कविता

हनुमान का लंका गमन

विपदा के बादल थे छाये, वानर सागर के तट आये

विस्तृत सिन्धु था भव्य अपार, शत योजन जिसका विस्तार

वानर हारे से बैठ गए, मारे मारे से बैठ गए

हरी के काम से भटके हैं, किन्तु अब निश्चित अटके हैं

दे देंगे हम सब प्राण यहीं, किन्तु लौटेंगे अब न कहीं

ऐसा प्रलाप कर बैठ गए, सागर के आगे ऐंठ गए

सम्पाती ने अट्हास किया, कायर कहकर उपहास किया

तब वानर सब अकुलाये से, थे देख रहे घबराये से

है कौन जो हमपे हँसता है, रह रहकर ताने कसता है

जब खोजा सबने सम्पाती को, चौड़ी कर अपनी छाती को

तब जामवंत ने बतलाया, सम्पाती को सब समझाया

वर्णन जटायु का किया, तभी विष कानों से था पिया

तभी रावण ने सिय को हरा, जहाँ लड़ता जटायु तब मरा

वहाँ बतलाओ दशानन कहाँ गया, देखो उस ओर वो जहाँ गया

निर्बल सम्पाती रोता था, दुर्बलता रह रह धोता था

तब सम्पाती रोता रोता, भैया की यादों में खोता

बोला सागर उस पार सुनो, बैठी रोती एक नार सुनो

निश्चित ही माता सीता वो, हो गयी दुखों की मीता जो

यह सुन वानर दल हरषाया, दारुन्य गया उत्सव छाया

इत अंगद के फूटे उदगार, कौन करे सिन्धु को पार

वानर दल में फिर से शोक, नहीं दिखा अब भी आलोक

फिर गर्वीली छाती करके, राम नाम मनभीतर धरके

अंगद बोला मैं जाता हूँ, सीता की सुधि मैं लाता हूँ

निश्चित न किन्तु आ पाउं, सुधि तुम तक ना मैं ला पाऊँ

यह सुन वानर सब घबराए, परिणाम न निश्चित कर पाए

तब जामवंत ने किया विचार, कौन करे सिन्धु को पार

कौन कहो है सहज सुजान, बुद्धिवीर और अति बलवान

नाम ह्रदय में था हनुमान, ज्ञान, बुद्धि और क्षमतावान

मग्न स्वयं में खोया कौन, जिसके सम्मुख पसरा मौन

हैं विचार में डूबे लोचन, अब तो जागो संकट मोचन

हे वायुपुत्र अंजनानंदन, तुमको करते वानर वंदन

किस विचार में खोये उठो, अपनी शक्ति को बोये उठो

तुमसा ना कोई वीर यहाँ, पर्वत सा ना गंभीर यहाँ

कर सकते तुम शत योजन पार, राम नाम की भर हुंकार

आदिदेव से पाया ज्ञान, और गुरु शंकर भगवान्

सामर्थ्य के ऐसे धनी तुम्ही, हो रामकाज के प्रनी तुम्ही

एक छलांग जो मारोगे, हम सबको वीर उभारोगे

कपिराज तुम्ही अब रखवाले, हो राम काज को मतवाले

जाओ यूँ समय लगाओ ना, क्षण क्षण ये व्यर्थ गवाओ ना

राम के प्रिय हे मीत तुम्ही, होगे निश्चित अविजीत तुम्ही

राम की है सौगंध तुम्हे, ना रोक सकेंगे बंध तुम्हे

सुनकर जामवंत की बात, क्षमताएं कर अपनी ज्ञात

क्षण भर में त्यागा विश्राम, लेकर प्रभु का मन में नाम

मचल उठा सिन्धु का घाट, हनुमान जब हुए विराट

अंगद ने सहसा छेडी तान, सब मिल बोले जय हनुमान

पवनतनय बढ़ चले अविराम, मुख पर धरकर जय श्री राम!!

_____सौरभ कुमार दुबे

सौरभ कुमार दुबे

सह सम्पादक- जय विजय!!! मैं, स्वयं का परिचय कैसे दूँ? संसार में स्वयं को जान लेना ही जीवन की सबसे बड़ी क्रांति है, किन्तु भौतिक जगत में मुझे सौरभ कुमार दुबे के नाम से जाना जाता है, कवितायें लिखता हूँ, बचपन की खट्टी मीठी यादों के साथ शब्दों का सफ़र शुरू हुआ जो अबतक निरंतर जारी है, भावना के आँचल में संवेदना की ठंडी हवाओं के बीच शब्दों के पंखों को समेटे से कविता के घोसले में रहना मेरे लिए स्वार्गिक आनंद है, जय विजय पत्रिका वह घरौंदा है जिसने मुझ जैसे चूजे को एक आयाम दिया, लोगों से जुड़ने का, जीवन को और गहराई से समझने का, न केवल साहित्य बल्कि जीवन के हर पहलु पर अपार कोष है जय विजय पत्रिका! मैं एल एल बी का छात्र हूँ, वक्ता हूँ, वाद विवाद प्रतियोगिताओं में स्वयम को परख चुका हूँ, राजनीति विज्ञान की भी पढाई कर रहा हूँ, इसके अतिरिक्त योग पर शोध कर एक "सरल योग दिनचर्या" ई बुक का विमोचन करवा चुका हूँ, साथ ही साथ मेरा ई बुक कविता संग्रह "कांपते अक्षर" भी वर्ष २०१३ में आ चुका है! इसके अतिरिक्त एक शून्य हूँ, शून्य के ही ध्यान में लगा हुआ, रमा हुआ और जीवन के अनुभवों को शब्दों में समेटने का साहस करता मैं... सौरभ कुमार!

3 thoughts on “हनुमान का लंका गमन

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत अच्छा कविता !

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    अच्छी कविता .

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