कविता

हाई स्कूल के दिन

वो भी क्या दिन थे

जब हाई स्कूल मे हम थे

पढ़ाई का बोझ था अपार, और

इम्तहान के बीचो बीच था होली का त्योहार ।

साँप के मुँह मे ज्यों छछूँदर

न उगलते बने न निगलते बने

वैसा ही हाल कुछ अपना था

न पढ़ते बने न होली खेलते बने।

दिल कोसता था इम्तहान की डेट सेट करने वालों को

और मन कोसता था होली की हुड़दंग मचाने वालों को।

लगता था, वो सब हमारी मजबूरी को चिढ़ा रहे थे

हमें तपाने को कुछ ज्यादा ही हुडदंग मचा रहे थे ।

सोचता था कब ये इम्तहान खतम हो और हम कैद से छूटें

देर तक सोते रहें और दिन भर मनमानी करने के मज़े लूटें ।

रात कहानी कि किताबों से सपने चुराने की साज़िश

और सुबह उठ कर फिर उन्हीं सपनों को दोहराने की कोशिश,

मछली मारने के बहाने से नदी की सैर ,

छत पर पतंग उड़ाते हुए हवा से बैर

जाने क्या क्या मनसूबे थे मन में

आसमाँ छू लेने का जोश बदन में,

इस दिन-रात पढ़ाई की कसर निकालनी थी ,

होली पर मुझे सताने वालों की खबर निकालनी  थी ।

बहुत काम थे इम्तहान के बाद ,

पर हाय, जिस दिन आखिरी पर्चा दे कर आए तो फकत सोना ही रहा याद।

अल सुबह चार बजे आँख खुल गयी

देर तक सोए रहने की इच्छा जाने कहाँ घुल गयी।

मेरे इम्तहान खतम हुए तो बाकियों के शुरू हो गये,

हमारे तमाम मनसूबे हमें मुँह चिढ़ाने को रूबरू हो गये।

मनोज पाण्डेय 'होश'

फैजाबाद में जन्मे । पढ़ाई आदि के लिये कानपुर तक दौड़ लगायी। एक 'ऐं वैं' की डिग्री अर्थ शास्त्र में और एक बचकानी डिग्री विधि में बमुश्किल हासिल की। पहले रक्षा मंत्रालय और फिर पंजाब नैशनल बैंक में अपने उच्चाधिकारियों को दुःखी करने के बाद 'साठा तो पाठा' की कहावत चरितार्थ करते हुए जब जरा चाकरी का सलीका आया तो निकाल बाहर कर दिये गये, अर्थात सेवा से बइज़्ज़त बरी कर दिये गये। अभिव्यक्ति के नित नये प्रयोग करना अपना शौक है जिसके चलते 'अंट-शंट' लेखन में महारत प्राप्त कर सका हूँ।

2 thoughts on “हाई स्कूल के दिन

  • विजय कुमार सिंघल

    बढ़िया !

  • हा हा , आपने तो मेरे मैट्रिक दिन दिन याद करा दिए .

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