यशोदानंदन-२२
यमलार्जुन के पेड़ कोई पौधे नहीं थे, विशाल वृक्ष थे। उनके गिरने से बिजली चमकने के समय उत्पन्न ध्वनि की अनुभूति सभी गोकुलवासियों ने की। किसी की समझ में ही नहीं आ रहा था कि वह ध्वनि आई कहां से? आकाश तो साफ था और दूर-दूर तक भी बादल का कोई टुकड़ा दिखाई नहीं पड़ रहा था। नन्द बाबा ध्वनि की दिशा का अनुसरण करते हुए जब आंगन में पहुंचे और जो देखा, तो आश्चर्य से उनकी आँखें फटी रह गईं। बिना आंधी और तेज हवा के दो विशाल वृक्ष गिरे पड़े थे और उनका प्यारा लड्डू-गोपाल दोनों वृक्षों के बीच ओखल खींच रहा था। दौड़कर उन्होंने रस्सी की गांठ खोली और अपने श्याम बिहारी को बंधनमुक्त किया। गोद में लेकर पुत्र के एक-एक अंग का ध्यान से निरीक्षण किया – कही श्याम को कोई खरोंच तो नहीं आई। परम पिता परमेश्वर के प्रति हृदय से आभार व्यक्त किया। बालक पूर्णतया सुरक्षित था। नन्द बाबा को क्या पता कि जो बालक उनकी छाती से चिपका मंद-मंद मुस्कुरा रहा था, उसी के प्रति वे आभार व्यक्त कर रहे थे। उन्होंने भावावेश में श्रीकृष्ण का ललाट चूमा, कपोल चूमे, आनन चूमा और अधरों को भी चूमा। दो विशाल वृक्षों के गिरने के बाद भी अपने लाड़ले को सुरक्षित पा, आनन्दातिरेक से उनके नेत्रों से अश्रु-धारा बह चली। कई गोकुलवासी भी अबतक आंगन में आ चुके थे। समीप खेल रहे बालकों से उन्होंने घटना का विवरण पूछा। एक सयाने बालक ने बताया –
“श्रीकृष्ण की शरारतों से तंग आकर मातु ने उसे ओखल से बांध दिया। मातु उसे बांधकर निश्चिन्त हो अपने काम में लग गईं। कृष्ण ओखल को खींचने लगा। वह तो आगे निकल गया परन्तु ओखल तिरछा होकर गिर पड़ा और पेड़ों के बीच फंस गया। कृष्ण ने ओखल को और जोर से खींचा। देखते ही देखते दोनों वृक्ष पृथ्वी पर धड़ाम से गिर पड़े। गिरे हुए वृक्षों से दो तेजस्वी पुरुष प्रकट हुए। कृष्ण ने उन दोनों से बातें की, फिर वे अन्तर्धान हो गए।”
बालकों के इस कथन पर अधिकांश ग्वालों को विश्वास नहीं हुआ। परन्तु कुछ बुजुर्ग ग्वालों ने इसे ईश्वरीय घटना माना। उन्होंने नन्द जी से कहा –
“ग्वाल-बालों की बातें यों ही हंसी में नहीं उड़ाई जा सकती। ये भला मिथ्या संभाषण क्यों करेंगे? आपका पुत्र विलक्षण है। संभव है, उसी ने यह कृत्य किया हो।”
नन्द जी ने वरिष्ठों के कथन पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया। वे और जोर से हंसने लगे। वे तो अपने लाडले से खेलने में ही मगन थे।
इधर समय धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा था और उधर श्रीकृष्ण भी निरन्तर प्रगति पर थे। डगमगा कर चलने वाले श्रीकृष्ण अब अपने पैरों पर पूरे विश्वस के साथ चलने लगे थे। माते! आपकी स्मृति में वे समस्त दृश्य आज भी नेत्रों के समक्ष निश्चित रूप से साकार हो उठे होंगे – कैसे आप श्रीकृष्ण को ठुमक-ठुमक चलते देख आत्मविभोर हो जाती थीं। उनकी पैजनियों की ध्वनि पर आप अपना सुध-बुध खो बैठती थीं। वे चलते-चलते गिर जाते थे, फिर आप संभालने के लिए दौड़ पड़ती थीं। आपके, पास आने के पूर्व ही वे किलकारी मार उठ जाते। आप अपने अंक में ले उन्हें दुलरातीं, परन्तु शीघ्र ही बन्धन-मुक्त हो वे खेलने लग जाते। आप कभी-कभी दधि मथने के क्रम में उनकी उपेक्षा कर देतीं, तो वे पीछे से आकर आपके गले में अपनी बांहें डाल देते और बार-बार आपसे मथनी छीनने का उपक्रम करते। आप उन्हें मनाते हुए कहतीं –
“हे मेरे प्राण-धन कन्हैया! तू तनिक रुक तो सही। मक्खन भलीभांति निकल जाने दे। मैं तुम्हें मक्खन भी दूंगी और मथनी भी। मेरे लाल हठ मत कर। तू मुझ निर्धन की असीम संपत्ति है। मैं तुझे नाराज कैसे कर सकती हूँ? तनिक धैर्य रख। मैं तुम्हारी सारी मनोकामना पूर्ण करूंगी।”
मातु यशोदा के नेत्रों के सम्मुख सारे दृश्य चित्रपट की भांति आने लगे। आंचल से नेत्रों में उमड़ आए अश्रु-प्रवाह को पोंछा और दृष्टि पुनः गर्गाचार्य के मुखमंडल पर गड़ा दी। श्रीकृष्ण की बाल-क्रीड़ाओं की वे प्रत्यक्षदर्शी थीं, परन्तु आचार्य के श्रीमुख से उनका वर्णन सुनना अतुलनीय आनन्द प्रदान कर रहा था। गर्गाचार्य ने अपना कथन जारी रखा –
उचित समय आने पर श्रीकृष्ण ने बोलना भी आरंभ किया। पहली बार मातु को मैया कहकर पुकारा, तो अनायास ही नन्दरानी के स्तन से दूध की धारा बह चली। नन्द जी को ‘बाबा-बाबा’ तथा बलराम जी को ‘भैया-भैया’ भी कहने लगे। अपनी तोतली भाषा में अपनी मंशा भी बताने लगे। परन्तु वाक्य पूरा नहीं कर पाते। माता उनके मुखारविन्द से निकले दो शब्दों से ही पूरा अर्थ समझ लेतीं। वे बार-बार बलिहारी जातीं और उनके रक्त अधरों का चुंबन करतीं।
माता लाख प्रयास करतीं कि उनका लाल भी दूसरों के बच्चों की भांति सजा-संवरा रहे, परन्तु श्रीकृष्ण उनके हाथों से मुक्त होते ही कभी धूल में लेटते, तो कभी धूल उड़ाते। फिर भी रूप-माधुरी ऐसी कि समीप से गुजरनेवाला प्रत्येक व्यक्ति दर्शन पा सम्मोहित हो जाता। माता नन्दलाल के केशों को व्यवस्थित कर बांध देतीं, उनमें एक मोर-पंख लगा देतीं, परन्तु बालकृष्ण शीघ्र ही भगवान शंकर के शिशु-रूप में आ जाते। सजे-संवरे बाल को जटा-जूट में परिवर्तित होने में कुछ ही क्षण लगते। सुन्दर और चौड़े मस्तक पर लगाए गए तिलक से वे कभी छेड़छाड़ नहीं करते। माता द्वारा गले में पहनाई गई नीलमणि के अलंकार रक्तवर्ण कमलों की माला भी यथावत धारण किए रहते। कटि की कमरधनी और पैरों की पैजनियों से भी छेड़छाड़ नहीं करते। माता जब भी ध्यानपूर्वक इस अलौकिक सौन्दर्य को देखतीं, सशंकित हो उठतीं – कही उनके लाल को कोई बुरी नजर न लग जाय। वे तत्काल उनकी नजर उतारतीं और भाल के दाहिने भाग पर काजल का एक बड़ा टीका लगा देतीं।
श्रीकृष्ण अपने पैरों पर आंगन में विचरते हुए कुछ गाते भी थे। माता काम करते-करते कुछ गातीं, तो वे ताली बजाकर नृत्य करते। नाचते-नाचते बांह उठाकर धौरी और काली गायों को नाम से पुकारकर अपने पास बुलाते, कभी नन्द बाबा को पुकारते, कभी आंगन में जाते, कभी बाहर निकल आते। कभी थोड़ा मक्खन अपने हाथ में लेते, तो कभी मुंह में डाल लेते। मणिमय खंभों में दीख रहे अपने प्रतिबिंब को देख उसे भी मक्खन खिलाते, पास जा उसके अधरों को चूमने का प्रयास करते। माता बालकृष्ण की लीलाओं को छु्प-छुपकर देखतीं और अलौकिक वात्सल्य-आनन्द में निमग्न हो जातीं।
श्रीकृष्ण कोई भी कार्य माता के एक बार कहने पर नहीं करते। जब वे स्नान कराने के लिए ले जातीं, तो वे हाथ छुड़ाकर रो-रोकर आंगन में लेटने लगते। माता उनके सम्मुख तेल-उबटन रखकर तरह-तरह से मान-मनौवल करतीं, भांति-भांति विधियों से समझातीं –
“मेरे लाल! मेरे मोहन! मैं तेरी बलिहारी जाती हूँ। तू नहाता क्यों नहीं? बिना बात व्यर्थ ही रोये चला जा रहा है। जल्दी नहा ले। तुझे स्वादिष्ट कलेवा खिलाऊंगी।”
स्वादिष्ट कलेवे का नाम सुनते ही श्रीकृष्ण पास आ जाते। माता उन्हें पकड़ नहला देतीं।