कविता : कागज
वो पुर्जे जो कागज़ के हैं भीग गए
किसी की याद के टूटे किस्से थे
वो मेरे दिल के टुकड़े थे शायद
शायद वो जिंदगी के हिस्से थे
आज उन किस्सों को दफनाकर
वो मेरे दिल को दिए यूँ ठोकर निकली
दूर तक फैली हुयी वो गिरी स्याही
सुर्ख कागज़ को भिगोकर निकली
हाथ में आती नहीं है अब कलम कोई
उँगलियों को खुद में पिरोकर निकली
बहुत अच्छी कविता .