी ही सरपरस्ती में से ही राजकुमार विक्रम के साथ निकल गई थी।
तुर्क सेना का, जालोर के राजपूतों ने राजकुमार विक्रम और राजा कनेरदेव के नेतृत्व को प्रचंड उत्तर दिया और उन्होंने गुलेबहिश्त और उसके हिजड़े पुत्र को मार कर मुस्लिम सेना का भीषण संहार किया। पर दिल्ली से सुल्तान ने कमालुद्दीन गुर्ग को एक बड़े लश्कर के साथ पहले वाले लश्कर की मदद के लिए रवाना कर दिया।
फिर भीषण संग्राम छिड़ गया संख्या में कम होने के कारण राजपूत वीर कटने लगे। राजकुमार विक्रम ने प्रचंड दिखाया किंतु वह वीर योद्धा वीरगति को प्राप्त हुआ। उनके वीरगति के प्राप्त होते ही जालोर की सेना का मनोबल टूट गया और वह पराजित हो गई।
राजकुमार विक्रम की वीरगति की सूचना मिलते ही उसकी पत्नी यवन शहजादी फिरोजा ने हिंदू रीति की तरह जौहर की ज्वाला तैयार की और उसमें स्वयं को स्वाहा कर दिया। जालोर की प्रजा ने विक्रम और फिरोजा के प्रेम स्मारक के रूप में एक मंदिर बनवाया, जिसमें लोग इन दोनों के प्रेम और बलिदान की पूजा करते थे। समय गए पीछे दिल्ली सुल्तान ने उस मंदिर का विध्वंस करा दिया।
दो- देवगिरी का युवराज शंकरदेव योग्य और देशभक्त था। अपने राज्य की दुर्दशा के और अपनी पत्नी देवलदेवी के छिन जाने से उन्हें बहुत क्षोभ हुआ। अपने पिता राजा रामदेव और सुल्तान अलाउद्दीन की मित्रता की परवाह किए बिना उसने देवगिरी से मुस्लिम अमीरों को मार भगाया।
सुल्तान अलाउद्दीन ने 1313 में अपने प्रिय वजीर मलिक काफूर को शंकरदेव से युद्ध के लिए देवगिरी भेजा। विशाल मुस्लिम सेना का युवराज शंकरदेव ने वीरतापूर्वक प्रतिउत्तर दिया। उनके युद्ध कौशल से देवता भी चकित हो गए किंतु वह रणरांगण में मृत्यु के हाथों वरे गए और उन्हें लेकर अप्सराएँ सीधे स्वर्ग चली गईं।
इस घटना ने राजकुमारी देवलदेवी को बहुत दु:ख दिया, युवराज शंकर से उन्होंने गंधर्वपरिणय किया था। आज विधवा बनी थी, पर सुअवसर की खोज में वह अपने वैधव्य का दुःख प्रकट न कर सकी। उन्होंने युवराज शंकर को श्रद्धांजलि अवश्य अर्पित की।
तीन- राजकुमारी की सखी प्रमिला ने मलिक काफूर को अपने प्रेमपाश में बाँध लिया, किंतु प्रमिला काफूर के हृदय में स्वधर्म के प्रति प्रेम की आग न धधका सकी। धर्मपरिवर्तन के बाद काफूर कट्टर मुस्लिम बन गया और उसके हृदय में अपने पूर्वधर्म और राष्ट्र के प्रति प्रेम कतई न बचा।
पर प्रमिला ने काफूर के हृदय में सुल्तान बनने की इच्छा को प्रज्ज्वलित कर दिया। इस सूचना से देवलदेवी के हृदय में प्रसन्नता का अनुभव हुआ। अब उन्होंने काफूर को खिलजी वंश का अंत करने के लिए उकसाना था, जिसकी योजनाएँ उन्होंने अपने हृदय में बनानी चालू कर दीं।
चार- शहजादा खिज्र खाँ, राजकुमारी देवलदेवी के लिए बिलकुल निकम्मा निकला। वह अत्यंत डरपोक और कायर था जो हर वक्त यौन सुख, मदिरा और अफीम के नशे में रहता था। राजकुमारी देवलदेवी के षडयंत्र में फँसकर उसने सुल्तान के विरूद्ध विद्रोह तो किया, किंतु विद्रोह को संचालित करने की योग्यता भ्रष्ट खिज्र खाँ के भीतर न थी।
सुल्तान अलाउद्दीन ने अपने प्रिय काफूर को शहजादे की बगावत को कुचलने का हुक्म दिया। काफूर ने बगावत को कुचला और शहजादे को ग्वालियर के किले में कैद कर दिया। साथ में देवलदेवी को भी।
राजकुमारी देवलदेवी को कैद में पहुँचकर लगा अब सब खत्म हो गया, जिसके लिए इतने बलिदान किए वह सुअवसर निर्मित न हो सकेगा। लेकिन भविष्य के गर्भ में अभी बहुत कुछ था…।