हास्य व्यंग्य

बुद्धिजीवी का विमर्श

लोगों को (मुख्य रूप से बुद्धिजीवियों को) ये कहते हुए अक्सर सुनता हूँ कि वक्त बहुत खराब हो गया है। विमर्श के लिए कोई जगह शेष नहीं बची है। संक्रमण काल है। गुजरे जमाने को तो नहीं जानता पर जरुर 12 -15 साल से इन महान विचारकों और बुद्धिजीवियों को देख और पढ़ रहा हूँ। वैसे मेरे पिता श्री इनको बुद्धि पशु कहना ज्यादा उचित मानते हैं। इन्होंने विमर्श के नाम पर एक दूसरे की या तो बड़ाई की है (प्रगतिशील भाषा में खुजलाना कहते हैं) या फिर पुरी ताकत लगाई उसे गलत और पद दलित बनाने में और इस दौरान अगर किसी ने गलती से विमर्श के विषय में चर्चा मात्र भी किया है तो एकजुट होकर झट से उसको समेटने में लग गये हैं।

अगर सामने वाला उनकी तथा कथित महान विचारधारा का नहीं है (जो अक्सर वामपन्थ के नाम से जाना जाता था, अब तो खैर वाम पन्थ फैशन मात्र है जो अक्सर पेज थ्री की पार्टियों में ही दिखाई देता है) तो उसका चरित्र हनन करने में थोड़ा भी हिचकते नहीं हैं। क्या विमर्श में विरोधी विचार धारा के लिए स्थान नहीं होता है? अगर नहीं तो विमर्श किस बात का? क्या सिर्फ इस बात का कि तुम्हारे शर्ट के अच्छा मेरा कुरता है? क्योंकि ये आम आदमी, नहीं क्षमा चाहता हूँ अब तो आम आदमी पर आम आदमी पार्टी का कापीराइट है तो सामान्य जन का पहनावा है। सामान्य जन कहने में भी खतरा है दक्षिणपन्थी कहलाने का।

खैर आज विमर्श कुछ इस तरह से होता है कि एक बुद्धिजीवी दूसरे बुद्धिजीवी से कहता है –
“बेवकूफों के शहर में क्यों रहता है
खुद को बेवकूफ क्यों समझता है?
पलट कर देख जमाना सारा चोर है
बस तू ही अकेला मूँहजोर है।”

© राजीव उपाध्याय

राजीव उपाध्याय

नाम: राजीव उपाध्याय जन्म: 29 जून 1985 जन्म स्थान: बाराबाँध, बलिया, उत्तर प्रदेश पिता: श्री प्रभुनाथ उपाध्याय माता: स्व. मैनावती देवी शिक्षा: एम बी ए, पी एच डी (अध्ययनरत) लेखन: साहित्य एवं अर्थशास्त्र संपर्कसूत्र: [email protected]

2 thoughts on “बुद्धिजीवी का विमर्श

  • हा हा , अच्छा लगा.

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