यशोदानंदन-२८
गोधन एवं गोपों का अपहरण कर ब्रह्मा जी उन्हें अपने लोक में ले गए। अपनी योग-शक्ति से उन्होंने सबको सुला दिया था। एक वर्ष के पश्चात्उन्होंने श्रीकृष्ण की विकलता देखने के लिए वृन्दावन की यात्रा की। उन्होंने वहां जो दृश्य देखा, उसे देख उनके आश्चर्य की सीमा नहीं रही। निश्चिंत श्रीकृष्ण वंशी बजा रहे थे, ग्वाल-बाल क्रीड़ा में मग्न और गौवें अपने बछड़ों के साथ घास चर रही थीं। उन्हें प्रतीत हुआ कि कही वे दृष्टि भ्रम का शिकार तो नहीं हो गए? वे और निकट आए। अब जो दृश्य उनके सम्मुख था, वह तो और अद्भुत था — सभी ग्वाल-बाल और गोधन उन्हें विष्णु-रूप में दृष्टिगोचर हो रहे थे। सबका रंग सांवला था, सभी पीतांबर धारण किए थे, सबों की चार-चार भुजायें थीं जिनमें शंख, चक्र, पद्म और गदा विराजमान थी। उनके शीशों पर स्वर्णमंडित, रत्नजटित देदीप्यमान मुकुट थे। वे मोतियों और कर्णाभूषणों से मंडित थे और पुष्प-मालायें धारण किये हुए थे। उनके वक्षस्थलों पर श्रीवत्स का चिह्न था, उनकी भुजायें, बाजूबंदों तथा अन्य रत्नों से मंडित थी। उनकी ग्रीवा शंख के समान थी। उनके पैरों में नूपुर थे। कटि में सुनहरी घंटिकायें थीं। उन सबके शरीर पर चरण कमलों से लेकर मस्तक तक ताजा तुलसीदल अर्पित किए गए थे। उनकी स्मित चन्द्रप्रकाश सदृश थी और चितवन उदित होते हुए सूर्य के समान। ब्रह्मा जी ने यह भी लक्ष्य किया कि उस विष्णु-समूह को घेरकर अनेक ब्रह्मा, शिव तथा समस्त देवता नृत्य कर रहे थे। एक चींटी से लेकर सभी जड़-जंगम अपने-अपने ढंग से पूजा कर रहे थे।
ज्ञान की देवी के अधिष्ठाता तथा वैदिक ज्ञान के सर्वोत्कृष्ट अधिकारी ब्रह्मा जी अपनी सीमित शक्ति के कारण हतप्रभ थे। उन्हें स्वयं के उपर क्रोध भी आ रहा था। उन्हें ऐसा लगा कि उनसे अधिक तो कंस ही महाप्रभु को पहचानता है। तभी तो उनका वध करने के लिए उनके जन्म से ही निरन्तर प्रयास कर रहा था। उन्हें समझते देर नहीं लगी कि वे स्वयं तथा उनके द्वारा सृजित समस्त सृष्टि मात्र कठपुतलियां हैं। सारे देवता, सभी जीव, जड़-चेतन को नचाने वाले तो स्वयं नारायण हैं। वे ही सबके स्वामी हैं और सभी उनके दास। सारा संसार भौतिक तरंगों के वश में है और सारे प्राणी तिनकों के समान जल में तैर रहे हैं। जीवह-संघर्ष सतत चलता रहता है, किन्तु मनुष्य को जैसे ही बोध हो जाता है कि वह ईश्वर का शाश्वत दास है, तो यह माया या जीवन-संघर्ष तत्काल समाप्त हो जाता है। ब्रह्मा जी व्यग्र थे लेकिन कर कुछ भी नहीं पा रहे थे। उन्हें किंकर्त्तव्यविमूढ़ देख श्रीकृष्ण को उनपर दया आ गई। अविलंब उस दृश्य से अपनी योगमाया का आवरण हटा लिया। ब्रह्मा जी की व्यग्रता अब जाती रही। उन्हें ऐसा लगा, जैसे चिर निद्रा से अभी-अभी जगे हों। वे अपने नेत्र कठिनाई से खोल पा रहे थे। जब नेत्र पूरी तरह खुले, तो उनके सम्मुख वंशी बजाते श्रीकृष्ण, गौवें, बछड़े, ग्वाल-बाल तथा वृन्दावन का अत्यन्त मनोहारी दृश्य था। वे अविलंब अपने वाहन हंस से उतर आए। उन्होंने श्रीकृष्ण को दंडवत किया। उनके नेत्र कान्हा के चरणों पर अश्रुपात कर रहे थे। अनेक बार प्रणाम करके वे उठे और अपने कर कमलों से अपनी आँखें पोंछीं। स्वयं श्रीविष्णु को अपने समक्ष देख वे कंपित होकर अत्यन्त सम्मान. विनय तथा ध्यानपूर्वक प्रार्थना करने लगे —
“हे भगवन्! आप ही एकमात्र आराध्य परमेश्वर हैं। मैं आपको बार-बार प्रणाम कर रहा हूँ। मेरा प्रणाम स्वीकार कर मुझे अनुगृहीत करें। हे प्रभु! सारा जगत मुझे समस्त वैदिक ज्ञान का स्वामी कहता है। मुझे कदाचित्इस कारण अहंकार हो गया था। आज मुझे विदित हुआ कि मैं तो निमित्त मात्र हूँ। इस संपूर्ण चराचर जगत के स्वामी तो आप ही हैं। आप ही आदि शक्ति हैं। मैंने आपको महाराज नन्द का एक सामान्य बालक समझकर बड़ी भूल की। मैंने आपकी परीक्षा लेने के लिए आपके गोधन और ग्वाल-बालों का अपहरण किया। मैंने ऐसी धृष्टता की जो क्षमा योग्य नहीं है। फिर भी आपने मुझे दंडित नहीं किया। आपने एक वर्ष तक धैर्यपूर्वक अपनी लीला की। कहां मैं आपकी परीक्षा लेने आया था और कहां स्वयं परीक्षार्थी बन बैठा। आप तो पूर्णांकों के साथ उत्तीर्ण रहे, परन्तु मैं तो असफल ही रहा न। मैं अपने अपराध के लिए किन शब्दों में आपसे क्षमा याचना करूं, मेरी समझ के परे है। आप अन्तर्यामी हैं। शब्दों से अधिक भावों को समझते हैं। आपके इस बालरूप के दर्शन से मेरी आत्मा तृप्त हो गई है और मन से अहंकार का सदा के लिए पलायन हो गया है। हे अच्युत! मेरा चिन्तन शुद्ध हो गया है। अतः मुझे क्षमा करके अपराध बोध से मुक्त करने की महती कृपा करें।
हे अनादि! हे अनन्त! कुछ दार्शनिक या विज्ञानी विराट प्रकृति के एक-एक अणु का अध्ययन कर सकते हैं, वे इतने प्रगतिशील भी हो सकते हैं, विराट आकाश और उसमें स्थित समस्त ताराओं, ग्रह-नक्षत्रों के परमाणुओं की गणना भी कर सकते हैं, परन्तु कोई भी किसी विधि आपके गुणों की गणना नहीं कर सकता। आप अक्षय हैं। आपको सिर्फ भक्ति के मार्ग से जाना जा सकता है। आपको वही जान सकता है जिसपर आपकी अहैतुक कृपा होगी और जिसे आप जानने के लिए प्रेरित करेंगे। जो व्यक्ति आपकी अचिन्त्य शक्ति से परिचित नहीं है, वह परम ज्ञानी होने के बाद भी मेरी तरह भ्रम का शिकार बन जाता है। आप ही स्रष्टा ब्रह्मा, पालक विष्णु तथा संहारकर्ता शिव के रूप में अपना विस्तार करते हैं। देवताओं में आप वामनदेव के रूप में और मनुष्य में राम-कृष्ण के रूप में अवतरित होते हैं। फिर भी आपका कोई स्वरूप नहीं है। आप शाश्वत है। आपका प्राकट्य तथा तिरोधान, आपकी अचिन्त्य शक्ति से भक्तों को सुरक्षा प्रदान करने तथा आसुरी शक्तियों के विनाश के लिए होता है। आप परम अद्वितीय और परम परमात्मा हैं। हे परम पिता! आपको निर्गुण मानना असत्य है। मैं स्वयं देख रहा हूँ कि आप महाराज नन्द के पुत्र होकर भी आदि पुरुष हैं। आप मूल ब्रह्म-ज्योति तथा सूर्य-चन्द्र एवं नक्षत्रों जैसे भौतिक ज्योतिष्कों के स्रोत हैं। मैं पुनः अपनी धृष्टता के लिए क्षमा-याचना करता हूँ। मुझे क्षमा दान देकर अपराध-बोध से मुक्त करने की महती कृपा करें।”
श्रीकृष्ण ने मुस्कुराकर क्षमा दान दिया। इधर ब्रह्माण्ड के स्वामी ब्रह्मा ने अपनी योगमाया समेटी और उधर श्रीकृष्ण ने अपनी। ब्रह्मा जी ने भगवान को सादर प्रणाम किया तथा तीन बार परिक्रमा की, पश्चात्अपने लोक को प्रस्थान करने की अनुमति मांगी। श्रीकृष्ण ने संकेत द्वारा उन्हें अनुमति प्रदान की।
श्रीकृष्ण के मित्र और गोधन एक वर्ष के बाद लौटे थे, किन्तु उन्हें लग रहा था कि वे एक क्षण में ही वापस आ गए हैं। भगवान भास्कर समस्त लीलाओं के साक्षी थे। वे भी पश्चिम के क्षितिज में स्थित हो मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे। श्रीकृष्ण ने उन्हें भी यमुना के जल में डुबकी लगाने का निर्देश दिया तथा स्वयं गोधूलि वेला में धूल उड़ाते गोधन और मित्र मंडली के साथ वंशी की अलौकिक धुन बजाते हुए वृन्दावन की ओर चल पड़े।