एक दिन दादा जी मुझे कहने लगे, “गेली! कल को फगवारे शहर जाना है , तेरे लिए नए कपडे लेने हैं , क्योंकि तुम को स्कूल दाखल कराना है.” नए कपडे सुन कर तो मन खुश हो गया लेकिन स्कूल का नाम सुन कर डर सा लगा, क्योंकि मैंने सुन रखा था कि वहां का मास्टर साधू राम पीटता बहुत है। खैर, दूसरे दिन मैं दादा जी के बाइसिकल के पीछे बैठ गिया। कभी गाँव से बाहिर नहीं गया था, अब यह नया रास्ता अजीब सा लग रहा था। गाँव से बाहिर निकल कर देखा चारों और बृक्ष ही बृक्ष थे। आगे जा कर गाँव की एक छोटी सी नदी थी जिस को कैल बोलते थे।
यह कैल के बारे में बहुत कुछ सुन रखा था कि इस पर चोर रहते हैं जो लोगों को लूट कर बृक्षों में छुप जाते हैं । इस कैल में थोड़ा सा पानी हमेशा होता था और अपने जूते उतार कर इस को पार करना होता था। लेकिन बरसात के दिनों में इस को पार करना बहुत मुश्किल होता था क्योंकि यह कैल पानी से भर जाती थी और पानी का बहाव बहुत तेज होता था। पुल कोई होता नहीं था। हमने कैल पर पहुंचकर अपने जूते उतारे और धीरे धीरे पार कर गए। दादा जी फिर बाइसिकल चलाने लगे आगे जा कर गाँव बारन आया फिर दो किलोमीटर जा कर गाँव पलाही आया।
पलाही सिखों के छठे गुरु हरगोबिन्द जी का गुरदुआरा है, यह बहुत ही आलिशान गुरदुआरा है जिस में उन के एक घोड़े की हड्डीआं संभाल कर रखी हुई हैं , कहते हैं एक लड़ाई के दौरान उन के घोड़े की मृत्यु हो गई थी। पलाही पार करके बृक्ष ही बृक्ष आने लगे जैसे एक जंगल हो। हम चलते रहे और दादा जी ने कहा की पहले रोटी खा लें और पानी भी पी लें। फगवारे के नज़दीक पहुंचकर एक बहुत ही रमणीक जगह आ गई , दादा जी ने बताया, “इस जगह को भुआ धमडी बोलते हैं.” (अब भुआ धमडी की जगह बहुत बड़ा कालिज बना हुआ है.) य़ह जगह मुझे बहुत अच्छी लगी , इस में बेरीओं के दरख़्त थे जिस पर मोटे मोटे बेर लगे हुए थे, ( भुआ धमडी के बेर बहुत प्रसिद्ध हुआ करते थे ). यहां एक छोटी सी खूही थी जिस का पानी एक जगह इकठा हो जाता था और पीने पीने के लिए एक टूटी लगी हुई थी।
हम फिर चल पड़े और फगवारे शहर आ गए। मैंने कभी शहर नहीं देखा था, पहली दफा बसें देखीं, रिक्शे देखे, बड़ी बड़ी दुकानें देखीं। बिजली के खम्भे देखे। चहल पहल देख कर हैरान हो गया। फिर दादा जी के साथ एक कपडे की दुकान में गया। क्योंकि गर्मी हो गई थी, इसीलिए दूकान में छत पर पंखा चल रहा था, ट्यूब लाइट जल रही थी। पंखे को घूमता देख मैं हैरान हो रहा था और ट्यूब लाइट को तो बहुत ही ध्यान से देख रहा था। ऐसे लग रहा था जैसे किसी नई दुनिआ में आ गया हूँ।
दादा जी ने मेरे कमीज़ पजामे और पगड़ी के कपडे खरीदे और दरजी की दूकान पर चले गए। दरजी ने मेरा नाप लिया और कहा की चार घंटे लग जाएंगे। दूकान से निकल कर दादा जी मुझे एक हलवाई की दूकान पर ले गए और मेरे लिए रस्गुले ले आये और चाय का आर्डर दे दिया। हलवाई की दूकान से निकल कर हम बाहिर आ गए और दादा जी कहने लगे ” अभी कपडे मिलने में वक्त बहुत है , चल टाऊन हाल चलते हैं “. हम टाऊन हाल आ गए और उस में घूमने लगे। तरह तरह के फूल देख कर मैं हैरान हो रहा था और सब से हैरानी मुझे तब हुई जब आगे जा कर महात्मा गांधी का बुत्त देखा। गांधी जी की आँखों पर ऐनक , हाथ में डंडा और पैरों में चपल थी, यह बुत्त देख कर बहुत हैरान हुआ । कुछ घंटे टाऊन हाल में हम एक बृक्ष के नीचे बैठे रहे और फिर कपडे लेने के लिए चल पड़े। कपडे तैयार हो चुके थे। दादा जी ने वहीँ दूकान में मेरे नए कपडे पहनकर देख लिये, ताकि कोई नुकस न हो। कपडे ठीक थे, इस लिए कपडे ले कर गाँव को चल दिए।
कुछ लड्डू दादा जी ने फगवारे से ही ले लिए थे , इस लिए दूसरे दिन सुबह दादा जी मुझे स्कूल ले आये। मास्टर साधू राम जी ने मेरा नाम बगैरा अपने रजिस्टर में लिखा और एक लड़के को क्लास में लड्डू बांटने के लिए कह दिया और मुझे क्लास में जमीं पर बिछी एक चटाई पर बिठा दिया जिस को तपड़ बोलते थे। दादा जी चले गए और मैं एक लड़के की ओर देखने लगा जो पड़ा रहा था, शायद यह क्लास का मॉनिटर था। लड़का ऊंची ऊंची अल्फ बे पे बोल रहा था और सभी लड़के उस के पीछे बोल रहे थे, मैं भी बोलने लगा जो मेरे लिए अजीब था। कभी कभी सोचता हूँ की कितना समय बदल गया जब उस समय स्कूल सिर्फ छठी कलास तक था और सब से अजीब बात यह की सिर्फ एक ही टीचर साधू राम होता था जो बहुत डिसिप्लिन रखता था और बड़ी सोटी रखता था। जब वोह सोटी मारता तो इतनी जोर से मारता की चीख निकल जाती और हाथ पर निशाँन पड़ जाते।
यह स्कूल छोटा सा था, एक हाल कमरा, उस के सामने बरामदा और साथ में छोटा सा कमरा जो मास्टर जी का ऑफिस था। यह स्कूल छोटी ईंटों से बना हुआ था और इस स्कूल में एक बहुत बड़ा पीपल का दरख्त था और एक खूही थी जिस के नज़दीक रस्सी से बाँधी हुई एक बाल्टी होती थी, लेकिन जब किसी ने पानी पीना हो तो साधू राम मास्टर जी के सामने खड़े हो कर दोनों हाथ जोड़ कर पूछना पड़ता था ” मास्टर जी ! पानी पी आऊं?”. कई दफा मास्टर जी अपने काम में बिज़ी होते थे तो बार बार कहते थे ” मास्टर जी पानी पी आऊँ ?” . फिर मास्टर जी हाँ कह देते तो खूही पर जा कर पहले बाल्टी से पानी निकालते और फिर वहां पड़ी एक गड़वी से एक हाथ से गड़वी पकड़ कर दूसरे हाथ का एक कप सा बना कर हम पानी पी लेते। कई दफा हम ने पिशाब के लिए स्कूल से बाहिर जाना होता था तो फिर मास्टर जी के आगे हाथ जोड़ कर खड़े होना पड़ता था। आज इन बातों पर हंसी आती है लेकिन वोह समय ही ऐसा था।
सभी क्लासों के लड़के नीचे तपड़ों पर ही बैठते थे और ऊंची ऊंची सबक याद करते थे। मेरे कानों में अभी तक बड़ी क्लास के मोनीटर की आवाज़ याद है जिस में वोह पाउंड शिलिंग और पैंस के सवाल लिखाता था और कभी कभी रूपए आने पैसे और पाई के सवाल लिखाता था। अक्सर मैं हैरान होता हूँ की वकत देखने के लिए मास्टर जी हमें एक लड़के को रोज़ सोहन लाल डाक्टर की सर्जरी को भेजते थे, जिस में बहुत बड़ा ग्रैंड फादर क्लॉक लगा हुआ था, जिस में नीचे एक पेंडुलम इधर उधर आता जाता था, फिर जब घंटा पूरा होता तो जोर से बजता। सोहन लाल बता देता की अब चार बज गए हैं। लड़का स्कूल को भाग भाग कर आता और कहता मास्टर जी चार बज गए। उसी समय लड़कों की भाग दौड़ शुरू हो जाती।
हर लड़के के पास सलेट और एक तख्ती जिस को हम फट्टी बोलते थे होती थी। एक मट्टी की दवात होती थी जिस में स्याही भरी होती थी। तख्ती पर लिखने के लिए हम कलम बनाते जो एक पतले बांस जैसी होती थी जिस को नाड़ा बोलते थे। हर एक लड़के के पास चाक़ू होता था जिस से वोह कलम को घड़ता था। यह कलम बनाने का भी एक आर्ट होता था। कई लड़के जो अच्छी कलम बनाते थे उस की मिन्नतें करनी पड़ती थी और वोह लड़का बदले में सलेटी का एक टुकड़ा मांगता। हमको हर रोज़ फट्टी पर पहले लिखे हुए अक्षरों को पानी से धोना होता था जिस को हम फट्टी पोछना कहते थे। इस के लिए कुछ दूरी पर एक तालाब पर जाना होता था। हम फट्टी को धोते, फिर उस पर एक पीली मट्टी जिस को गाचनी बोलते थे उस की एक टिक्की को घिसते जिस से एक तह सी बन जाती।
फिर फट्टी से लगे एक हैंडल को पकड़ कर धूप में इधर उधर घुमाते जिस से फट्टी कुछ ही देर के बाद सूख जाती। सूखने के बाद दूसरे दोस्त की फट्टी से पैंसल के साथ सीधी लाइनें खींचते ताकि लाइनों में अच्छा लिखा जा सके। यह हमारा रोज़ का काम होता था। सोच सोच कर हंसी भी आ रही है कि जब हम दवात यानी इंकपॉट में स्याही की नई टिक्की डालते थे तो बैठकर दवात को दोनों पैरों के बीच दवात को रख के उस में एक कलम को दोनों हाथों से घुमाते थे ताकि स्याही अच्छी बन जाए और साथ ही साथ बोलते जाते थे ” मेरी स्याही पक्कड़ रामू की स्याही कचड़ “। कितना मज़ा था इन बातों में !
जी हाँ , और एक तबदीली जो अचानक हो गई वोह यह थी कि अभी अल्फ बे पे ही सीखा था और एक छोटी सी कविता पढ़ी थी “आ जा पियारी चिड़िआ आ जा, चूं चूं करके गीत सुना जा, नन्ने नन्ने पंजे तेरे। …. ” कि साधू राम मास्टर जी ने बताया कि उर्दू ख़त्म कर दिया गया है और कल से पंजाबी पढ़ाई जायेगी। विचारे साधू राम! जिन को खुद भी पंजाबी नहीं आती थी, नए सिरे से नई जुबां पंजाबी सीखनी पड़ी। मैंने तो अपनी माँ से दो तीन दिन में ही पंजाबी सीख ली। दूसरे लड़के भी धीरे धीरे सीख गए। तब एक दिन नए मास्टर जी आ गए जिन का नाम था बिरज लाल। बिचारे को पंजाबी बिलकुल नहीं आती थी। हम ऊल जलूल बातें लिखकर उस के पास ले जाते और कहते, मास्टर जी ! हमें नंबर दो। विचारे मास्टर जी लिख देते दस में से आठ। बाद में हम लड़के खूब हँसते और हम ने उस मास्टर जी का नाम ही बिज्जू रख दिया था जिस का अर्थ पंजाबी में बेवकूफ होता है। वाह रे वोह दिन !!
चलता…..
परी कहानियों सा रोचक कहानी …… जिज्ञासा बढती जा रही है
विभा बहन, आप मेरी कथा पसंद कर रहे हैं , मुझे इस से हौसला अफजाई मिलती है . बहुत बहुत धन्यवाद .
बहुत खूब, भाई साहब ! आपकी कहानी पढ़कर मेरे बचपन के दिनों की याद ताज़ा हो गयी.
हम भी कक्षा 2 तक लकड़ी की तख्ती पर ही पढ़े थे, जिसे हम ‘पट्टी’ कहते थे. हम उस पर एक दावत में घोली हुई खड़िया मिटटी से लिखते थे, जो पहले बहुत मिलती थी, अब शायद नहीं मिलती. कई गरीब बच्चे जो खड़िया नहीं खरीद पाते थे, पोता मिटटी (जिससे चूल्हे पोते जाते हैं) घोलकर ले आते थे और उससे लिखते थे. मैं कलमें बनाने में सिद्ध हस्त था. हम ब्लेड से कलम बनाते थे और कई बार अपनी उंगली चीर लेते थे.
पट्टी को धोकर हम भी हिला हिलाकर सुखाते थे और एक गीत बोलते थे, जो मुझे अब भी याद है- ‘सूख सूख पट्टी, चन्दन गट्टी, आयौ राजा, महल चिनायौ, महल के ऊपर झंडा गाढौ, झंडा गयौ टूट, पट्टी गयी सूख”
पट्टी सूखने के बाद हम एक कांच के गोल टुकड़े से उसे घिसते थे, ताकि वह चिकनी होकर चमक जाये. उस कांच को हम ‘घोंटा’ कहते थे और पट्टी चमकाने को घोंटना कहते थे.
विजय भाई , अब वोह दिन वापिस तो हरगिज़ नहीं आ सकते लेकिन उन्हें याद करके एक आनंद सा मिल जाता है . पट्टी को हिला हिला कर हम भी गाया करते थे , लिखना चाहता था लेकिन याद नहीं आ रहा था . सिर्फ इतना ही याद था , सुक सुक पटिये …. . पट्टी के ऊपर जो लाइनें लगाते थे वोह एक टॉर्च बैटरी को तोड़ कर , उस से एक काला सा चाक होता था उस को निकाल कर उस से लगाते थे . जो सिआही होती थी उस में दरख्तों का गूंद (GUM) मिलाते थे जिस से अक्षर चमकने लगते थे . वोह भी दिन थे ……
किसी प्रसिद्ध उपन्यास से भी अधिक रोचक लग रही है आपकी कहानी “आत्मा कथा”. सभी घटनाएँ मन को छूती हैं। पढ़कर एक गीत की पंक्ति याद आ गई जिसमे कहा है “कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन”. यह तो असंभव है। अब तो भावी जीवन को अधिक सुखदायक बनाने का प्रयत्न करना है। अगली किश्त की प्रतीक्षा है। हार्दिक धन्यवाद।
हा…हा…हा…हा… बीता हुआ जमाना आता नहीं दुबारा !
आप की बात ठीक है। यह सत्य है कि वक्त कभी रुकता नहीं, आगे की ओर ही दौड़ता रहता है। इसी प्रकार अतीत की यादों को लेकर हम सब आगे बढ़ रहें हैं। समय बहुत सी बातों को पूरी तरह भुला भी देता है जैसे कि हम सबको पूर्व जन्म की बातें भूल चुकी हैं। शायद यह अच्छा ही है।
मनमोहन जी , बहुत बहुत धन्यवाद . अब वोह दिन वापिस तो नहीं आ सकते लेकिन यह मीठी यादें हैं जिन को कभी कभी याद करके मज़ा सा आता है.
शायद यह प्रकृति का विधान है। धन्यवाद।