बूट पालिश
ट्रेन के रुकते ही
एक जोड़ी नंगे पैरों ने
डिब्बे में कदम रखा,
दो नन्ही हथेलियों ने
पकड़ा था ब्रश
जूते चमकाने को,
“साहब पालिश करा लो
एकदम चमाचम कर दूँगा
आइने जैसे चमक जाएंगे
जिनमें दिखेगा आपका चेहरा”,
मैले से उस चहरे पर
सजी थी दो आँखें,
उन सूनी आँखों में
मासूमियत नहीं, बेबसी है,
“करा लो न साहब
कुछ खाने को मिल जायेगा
आजकल सब कपडे के जूते
पहनते हैं कुछ कमाई नहीं होती “,
एक चमड़े के जूते पहने
महाशय के आगे गिड़गिड़ा
रहा था वो मासूम,
बड़े एहसान से वो आदमी
अपने पैर उसकी तरफ बढ़ा देता है,
जूतों पर तेज़ी से
फिरने लगे हैं उसके हाथ,
फिर कंधों से रूमाल उतार
जूतों को चमकाता है,
“हो गया साहब”
अपनी खाली हथेली पर
पाँच का सिक्का ले
सलामी ठोक आगे बढ़ जाता है,
कहते हैं कि
जूते खाने से बनती तकदीर
और सूंघने से टूटती बेहोशी,
वो रोज़ जूते खाता था
पर तक़दीर नहीं बनी,
और भूख उसे रोज़ बेहोश करती थी
पर सूंघने को पैरों में
जूता भी नहीं उसके,
ट्रेन से उत्तर के
सामने खड़े ठेले से
कुछ पूड़ियाँ खरीद ली उसने,
उन्हीं गंदे हाथों से
खाने के कौर को
मुँह में डाल रहा है,
जैसे ब्रश से चमका रहा हो
अपनी भूख को भी।।
_________प्रीति दक्ष
मन को द्रवित कर देने वाली प्रभावशाली कविता। हार्दिक धन्यवाद।
shukriya man mohan ji 🙂
बहुत मार्मिक कविता !
shukriya vijay ji 🙂