मेरी कहानी – 10
मेरी बहन मुझ से तीन वर्ष बड़ी थी और क्योंकि लड़किओं के लिए स्कूल होता नहीं था तो उसने घर में रहकर ही माँ से पंजाबी सीख ली और जल्दी ही सिख धर्म की किताबें पढ़ने लगी। क्योंकि माँ रोज़ाना पाठ करती थी इसलिए वोह भी काफी कुछ सीख गई थी। घर के सभी कामों में वोह माँ की मदद करती। वोह चरखा कातती और घर के लिए दरीआं बुनती , चारपाईओं के लिए चादर आदिक बनाती जिस पर तरह तरह के डिज़ाइन होते। बहन की कुछ सखियाँ थीं जो हमारे घर अक्सर आती जाती रहती थी। बहुत दफा वोह मिल कर चक्की से आटा पीसती और साथ ही गाती रहती।
हमारा घर पिताजी ने खुद डिज़ाइन करके बनाया था। क्योंकि पिता जी बिल्डर भी थे और कारपेंटर भी। घर बहुत बड़ा नहीं था लेकिन इतनी ख़ूबसूरती से बनाया था कि घर में हर जरुरत के लिए व्यवस्था थी। घर में दाखिल होने के लिए जो बड़ा दरवाजा था उस के ऊपर गुरु नानक देव जी, बाला और मर्दाना तीनों की तस्वीर बनाई हुई थी जो उन्होंने खुद ही बनाई थी। बड़े भाई जो मुझ से चार पांच वर्ष बड़े होंगे वोह गाँव में छठी कक्षा की पढ़ाई खत्म करके पलाही गाँव को पढ़ने के लिए जाते थे क्योंकि वहां मिडल तक पढ़ाई होती थी। हमारे गाँव के सभी लड़के पैदल चल कर पलाही पढ़ने के लिए जाते थे। पलाही चार किलोमीटर दूर था , और उन को रोज़ाना चार किलोमीटर पैदल जाना और आना पड़ता था क्योंकि बाइसिकल उस समय बहुत कम होते थे। यह रास्ता बहुत मुश्किल होता था ख़ास कर बरसात के दिनों में। बहुत दफा जब बरसात के दिनों में स्कूल से वापिस आते तो उन के कपडे कीचड़ से भरे हुए होते ।
बड़े भईया पड़ने में रूचि नहीं रखते थे। एक दफा जब पिताजी अफ्रीका से आये तो भइया को डांटने लगे तो वोह रोने लगे। पिता जी सख्ती से बोले ” अगर पढ़ना नहीं तो क्या करना है?” भैया बोले,” मैं कारपेंटर का काम करूँगा.” य़ह देख कर पिताजी अफ्रीका को जाते वकत भैया को भी साथ ही ले गए। एक बात मैं लिखने से संकोच नहीं करूँगा कि मेरे पिताजी बहुत सख्त सुभाव के थे और मैं उन से बहुत डरता था।
जिस तालाब पे हम पट्टिआं पोछने जाते थे छुट्टी के बाद हम उस तालाब में नहाने भी लग जाते थे। इस तालाब का नाम था डबरी . हम तो मस्ती करते थे लेकिन खतरे से नावाकिफ थे। एक लड़के की मृत्यु भी हो गई थी उस तालाब में नहाते हुए। एक दफा हम नहा रहे थे और उस तालाब में नहा रही भैंसों की पूंछे पकड़ कर तैर रहे थे , हम एक डंडे से भैंस को मारते तो भैंस जल्दी जल्दी तैरने लगती और साथ ही हम भी तैरते जैसे समुन्दर में सर्फिंग कर रहे हों । हमारे लिए तो यह एक मस्ती ही थी लेकिन यह खतरे से खाली नहीं थी क्योंकि बहुत दफा भैंस गहरे पानी में जाने लगती तो उस वक्त एक डर सा भी लगा रहता था।
एक दिन ताऊ नन्द सिंह ने मुझे नहाते हुए देख लिया और घर जाकर मेरे पिता जी को सब कुछ बता दिया। पिताजी उसी वक्त तालाब पर पुहंच गए और तालाब से बाहिर निकलते ही उन्होंने मुझे बालों से पकड़ लिया और घर तक मुझे पीटते ले आये। घर आकर इतना पीटा कि मेरा पिशाब निकल गया। जितनी देर पिता जी गाँव में रहे मैं तालाब पर नहीं गया। मैं यह ही सोचता रहता था कि भगवान करे पिताजी अफ्रीका वापिस चले जाएँ। आज मैं पिताजी की चिंता समझ सकता हूँ कि वोह खतरे से मुझे बचाना चाहते थे। लेकिन दुसरी तरफ मैं उन से इतना डरता रहता था कि पिताजी से मेरा वोह प्यार का रिश्ता जो बेटे और बाप में होना चाहिए वोह बन नहीं सका। प्यार तो दिल में था लेकिन दिल खोल कर कभी बात नहीं कर सका, एक संकोच सा लगा रहता था।
माँ और दादा जी के नज़दीक ही रहा। माँ और दादा जी से मुझे इतना प्यार मिला कि वोह हर वकत याद आते रहते हैं। एक बात और भी मैंने जब मेरे बच्चे हुए तो सोच ली थी कि मैं अपने बच्चों को कभी पीटूंगा नहीं और उन के साथ दोस्तों जैसा रहूँगा ताकि बच्चों और हमारे दरम्यिान कोई दीवार ना बन सके और इस में हम सफल हुए जिस का मुआवज़ा हमें ऐसा मिला कि मेरे सभी बच्चे, पोते दोहते और दोहती दोस्तों जैसे हैं और आपिस में हर बात निधड़क होकर करते हैं। पिताजी के अफ्रीका जाने के बाद मैंने फिर डबरी तालाब पर नहाना शुरू कर दिया. इस डबरी से मेरी इतनी यादें जुड़ी हैं कि कभी भूल ही नहीं सकता .(अब इस डबरी को मट्टी से भर कर ऊपर दुकाने और बड़ी बड़ी कोठी बन गई हैं और इसके आगे से बढिया सड़क बन गई है ).
गाँव में उस वकत किसी के घर में भी टॉयलेट नहीं होती थी और सभी सुबह को खेतों में और ख़ास कर डबरी के नज़दीक खेतों में बैठ जाया करते थे। डबरी के एक ओर बड़े बड़े पेड़ और झाड़ीआं थीं, इस लिए हम इन झाडीओं में बैठ जाया करते थे। जब सर्दिओं के दिन होते तो डबरी का पानी सूख कर खत्म हो जाता था। गाँव की इस्त्रीआं अक्सर खुर्पों से मट्टी खुरचती और अपने टोकरों में भर कर घर को ले जाती थीं जिस से वोह अपने कच्चे घरों की मर्रमत करती थी क्योंकि यह मट्टी सीमैंट जैसा काम करती थी। मट्टी निकालने से उस जगह बड़े बड़े गड़े बन जाते थे और यही गड़े बरसातों के दिनों में कुँए जैसे बन जाते थे। गर्मिओं के दिनों में जब हम नहाते तो धीरे धीरे इन गढ़ों में चले जाते और कुछ देर बाद हाथ पैर मारते हुए पानी के ऊपर आ जाते थे। यहां से ही हम ने तैरना सीखा था। लेकिन यह खतरनाक खेल था और सभी लड़के डर के मारे वहां जाते नहीं थे। हम आज़ाद पक्षिओं की तरह थे, जिधर जी चाहता हम चले जाते।
भय का भूत होता है! आपकी यह किस्त भी रोचक लगी।
धन्यवाद विजय भाई , आप ने सही कहा , एक तो पहले ही हम इस को सख्ती जामुन मानते थे , दुसरे जो लोग मेरे बारे में बातें कर रहे थे तीसरे शाएद जामुन भी ज़िआदा खा ली होंगी जिन के कारण मुझे बुखार हुआ . यह छोटी सी घटना लिखने का मेरा मकसद यही है कि कैसे बचपन से हमारे दिल में एक वहम तथा भय बिठा दिया जाता है
आज की किश्त में वर्णित सभी घटनाओं को पढ़कर आपके बचपन के जीवन प्रवाह को जाना। बहुत अच्छा लगा। आपसे मिलती जुलती कुछ अपने जीवन की यादें भी ताजा हो गयी। जामुन के पेड की घटना का आपने सजीव चित्रण किया है। आपको जो ज्वर चढ़ा उसमे आपके मन का डर मुख्य लगता है जो लोगो की तरह तरह की अज्ञानमूलक बातों को सुनकर पैदा हुआ था। महर्षि दयानंद ने सन १८७४ में लिखे सत्यार्थ प्रकाश में बच्चों की शिक्षा का वर्णन करते हुए यह भी लिखा है कि बच्चो को भूत, प्रेत, चुड़ैल तथा शैतान आदि की मिथ्या व बे सिर पैर की बातो की सच्चाई बता कर उनके मन से इन बड़ों का डर निकाल दे। इसका अच्छा वर्णन उन्होंने अपनी पुस्तक में किया है। उनके शब्द हैं : ‘माता पिता को चाहिय कि जो-जो विद्या – धर्मविरुद्ध और भ्रान्तिजाल में गिरनेवाले व्यवहार हैं उनका भी उपदेश अपने संतानो को ५ वर्ष की आयु में ही कर दें जिससे बालकों को भूत-प्रेत-चुड़ैल आदि मिथ्या बातों में विश्वास न हो।” यह प्रकरण कुछ लम्बा है अतः काफी विस्तार हो जायेगा। इस पर यदि मन हुआ तो एक पूरा लेख लिखूंगा। आज की किश्त बहुत अच्छी लगी, इसके लिए धन्यवाद।
मनमोहन जी , धन्यवाद . बचपन और जवानी में भी नामालूम इतनी कितनी ऐसी बातें हम ने देखि कि बड़ा हो कर इन बातों को मानना तो किया मैं एक तरह का नास्तिक ही हो गिया हूँ . यही कारण है कि मैं आज इन बाबा संतों को जो जनता को मुर्ख बना कर लूट रहे हैं इन को बहुत नफरत करता हूँ और रेडिओ को इन के मुतलक लघु कथाएँ भेजता रहता हूँ . यह भी नहीं कि महान धर्म गुरुओं का बीज नाश हो गिया है लेकिन ऐसे महान लोग कम हो गए हैं जैसे सुआमी दया नन्द जी थे.
हार्दिक धन्यवाद। आपकी ही तरह धर्म में अज्ञान एवं अंधविश्वाओं के कारण स्वामी श्रद्धानन्द और पंडित गुरुदत्त विद्यार्थी जी भी नास्तिक हो गए थे। महर्षि दयानंद से साक्षात भेंट / वार्तालाप वा उनके अज्ञान व अन्धविश्वास विरोधी ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश को पढ़कर यह लोग पुनः आस्तिक बने थे। महर्षि दयानंद स्वयं अपने पिता करषनजी तिवारी का भगवन शिव के स्थान पर शिव प्रतिमा की पूजा अर्थात मूर्ति पूजा करने का विरोध किया था। कालांतर में वह घर छोड़कर सत्य की खोज में निकल पड़े थे. हम भी बचपन में अपने माता पिता को पूजा पाठ करते हुए देखते थे, परन्तु हमें बहुत सी बातें अटपटी लगती थी वा समझ में नहीं आती थीं। बाद में एक हमउम्र मित्र के द्वारा हमें सत्यार्थ प्रकाश का परिचय मिला जिसे पढ़ कर और समझ कर हमारी सारी भ्रांतियां दूर हो गईं. आप जो स्वयं को नास्तिक होना कहते हैं वह वस्तुतः नास्तिक होना नहीं अपितु आपका असत्य वा मिथ्या विश्वासों का विरोध था। योरोप के वैज्ञानिकों ने भी तो बाइबिल की अनेक बातो को स्वीकार नहीं किया और ईश्वर के अस्तित्व को ही मानना छोड़ दिया। यह असत्य वा ज्ञान के प्रति उनका विरोध था। यदि वह सत्य व ज्ञान पर आधारित तर्क व युक्तियों से सिद्ध ईश्वर व आत्मा समन्धी बातों को जानते होते तो कदापि स्वयं को नास्तिक न कहते। एक बार उन्होंने स्वयं को नास्तिक कहा तो फिर ईश्वर की खोज करना ही बंद कर दिया। कुछ वैज्ञानिक ऐसे भी हैं जो ईश्वर को मानते हैं. आपका हार्दिक धन्यवाद।