आत्मकथा – दो नम्बर का आदमी (कड़ी 25)
मैं 2-3 दिन गाँव में रहा और सबसे मिला। मेरा मन गाँव छोड़ने को नहीं कर रहा था, परन्तु छुट्टियाँ खत्म होने लगी थीं, इसलिए आगरा आना पड़ा। गाँव में ही हमारे एक चचेरे भाई श्री सन्त कुमार अग्रवाल ने बताया कि उनकी एक साली की लड़की शादी लायक है। वे मुझे जानते हैं और मेरी बीमारी के बारे में भी। उस लड़की की माँ किसी घातक रोग से पीड़ित हैं, इसलिए अपने सामने ही लड़की के हाथ पीले कर जाना चाहती हैं। अतः मैं लड़की को देखकर ‘हाँ’ कर दूँ। मैंने बताया कि कल मुझे आगरा जाना है और 2 दिन बाद ही वापस वाराणसी जाना है। इसलिए लड़की दिखानी हो, तो तुरन्त दिखा दें। उन्होंने कहा कि वे लड़की को लेकर कल ही आगरा आ जायेंगे, वहीं देख लेना। मैंने कह दिया कि ठीक है।
आगरा हमारे गाँव से लगभग 45 किमी दूर है। अगले दिन दोपहर को मैं आगरा पहुँचा। तभी थोड़ी देर बाद ही हमारे बड़े मामाजी श्री दयाल चन्द जी गोयल आ गये और बोले कि उन्होंने एक अच्छी लड़की देखी है, जो काफी सुन्दर और पढ़ी-लिखी है, लेकिन गरीब घर की है। उसको देख लो। मैंने कहा कि ठीक है, देख लूँगा। मामाजी ने तुरन्त भाग-दौड़ करके लड़की देखने की व्यवस्था कर दी। उस समय मेरी तबियत थोड़ी ढीली थी, ठंड लग जाने के कारण हल्का सा बुखार था और 2-3 दिन से दाढ़ी भी नहीं बनायी थी। लेकिन मुझे इसका ध्यान नहीं रहा और ऐसे ही कपड़े बदलकर लड़की देखने चल दिया।
ठीक उसी समय श्री सन्त कुमार भाई साहब का लड़का मेरा भतीजा मुकेश चन्द वहाँ आ गया और कहने लगा कि उसकी मौसी की लड़की उसके घर आ गयी है, इसलिए मैं उसे देखने चलूँ। लेकिन मैं तो मामाजी की बतायी लड़की को देखने जा रहा था और वे लोग भी संजय प्लेस में अपनी स्पीड कलर लैब दुकान पर मेरा इन्तजार कर रहे थे। इसलिए मैंने मुकेश से कहा कि इस लड़की को देखने के बाद मैं तुम्हारे साथ चलूँगा। मैं अपने घर वालों के साथ संजय प्लेस गया। वहाँ मैंने वह लड़की देखी, जो अब मेरी जीवनसंगिनी हैं। देखते ही मैंने उन्हें पसन्द कर लिया, क्योंकि वे वास्तव में बहुत सुन्दर हैं। यह मुझे पहले ही बता दिया गया था कि वे एम.ए. पास हैं। मुझे डर था कि कहीं वह लड़की मुझे ही नापसन्द न कर दे। इसलिए आपसी बातचीत में मैंने उनसे सीधे पूछ लिया कि ‘आप मुझे पसन्द हैं, क्या आपको मैं पसन्द हूँ?’ वह लड़की सबके सामने मना कर नहीं सकती थी, इसलिए उसने भी कह दिया कि पसन्द हैं।
दोनों तरफ से ‘हाँ’ होते ही विचार बन गया कि अब वहीं इनकी बाकायदा सगाई कर दी जाये। तुरत-फुरत सारे इंतजाम किये गये। अँगूठी पहनने-पहनाने की रस्म हुई। फोटो खींचे गये, अच्छा जलपान हुआ। जलपान के समय ही मुझे उस लड़की का नाम पता चला- बीनू या वीनू। उस समय तक हमारे और उनके सभी प्रमुख रिश्तेदार, जो सभी आगरा में ही रहते हैं, वहाँ आ गये थे, इससे अच्छा फंक्शन हो गया। मुकेश इस पूरे समय तक मेरे साथ ही था। उसे भी अपनी होने वाली चाची अच्छी लगी, लेकिन वह थोड़ा मायूस भी था, क्योंकि उसकी मौसी की लड़की को तो मैंने देखा भी नहीं। मैंने उससे कहा कि अब उसको देखने का कोई अर्थ नहीं है, इसलिए मेरी ओर से क्षमा माँग लेना।
इसके दो दिन बाद ही मैं वाराणसी चला गया। तब तक सगाई के फोटो छपकर आ गये थे और अपनी होने वाली श्रीमती जी का एक फोटो मैं अपने साथ ले गया था। श्रीमतीजी मुझसे आधा इंच अधिक लम्बी हैं, इसलिए सारे फोटो उन्होंने चप्पल उतारकर खिंचवाये थे।
वाराणसी पहुँचकर मैंने अपने साथियों को सगाई का समाचार सुनाया और फोटो भी दिखाया। उन्हें भी आश्चर्य हुआ कि मुझे इतनी सुन्दर पत्नी मिलने वाली है। सुधीर जी की पत्नी श्रीमती सीमा ने तो उसे ‘वीनू’ के बजाय ‘वीनस’ कहा। वीनस ग्रीस (यूनान) में प्रेम, कला और सौन्दर्य की देवी मानी जाती है, ठीक वैसे ही जैसे हम सरस्वती को विद्या की और लक्ष्मी को धन की देवी मानते हैं।
उन दिनों मैं अपनी होने वाली जीवनसंगिनी के ख्यालों में खोया रहता था। कुछ दिन बाद ही मैंने उन्हें एक पत्र लिखा। मैंने अपनी होने वाली साली राधा (गुड़िया) से उनका पता ले लिया था। मुझे आशा थी कि शीघ्र ही उनका उत्तर आ जायेगा। परन्तु एक माह तक कोई उत्तर न आने पर मैं चिन्तित हो गया। वास्तव में हुआ यह था कि उनके घर वालों और रिश्तेदारों पर मेरा कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा था। मैं देखने में बहुत मामूली लगता था, ऊपर से काफी दुबला-पतला और छोटे कद का भी था। इसलिए उनकी कोई गलती नहीं है। होने वाली श्रीमती जी पर भी मेरा कोई अच्छा प्रभाव नहीं पड़ा था, इसलिए वे चिन्ताग्रस्त रहती थीं। उनके घरवालों ने समझा कि इसे लड़का पसन्द नहीं आया है, इसलिए सुस्त रहती है। तब उन्होंने वीनू जी से कहा था कि यदि तुम्हें लड़का पसन्द नहीं है, तो रिश्ता अभी भी तोड़ा जा सकता है। यदि वे ऐसा करते भी, तो उन्हें दोषी नहीं ठहराया जा सकता था। लेकिन तभी मेरा पत्र वहाँ पहुँच गया। उसे पढ़कर श्रीमती जी को लगा कि यह कुछ समझदार आदमी है। इसलिए उन्होंने कह दिया कि जो भी मेरे भाग्य में होगा, देखा जायेगा, परन्तु शादी इसी से करूँगी। इस तरह हमारा रिश्ता टूटते-टूटते बचा।
कुछ दिन बाद मुझे उनके इकलौते भाई श्री आलोक कुमार गोयल का पत्र मिला कि आपका पत्र बहिन जी को मिल गया है और वे शीघ्र ही जवाब देंगी। इसके कुछ दिन बाद ही मुझे उनका पहला पत्र प्राप्त हो गया। उसे पढ़कर मुझे बहुत प्रसन्नता हुई। उन्हीं दिनों मैंने एक कविता लिखी थी, जिसकी पहली पंक्ति थी- ‘दूर नहीं वह दिन जब होगा, सत्य एक चिर संचित सपना।’ यह कविता मैंने उनको लिख भेजी और उन्हें काफी पसन्द भी आयी। दुर्भाग्य से यह कविता अब मुझसे कहीं खो गयी है, क्योंकि किसी डायरी में नहीं उतारी थी।
सितम्बर में मुझे अपने बैंक की ओर से एक सप्ताह की हिन्दी कार्यशाला में भाग लेने के लिए गुड़गाँव जाने का आदेश मिला। गुड़गाँव दिल्ली के पास है। मैं अपनी पात्रता के अनुसार द्वितीय श्रेणी एसी में यात्रा कर सकता था। तभी हमारे साथी अधिकारी श्री राकेश क्वात्रा ने कहा कि थोड़ा पैसा अपनी जेब से खर्च करके हवाई जहाज से चले जाओ। मैंने कहा- ठीक है। उन्होंने मेरे साथ जाकर वाराणसी से दिल्ली तक इंडियन एयरलाइंस की उड़ान में टिकट बुक करा दी। इस प्रकार मैंने पहली बार हवाई यात्रा की, हालांकि इसमें अधिक मजा नहीं आया। इसका पूरा हाल मैंने अलग से लिख रखा है, जिसे अगली कड़ी के रूप में दे रहा हूँ। वापसी में मैं रेलगाड़ी से ही आया था। हवाई यात्रा करने में मेरा जो अतिरिक्त खर्च हुआ वह विविध खर्चों और बैंक से मिलने वाले विराम भत्ते (हाल्टिंग एलाउंस) से पूरा हो गया। इस तरह वास्तव में मुझे कोई हानि नहीं हुई।
मैंने अपनी हवाई यात्रा का समाचार अपनी होने वाली श्रीमती जी को भी लिख भेजा था। साथ में यह भी लिख दिया था कि दीपावली पर मैं आगरा आ रहा हूँ और उनसे मिलना चाहूँगा। हमारा विवाह दिसम्बर में होना तय हुआ था। हालांकि मैं चाहता था कि मार्च में हो, परन्तु मम्मी ने जल्दी तय कर दिया। श्रीमती जी भी मुझसे मिलना चाहती थीं। अतः टेलीफोन के माध्यम से हमारी मुलाकात तय हो गयी। निश्चय हुआ कि हम ताजमहल देखने चलेंगे। यह मुलाकात तय करने में मेरी छोटी बहिन सुनीता की सबसे अधिक भूमिका रही।
निर्धारित तिथि और समय पर हम राजामंडी चौराहे पर पहुँच गये। मेरे साथ मेरी छोटी बहिन सुनीता के अलावा दोनों भतीजियाँ भी थीं- श्वेता और शिल्पी, जो अपनी होने वाली चाची से मिलने के लिए बहुत व्यग्र थीं। उधर से श्रीमती जी के साथ केवल उनकी छोटी बहिन राधा (गुड़िया) आयी थी। राजामंडी पर एकत्र होकर हम आॅटो तय करके ताजमहल गये। उस दिन मैं ठीक से तैयार होकर गया था, इसलिए देखने में अच्छा लग रहा था। मुझे देखकर श्रीमती जी को भी संतोष हुआ होगा। वे भी पीले रंग की छपी हुई साड़ी में बहुत सुन्दर लग रही थीं।
हम सब ताजमहल पर घूमे, खूब बातें कीं और फोटो भी खींचे। मैं उनके साथ डिनर लेना चाहता था, परन्तु अधिक समय तक बाहर रहना उनके लिए ठीक नहीं होता। इसलिए हमने केवल डोसा खाना तय किया। विचार यह बना कि ताजमहल से हम सीधे बाग मुजफ्फर खाँ चौराहे पर चलेंगे और वहाँ मधु या ब्रजवासी रेस्टोरेंट में डोसा खायेंगे।
जब हम एक आॅटो में ताजमहल से लौट रहे थे, तो रास्ते में मेरे होने वाले साढ़ू श्री सुनील जी अग्रवाल स्कूटर पर आते हुए मिल गये। सगाई से पहले शायद वे एक बार हमारे घर आकर मुझे देख गये थे और सगाई के दिन भी उपस्थित थे। फिर भी मैं उन्हें नहीं पहचान पाया, परन्तु उन्होंने पहचान लिया। उन्होंने मुझसे कहा कि मैं उनके स्कूटर पर पीछे बैठ जाऊँ। लेकिन मैं 5-5 लड़कियों को एक आॅटो पर अरक्षित नहीं छोड़ सकता था, इसलिए मैंने साफ मना कर दिया। उनको कुछ बुरा लगा होगा, परन्तु मैंने चिन्ता नहीं की। इस एक घटना से अनुमान लगाया जा सकता है कि सुरक्षा के मामलों में मैं कितना सावधान रहता हूँ।
बाग मुजफ्फर खाँ चौराहे पर पहुँचकर हमने डोसा वगैरह खाये। फिर हम अपने-अपने घर चले गये। शादी से पहले ताजमहल पर अपनी जीवनसंगिनी से हुई यह मुलाकात मेरी सबसे मधुर यादगारों में से एक है। इसके फोटो अभी भी मेरे पास सुरक्षित रखे हैं। इस मुलाकात को हमने अपने ससुराल वालों से गुप्त रखा था, क्योंकि श्रीमती जी के एक ताऊजी श्री सत्यनारायण जी गोयल को यदि पता चल जाता, तो वे बहुत नाराज होते। वैसे बाद में उन्होंने स्वयं अपनी पोतियों को अपने-अपने मंगेतरों के साथ घूमने की इजाजत दे दी थी।
(जारी…)
बहुत अच्छा लिख लेते हैं आप, सिंघल जी । लेख में जो एक तारतम्य होता है, जो प्रवाह होता है और पाठक को बांधे रहने का हुनर होता है, वह सब अति सुंदर है ।
अब मुझे लगने लगा है कि आपने वाकई अच्छे अच्छों को सुधारा होगा ।
एक बात ये और पता चली कि आप भी बैंकर हैं !
विजय भाई , यह भाग सब से उतम लगा किओंकि यह जिंदगी के वोह पल होते हैं जो कभी भुलाए नहीं जा सकते और इतने स्वीट पल होते हैं कि कभी भुलाए नहीं जा सकते . और आप के लिखने का ढंग इसे और भी रोचक बना देता है . आप के उन सुनैहरी पलों को मैं आज वधाई देता हूँ .
बहुत बहुत धन्यवाद, भाई साहब.
आपकी विवाह सम्बन्धी आरम्भिक घटनाओं व आपके मनोभावों को पढ़कर अच्छा लगा। आपने अपनी लेखनी से अमृत घोलकर प्रत्येक घटना को रोचक एवं प्रभावशाली बना दिया है। धन्यवाद।
हार्दिक आभार, मान्यवर ! आप सबका आशीर्वाद ही मेरा संबल है.