सामाजिक

जातिगत उपनाम और दलित

भारत में अपने नाम के पीछे जाति आधारित सरनेम लगाना एक प्रचलित परम्परा रही है , किसी भी व्यक्ति के नाम के पीछे सरनेम उसके जातिय गर्व का सूचक होता है । यह जातिय सरनेम लगाने की प्रथा अधिकतर सवर्ण हिन्दुओ में मिलती है जो इस सरनेम के सहारे अपनी जाति का उद्घोष करता है , जैसे , शर्मा, त्रिवेदी, चतुर्वेदी, कश्यप, माहेश्वरी, ठाकुर, राजपूत, गुप्ता , अग्रवाल, आदि । कई लोग अपने गोत्र का सरनेम लगाते हैं, जोकि जाति आधारित होती है । अधिकतर सवर्ण अपने पुरे नाम के स्थान पर ‘ शर्मा जी’, ‘ वर्मा जी’ , गुप्ता जी, ठाकुर साहब आदि सरनेम से ही खुद को संबोधित करवाना ज्यादा पसंद करते हैं क्यों की इससे उनकी जातिय गर्व खुल कर सामने आ जाता है ।

मैं यंहा इस मुद्दे को अभी आप लोगो से दूर रखूँगा की ये जातीय सरनेम लगाने की शुरुआत कैसे हुई क्यों की प्रचीन काल से लेके मध्यकाल तक बहुत कम उदहारण मिलते हैं जब जातिय सरनेम का लोगो ने प्रयोग किया हो , जैसे – इंद्र, वृत्त,शंभर, गार्गी,कृष्ण, कौत्स, चार्वाक, राम, अर्जुन, सुयोधन( दुर्योधन), एकलव्य, हनुमान, तुलसीदास, कबीर, रैदास, मीरा आदि ऐसी चर्चित लोग रहें जो बिना जातिगत सरनेम के ही आज तक प्रसिद्ध हैं ।

अच्छा, यंहा एक बात है की यह तय हैं की जातिगत सरनेम लगाने की जो प्रथा का प्रारम्भ हुआ होगा वह निश्चय ही उच्च जाति से शुरू हुआ होगा , क्यों की उनके पास जातिय अभिमान था । दलित वैसे ही हीन और अछूत समझे जाते थे तो वे जातिसूचक सरनेम लगा के जातीय अभिमान प्रदर्शित कर ही नहीं सकते थे, आज भी दलित लोग अपनी जाति हीनता के बोध से ग्रसित होके अपनी जाति छुपाते हैं ।

तब यह प्रश्न है की आज दलित जाति के लोग सरनेम क्यों लगाते है ?

हुआ यूँ की मुगलो के समय तक कोई भी दलित उनके दरबार में उच्च पद प्राप्त ही नहीं कर पाया था या मुग़ल दलितों को अपने दरबार में किसी उच्च पद पर नहीं रखते थे पर जैसे ही अंग्रेजो का राज आया , दलितों को भी अंग्रेज छोटी मोटी नौकरी पर रखने लग गए या जो थोडा पढ़ा लिखा दलित होता था उसे थोड़ी उच्च पद पर रख लेते थे । उन्ही कार्यालयो में उच्च जाति के लोग भी काम करते थे जो पर्याय आपस में संबोधित करने के लिए , गुप्ता जी, पंडित जी, शर्मा जी, पांडे जी, आदि सरनेम से पुकारते थी । वंही दलित जाति का व्यक्ति बिना सरनेम के काम करता था , लोग उसको उसके नाम से ही पुकारते थे । कभी कभी तो उच्च जाति के लोग दलित जाति वे वयक्ति का नाम बिगड़ के या शोर्ट में नाम लेते जैसे किसी का नाम नन्दलाल हो तो लोग उसे ‘ नंदू’ कह देते, चंद्रप्रकाश हो तो ‘चंदू’ , रामलाल हो तो ‘ रामू’ कह कर पुकार देते थे ।

नाम के साथ सरनेम न होना दलित जाति से सम्बंधित माना जाता था, दलितों में यह भावना जागी की कंही सरनेम न होने के कारण उसकी आने वाली पीढ़ियों को भी न उसी तरह पुकारा जाए जैसे उसे पुकारा जाता है । तो यंहा से शुरू हुई दलितों में भी सरनेम लगाने की भावना।
शुरू में दलितों ने गुस्से वाले, आज़ादी वाले सरनेम लगाये जैसे – बैचैन, आक्रोशित, जख्मी , आज़ाद, अनजाना, निर्भीक, परदेसी, बागी, विद्रोही, अशांत आदि।

फिर दूसरे दौर में जब थोडा समाज के हालात बदले तो सरनेम को सुन्दर और अर्थपूर्ण बनाया गया जैसे – राकेश, शशी, सुमन, प्रियदर्शी, पुष्पांकर, कँवल, भास्कर, आदि।
कुछ दलितों ने गाँव, शहर या राष्ट्र से संबोधित नाम भी रखे जैसे – भारती, माधोपुरी, देहलवी, आदि।

उसके बाद एक दौर ऐसा भी आया जब दलितों में शिक्षा का प्रसार और थोडा बढ़ा ,सवर्णों के थोड़े निकट आये , धार्मिक पुस्तके पढ़ने की आजादी मिली तो उन्होंने रामायण, गीता आदि को खरीद के पढ़ना शुरू किया , माथे पर तिलक लगा के मंदिरो के घंटे भी बजाये पर उच्च जातियो की तरफ से घृणा ही मिली और जाति आधारित नामो से पुकारना नहीं छूटा।
कई दलितों ने सवर्णों की इस जातीय घृणा से बचने के लिए अपने नाम के पीछे शर्मा, चौहान, भार्गव, आदि उच्च जातीय नाम भी लगये पर कुछ काम न आया । क्यों की भारत में सामने वाला आपकी केवल जाति से ही संतुष्ट नहीं होता बल्कि गाँव, शहर , रिस्तेदार सब के बारे में जब तक पूछ न ले तब तक वह चैन से नहीं रहता । फिर कंही न कंही पकडे ही जाते तो और तिरस्कार झेलना पड़ता ।
पर ऐसा भी था की कई दलितों ने सीधी सीधी प्रतिक्रिया की अपनी जातिगत सरनेम लगाये और जैसे – जाटव, चमार, वाल्मीकि, पासी , दुसाध, खटीक आदि ।बाबा साहब अम्बेडकर के बाद बौद्ध धर्म में आस्था रखने वाले दलितों ने बौद्ध धर्म से सम्बंधित उपनाम लगये जैसे – सिद्धार्थ, गौतम, मौर्य, आन्नद, अशोक आदि।
पर इतना सबकुछ प्रयत्न करने के बाद भी जातिगत भेदभाव दलितों के साथ जस का तस है ।

जाति एक ऐसी लाइलाज बीमारी बन गई है जिसने इस देश का बहुत नुकसान किया है और हिन्दू धर्म को मरणांसन्न पर पंहुचा दिया , इसे रोकने के लिए सबसे अच्छा उपाय है की सभी देशवासियो को जातिगत सरनेम लगाना छोड़ना होगा।

संजय कुमार (केशव)

नास्तिक .... क्या यह परिचय काफी नहीं है?

3 thoughts on “जातिगत उपनाम और दलित

  • विजय कुमार सिंघल

    अच्छा लेख. जातिसूचक नामों का प्रयोग बंद होना अच्छा विचार है.

  • जवाहर लाल सिंह

    बहुत अच्छा आलेख आजकल सोसल साइट्स पर भाजपा नेता हुकुमदेव नारायण यादव का बजट सत्र में दिया गे भाषण खूब प्रचलित हुआ है. उन्होंने जातिगत ब्यवस्था पर कड़ा प्रहार किया है … मनमोहन आर्य जी के विचार से कुछ हद तक सहमत!

  • Man Mohan Kumar Arya

    आपका लेख पूरा पढ़ा। मैं आपसे सहमत हूँ कि जाति सूचक शब्दों का प्रयोग बंद होना चाहिए। आर्य समाज भी वैचारिक आधार पर ऐसा ही मानता है व आर्यसमाजी ऐसा ही करते हैं। स्वामी दयानंद ने इस जाति व्यवस्था को हिन्दू समाज के लिए मरण व्यवस्था लिखा है। उनकी पीड़ा को कुछ समझने की कृपा करें। उन्होंने सबको आर्य = श्रेष्ठ शब्द का प्रयोग करने की प्रेरणा की है। उनके अनुसार पूरी तरह से अनपढ़ व्यक्ति शूद्र कहलाता था जिसका काम ब्राह्मणो , छत्रियों व वैश्यों के घरों में रसोई बनाना होता था। इससे यह जाहिर होता है कि सभी वर्णों में प्रेमभाव था वा असमानता नहीं थी। आजकल हम होटल में भोजन करते हैं तो उससे कुछ नहीं पूछते और बाद में उसे टिप भी देते हैं। आर्य नाम के बारे में कहना है कि सीता जी भी रामचन्द्र जी को आर्यपुत्र कहकर सम्बोधित करती थी। गीता में भी श्री कृष्ण जी ने अर्जुन को कर्तव्यच्युत होने पर अनार्य कह कर पुकारा था। आप अनेक विषयों पर इतना सोचते हैं, कई बार प्रसन्नता होती है। निवेदन है कि कृपया अपनी सोच पॉजिटिव रक्खे। हमारे अपने जीवन में यदि बिगाड़ हो जाए तो उसका सुधर करना ही एकमात्र उपाय होता है। यही काम दयानंद जी ने किया वा उनका आर्य समाज करता आ रहा है।

Comments are closed.