जातिवाद
मित्रो, आज बहुत सी हिंदूवादी संस्थाये जाति और जातिवाद को बुरा कहती हैं (वो बात अलग है की ऐसे लोग स्वयं अपने नाम के पीछे जाति आधारित सरनेम लगाये घूमते हैं)। ऐसे लोग जाति को ठीक नहीं मानते पर वर्ण व्यवस्था का समर्थन करते हैं अर्थात समाज को धर्म ग्रंथो पर आधारित ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र में बांटे रहना चाहते हैं।
इनके अनुसार कर्म आधारित वर्ण समाज के लिए अच्छे हैं जैसे –
ब्रहमण का काम है विद्या ग्रहण करना और केवल क्षत्रिय और वैश्य को विद्या देना।
क्षत्रिय का काम है रक्षा करना, ब्राह्मण को दान देना, और बिद्या ग्रहण करना ।
वैश्य का काम है पशुपालन,ब्रह्मण को दान देना, विद्या ग्रहण करना।
शुद्र का काम है बिना किसी भी प्रकार का प्रश्न किये इन तीनो वर्णों की सेवा करना, विद्या पाने का अधिकार उसे नहीं है।
वर्ण व्यवस्था के अनुसार शुद्र को न तो विद्या ग्रहण करने का अधिकार है, न उसे अपनी रक्षा करने के लिए हथियार उठाने का अधिकार है,न ही अपनी आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए व्यापार करने का अधिकार है ।
तो अब प्रश्न यह उठता है की यदि तीनो वर्णों में (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) अपना कम सही से नहीं करता है तो क्या होगा?
जैसे की मान लीजिये ब्राहमण अपना काम सही से नहीं करता और वह दोनों वर्णों को शिक्षा देने से इंकार कर देता है फिर क्या होगा? या शिक्षा के बहाने उन्हें अन्धविश्वास और पाखंड की तरह धकेल देता है तो क्या होगा?
इसी प्रकार क्षत्रिय हथियार के बल पर सभी का शोषण करता है तो क्या होगा?
या मान लीजिये ब्रहमण, क्षत्रिय, वैश्य तीनो साधन और शक्ति सम्पन्न हैं और अपनी ताकत का नाजायज फायदा उठा के शुद्र जिसके पास न विद्या है, न हथियार हैं, न धन है उसका शोषण करते हैं तो शुद्र क्या करेगा?
शुद्र न तो पढ़ा लिखा है, न ताकतवर है और न धन है उसके पास ऐसी स्थिति में वह कैसे मुकाबला करेगा ऊपर के तीनो वर्णों का? उसे जीवन भर गुलामी करनी पड़ेगी ऊपर के तीनो वर्णों की , अन्याय अत्याचार सहना पड़ेगा।
फिर एक दिन इन्ही शुद्रो में से किसी को अछूत बना दिया जायेगा ।
यानि वर्ण व्यवस्था यंहा आके फेल हो जाती है ।
2- एक हिंदूवादी समाज कहता है की गुण कर्मो से वर्ण व्यवस्था कन्यायो की सोलह साल में और पुरुषो की पच्चीस वर्ष में नियत करनी चाहिए। यानि लडकियों और लडको में गुण कर्म के अनुसार ब्राह्मण, वैश्य, क्षत्रिय, शुद्र होने की परीक्षा 16 और 25 साल में लेनी चाहिए और उन्हें उनके गुण कर्म के अनुसार उन्हें वर्णों में डालना चाहिए।
हिंदूवादीयो समाजियों का यह तर्क भी असंगत है, क्यों की यदि मान लिया जाए की कोई लड़का पच्चीस साल तक को पढने मे हुशियार रहता है पर आगे चल के 30-40 में वह बुरी आदतों का शिकार होके गलत काम करने लग जाता है ,जैसे नशा करना , जुआ खेलना , आदि तब भी वह ब्राह्मण बना रहेगा क्यों की उसके 25 साल के बाद उसे वर्ण बदलने की कोई परीक्षा नहीं देनी।
इसी तरह से सब जानते हैं की व्यापार में अनिश्चितता बनी रहती है कब हानि होक घर बार बिक जाए कुछ कहा नहीं जा सकता ,तो यदि वैश्य को 30- 40 साल की उम्र में घाटा होता है और वह व्यापर नहीं कर सकता तो उसका क्या होगा?
इस प्रकार की कई परेशानियों का हल हिंदूवादी समाज के चातुर्यवर्ण धर्म में नहीं है।
अत: यह युक्ति सांगत नहीं है?
3- यह चार वर्ण धर्म का सिस्टम स्त्रियों पर कैसे लागू होगा?
क्यों की देश में अभी भी लोग स्त्रियों को क्षत्रियो की तरह लड़ते भिड़ते नहीं , खून खराबा करते नहीं सहन करते,स्तरीय खुद स्वभाव से कोमल होती हैं । स्त्रियों का युद्ध करना अपवाद ही रहा है ।
अभी तक समाज में महिला पुजारी भी न के बराबर हैं , समाज भी अभ्यस्त नहीं है स्त्रियों एक इन कामो से ।
और क्या शादी के बाद स्त्रियों का वर्ण बदल जायेगा? क्यों की मान लीजिये एक वैश्य स्त्री को अपने वैश्य समाज में योग्य वर नहीं मिला तो क्या वह कुँवारी रहेगी?
ऐसी कई स्वभाविक अडचने आज के समय में हिंदूवादी समाज को वर्णव्यवस्था लागू करने में होगी । इन समस्यायो का कोई भी हल हिंदूवादी समाज के पास नहीं है , इसलिए वर्ण व्यवस्था आज के समय कोरी कल्पना भर है ।
– केशव
मैंने विजय जी को एक बार सुझाव दिया था की किसी भी लेखक के व्यर्थ लेखों को प्रकाशित मत करे क्यूंकि इससे अन्य का समय व्यर्थ होता है।
मैं इसमें यह जोड़ना चाहता हूँ कि लेखक के लिए यह आवश्यक होना चाहिए कि वह लेख पर पाठकों की प्रतिक्रियाओं का उत्तर अवश्य दें। यदि वह लगातार तीन बार ऐसा न करें तो उसके लेख तब इस साइट पर न डाले जाएँ जब तक कि वह पूर्व लेखों पर प्रतिक्रियाओं का समुचित उत्तर न दे दे।
केशव भाई , वहमों भरमों और पाखंडों को तो मैं भी मानता नहीं हूँ लेकिन धरम में गलत बातें आ जाने से अपना धर्म नहीं छोड़ सकता , न ही अपनी धर्म को बुरा कहूँगा किओंकि बुरा तो हमारा बाप भी हो सकता है . अगर कोई मुझे कहे मैं अपना नाम खैर मुहमद रख लूँ तो मेरी ज़मीर मुझे इजाजत नहीं देगी . मेरा मानना है कि धर्म को स्टडी करके जो उस में बुरी बातें लगती हैं मत माने लेकिन अपनी संस्कृति को नफरत की निगाह से देखना मेरे विचार से उचित नहीं . मैं एक बीबीसी की दाकुमैन्त्री देख रहा था जिस में अँगरेज़ दाइवर्ज़ समुन्दर में पुरानी दवारका जो समुन्दर में डूब चुक्की है उस में उस ज़माने की चीज़ें ढून्ढ रहे हैं किओंकि उस समय की सभिअता आज से बहुत भीं थी . मुझे हैरानी हुई कि अँगरेज़ हमारी ही संस्कृति को ढून्ढ रहे हैं जब हम लोग अपने ही धर्म को रिदिकिऊल कर रहे हैं .
मैं श्री गुरमेल सिंह भमरा जी के विचारों से पूरी तरह सहमत हूँ।
आपका लेख पढ़ा। आपने अपने ज्ञान व विवेक के आधार पर प्रश्न उठायें हैं। यही प्रश्न अपने समय में स्वामी दयानंद के मन में उत्पन्न हुए थे। उनका उन्होंने वेद, मनुस्मृति, अपनी ऊहा व विवेक से समाधान किया था। आपसे प्रार्थना है की आप निजी विचार कुछ भी रखे पर यदि हो सके तो एक बार “सत्यार्थ प्रकाश” पढ़ने का कष्ट करें। उंसके बाद यदि विशुद्ध मनुस्मृति भी पढ़ सकें तो ज्ञान वृद्धि की दृष्टि से उत्तम होगा। आप प्रतिभाशाली हैं एवं अभी आपको और अध्ययन की आवश्यकता हैं जिससे आपी अनेक शंकाएं दूर हो सकती हैं। आपने प्रतिभा है और आप समाज व देश के लिए बहुत कुछ सराहनीय कर सकते हैं। यह सलाह है. आप स्वतंत्र हैं, माने या न माने।
मान्यवर, मैं केशव जी से कई बार निवेदन कर चुका हूँ कि मिलावटी और भ्रष्ट मनुस्मृति की जगह आर्यसमाज द्वारा प्रकाशित शुद्ध मनुस्मृति पढ़िए और उससे उद्धरण दीजिये, पर वे नहीं मानते. वे गलत और मनमाने उद्धरण देकर हिन्दू धर्म और सभ्यता का अपमान ही करते रहते हैं. उनके सारे लेख गलत मान्यताओं और झूठे प्रमाणों पर आधारित होने के कारण व्यर्थ हैं. इसलिए मैं प्रायः उनके लेखों का उत्तर भी नहीं देता, क्योंकि यह मुझे समय का अपव्यय लगता है.
महर्षि दयानंद ने सत्य को छोड़ असत्य में झुकने के ४ कारण बताएं हैं : १ अविद्या, २ अपने प्रयोजन की सिद्धि, ३ हठ व ४ दुराग्रह। आपके विचारों से मैं पूरी तरह से सहमत हूँ।