संस्मरण

मेरी कहानी-12

स्कूल हम रोज़ाना जाते थे और स्कूल खुलते ही स्कूल की एक खुली जगह पर एकत्र हो जाते। हर क्लास की अपनी अपनी लाइन होती। हर रोज़ दो हुशिआर लड़कों को सारे स्कूल के आगे खड़े होना होता था और वोह दो से शुरू हो कर बीस तक मुहारनी बोलते, जिस को पहाड़े कहते थे, जैसे एक दूनी दो,  दो दूनी चार, तीन दूनी छे, चार दूनी आठ। दो लड़के पहले बोलते और सारा स्कूल पीछे-पीछे बोलता था। यह मुहारनी बीस तक होती थी और जब खत्म होने को आती तो सारा स्कूल जोर से बोलता- बीसो बीस है चार सौ पूरा।

इस के बाद सवा, डेढ़ और ढाई के पहाड़े शुरू हो जाते। हम से पहले लड़के तो साढ़े तीन का पहाड़ा भी याद करते थे जिस को ऊँटा कहते थे लेकिन हम ने नहीं पड़ा। इन पहाड़ों का इतना फायदा होता था कि आज के कैलकुलेटर फेल थे क्योंकि छोटे मोटे हिसाब को तो यूं ही कर लेते थे। इतने वर्षों बाद भी उस समय के याद किये हुए पहाड़े बहुत हद तक अभी भी याद हैं। जब हमारे बच्चे छोटे थे तो कोई छोटी मोटी कैलकुलेशन होती तो बच्चे हंसकर एक दूसरे को कहते ask dad , और मैं झट से बता देता। अक्सर वोह मुझे से पूछते , डैड ! आप कैसे यह कर लेते हो , तो मैं उन को बताता। इन पहाड़ों के बाद फिर एक और बात ऐड हो गई, वोह थी जन गण मन , हमारा कौमी गीत।

अब आज़ाद भारत में नए कानून बनने लगे जिस का असर तो होना ही था। पता नहीं कब से एक टीचर साधू राम ही होता था और अब नए नए टीचर आने लगे। हिसाब का टीचर , इतिहास और भूगोल का टीचर , पंजाबी का टीचर, इस के अतिरिक्त और भी थे जैसे पीटीआई जो हमें रोज़ाना एक्सर्साइज़ कराता। स्कूल की पुरानी बिल्डिंग भी रिपेअर होने लगी , फूलों की किआरिआं बनने लगी। स्कूल का नक्शा ही बदल गिया। बिदेश में रहते एक शख्स ने गाँव आ कर एक कमरा और बना दिया।

जब हम छठी क्लास में आये तो हमारे लिए हकूमत की ओर से डैस्क भी आ गए। डैस्क ले कर हमारी ख़ुशी का कोई ठिकाना ही नहीं था। ऐसा लगता था हम ने बहुत उन्नति कर ली है। बच्चों के कपडे अब अच्छे होने लगे ( पहले कोई धियान ही नहीं देता था ). हमें स्काउट की वर्दी भी कभी कभी पहननी पड़ती जब कोई मिनिस्टर हमारे स्कूल में आता। यह वर्दी खाकी होती थी और गले में लाल रंग का रुमाल सा बांधना होता था।

सब से अजीब बात यह हुई कि हमारे साथ चार लड़किआं हमारी ही क्लास में दाखिल हुईं। पता चला कि पहले वोह टयूशन से घर ही पड़ती थीं। इन चार लड़किओं में दो तो हमारे टीचर की ही थीं मिन्दो और वीरो । एक डाक्टर सोहन लाल की बेटी बिमला (बिमला इंग्लैण्ड में ही कही रहती है) और एक और थी जिस को सभी नफरत करते थे।

एक बात एक साल पहले और हुई थी कि एक दम हम को हिंदी की किताबे लगा दी गई। किसी को ‘का खा’ भी नहीं आता था और इस से सभी घबरा गए। यह तो अच्छा हुआ कि टीचरों को भी हिंदी सीखनी पडी थी वरना हम को बहुत मुश्किल पेश आती। इस में एक हंसने वाली बात यह है कि हिंदी हम को ऐसे थी जैसे लैटिन। जब हम को पढ़ाते तो हम बहुत हँसते क्योंकि हम ने हिंदी किसी के मुंह से सुनी ही नहीं थी। चौथी श्रेणी के बाद इंग्लिश भी स्टार्ट हो गई थी। फिर एक हिंदी टीचर भी आ गया और जब वोह बोलता तो हम हँसते हँसते लोट पोट हो जाते क्योंकि वोह बोलता ही हिंदी में था। कई दफा ऐसे ऐसे लफ़ज़ वोह बोलता था हम खिल खिला कर हंस पड़ते। उस टीचर को यह समझ नहीं आती थी कि हम हँसते कियों हैं।

एक दफा वोह टीचर बोला ,” आप अपने पिता जी को पत्र लिखें कि हमारे स्कूल में पारितोषिक उत्सव हुआ था “, उस का यह बोलना ही था कि सभी लड़के जोर शोर से हंसने लगे। उस टीचर का नाम तो मुझे अब तक पता नहीं लेकिन उस का नाम सभी ने पारितोषक ही रख लिया। जब कोई बात होती यही कहते थे ” भाई , मैं पारितोषिक से मिल कर आ रहा हूँ “. इस बात से कोई भी भली भाँती समझ सकता है कि नई भाषा सीखने के लिए कितनी मुश्किल पेश आती है। यही कारण है कि जब कोई पंजाबी हिंदी में बात करता है तो उस की हिंदी वोह नहीं होती जो सही है। अब तो सभी हिंदी पड़ने लगे हैं और कुछ तो संस्कृत भी पड़ते हैं लेकिन उन दिनों में जो हम ने देखा है , वोह आज का कोई भी विद्यार्थी समझ नहीं सकता।

एक बात और भी लिखना चाहूंगा जिस ने मुझ पर बहुत असर डाला। यह शायद चौथी कक्षा का समय होगा जब मास्टर केहर सिंह नया नया स्कूल में आया। वोह बहुत पीटता था , इतना पीटता था शरीर पर निशाँ पड़ जाते थे . हर बच्चा उस से डरता था। यों तो मैं पड़ने में अच्छा था लेकिन एक दिन एक सवाल का जवाब गलत होने के कारण उस ने मुझे बहुत पीटा। वोह मुझे बार बार समझा रहा था लेकिन हर दफा मुझ से गलत हो जाता। फिर वोह मुझे प्यार से समझाने लगा मगर मैं रो पड़ा , मुझे कुछ सूझ ही नहीं रहा था।

एक दिन मुझे मेरा दोस्त तरसेम कहने लगा क्यों न हम गुरदुआरे जाया करें , वहां के गियानी जी बहुत अच्छा पढ़ाते हैं। हम दोनों दोसत स्कूल जाने की वजाए गुरदुआरे जाने लगे। गुरदुआरे में गियानी जी के पास बहुत सी लड़किआं आती थीं। जो दस बारह से लेकर तेरा चौदां साल की होंगीं। वोह धार्मिक ग्रन्थ ही पड़ती थी जिस को पांच ग्रंथि और दस ग्रंथि बोलते थे। गुरदुआरे में रोज़ कभी खरबूजे कभी आम कभी कोई चीज़ खाने के लिए आ जाती। हम तो खुश रहने लगे। गियानी जी का पहरावा ऐसा था कि गुरु नानक देव जी ही लगते थे। बहुत बड़ी एक ही घुटनों के नीचे तक कमीज़ होती थी और पैरों में लकड़ी की खडांव होती थी। पगड़ी बिलकुल बाबा नानक जैसी गोल होती। उनकी दाढ़ी भी गुरु नानक देव जी जैसी थी और बीच बीच कुछ वाल सफ़ेद हो गए थे। गुरदुआरे के साथ गियानी जी के रहने का एक कमरा होता था और साथ ही रसोई घर। कभी कभी कोई लड़की गियानी जी के कमरे में चले जाती। क्या करती थी वोह ना हमें मालूम था, ना जानने की इच्छा किसी को थी , हम तो बस खाते पीते मज़े करते और पंजाबी पढकर घर आ जाते।

एक रात को कुछ बज़ुर्ग हमारे घर जमा हुए जिस में मेरे दादा जी भी थे और एक तरफ गियानी जी मुंह लटकाए बैठे थे। एक बज़ुर्ग गियानी जी को टूट टूट कर पड़ रहा था. एक बज़ुर्ग तो बहुत गुस्से में था और कह रहा था , इस की दाढी काट दो, यह सिख कहलाने के काबिल नहीं। मेरे दादा जी ने कहा , गियानी जी ! आज रातो रात अपना सामान ले कर यह गाँव छोड़ जाओ . और क्या क्या बाते हुईं मुझे याद नहीं , सिर्फ इतना पता है कि गियानी जी उस रात के बाद कभी दिखाई नहीं दिए।

कुछ दिन स्कूल से गैर हाज़िर रहने के कारण हमें वापिस स्कूल को जाना मुश्किल लग रहा था क्योंकि मास्टर केहर सिंह का डर हमें सता रहा था। हमारी किस्मत एक बात से अच्छी थी कि गुरदुआरे जाते हमें कुछ ही दिन हुए थे। जब हम स्कूल गए तो मास्टर केहर सिंह ने जब गैर हाज़िर रहने का कारण पुछा तो हम ने “बुखार चढ़ गया था ” कह दिया , किस्मत अच्छी थी मास्टर जी कोई और पेपर देख रहे थे और इस बात पे कोई ख़ास ध्यान नहीं दिया। कुछ दिनों बाद मुझे क्लास का मॉनिटर बना दिया गया जिस से मैं खुश रहने लगा।

क्लास में एक सोम नाथ नाम का लड़का भी था जो पड़ने में बहुत कमज़ोर था। एक दिन मैं ने सभी लड़कों को हिसाब के सवाल लिखवाए। सोम के सभी जवाब गलत थे। मैंने उस की स्लेट पर गोल गोल ज़ीरो बना दिया और ऊंची आवाज़ में बोला ( अंडा अ अ अ अ …. ) सभी लड़के हंस पड़े .इस दिन के बाद सोम नाथ का नाम अंडा ही पड़ गिया। सोम नाथ एक बात में बहुत माहिर था , वोह स्लेट पर तरह तरह के जानवरों की मूरतें बनाता रहता। कई दफा वोह गाए भैंस कुत्ते बिल्ली की तस्वीरें बनाता , हम देख कर हैरान हो जाते। इसी बात से मास्टर केहर सिंह को सोम से चिड़ थी। वोह बोलते ” सोम के बच्चे , तू कभी पास नहीं होगा , तोते चिड़िआं ही बनाता रहेगा “.

एक दिन मास्टर जी कुछ लेट थे और सोम एक तरफ बैठा कोई चित्र बना रहा था। ऊपर से मास्टर जी आ गए और सोम को इतना पीटा कि वोह कभी वापिस स्कूल नहीं आया। गाँव से ही वोह अपनी माँ के साथ कहीं चले गया। १९६२ में मैंने जब इंग्लैण्ड को आना था तो अपने मामा जी की बेटी यानी बहन को मिलने दिल्ली आया। बहन बोली, गुरमेल तुम्हारे गाँव का एक लड़का सोम यहां रहता है। बहन को लेकर मैं सोम के घर पहुंचा। हम ने एक दूसरे को पेहचान लिया। उस की माँ बहुत खुश हुई और हमारे लिए चाय ले कर आई।

फिर सोम मुझे अपने ड्राइंग रूम की ओर ले गिया। ड्राइंग रूम किया था बस एक आर्ट गैलरी ही बना हुआ था। वहां कमरे के चारों तरफ पेंटिंग ही पेंटिंग थी। मैं तो देख कर ही दंग रह गया। फिर वोह मुझे एक एक करके पेंटिंग दिखाने लगा। पहली तस्वीर ऐक्टर प्राण की थी जो पैंसल शेड में थी। प्राण के हाथ में सुलगती हुई सिगरेट और मुंह से धूंए के लच्छे निकल रहे थे। एक और थी जिस में दो बज़ुर्ग किसी पार्क में एक बैंच पर बैठे आपिस में बातें कर रहे परतीत होते थे और इर्द गिर्द दरख्तों से पीले पत्ते घास पर बिखरे पड़े थे। बैंच के पास बज़ुर्गों की अपनी अपनी खूंटीआं थी।

एक तस्वीर पर एक क्लास रूम का सीन था जिस में बच्चे गोल चकर में नीचे बैठे थे। एक लड़का मुर्गा बना हुआ था और उस ने अपनी दोनों टांगों के नीचे से कान पकडे हुए थे। कुर्सी पर बैठा मास्टर मुंह खोलकर जैसे चिला रहा हो। मैंने पुछा , यह केहर सिंह तो नहीं है ? सोम ने हंस कर हाँ कहा और बोला “इस शख्स को मैं हमेशा नफरत करता रहूँगा , इस ने मेरा बचपन खराब कर दिया “. कुछ देर और वहां रह कर वापिस जाने को तैयार हो गया। लेकिन मैं और ही सोचों में गलतान था कि जिस सोम को बचपन में मैंने अंडा नाम दिया था दरअसल वोह अंडा तो मैं हूँ जिस को कुछ नहीं आता। अब इतने वर्षों की बात है बहन भी कब की परलोक सिधार चुक्की है और सुना था सोम भी यह संसार छोड़ चुका है।

(चलता……)

7 thoughts on “मेरी कहानी-12

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत बढ़िया भाई साहब. आज की कड़ी पढ़कर अच्छा लगा. हम भी कक्षा १ और २ में गा-गाकर पहाड़े याद करते थे. लेकिन हमारा तरीका दूसरा था. हमारी कक्षा के दो भाग हो जाते थे. एक भाग एक संख्या बोलता था तो दूसरा भाग दूसरी संख्या बोलता था. जैसे एक भाग ने कहा दो एकम दो, तो दूसरा भाग बोलता था दो दूनी चार ! इस तरह गाते हुए पहाड़े अच्छी तरह याद होते थे. मुझे आज भी २० तक के पहाड़े याद हैं.
    एक बात और, ऐसे पहाड़े हिंदी में ही याद हो सकते हैं. अंग्रेजी में ऐसा होना संभव नहीं है, क्योंकि उसमें २० तक की संख्याओं के ही नाम हैं. उससे आगे की संख्याओं का कोई नाम नहीं है. इसलिए पहाड़े बन ही नहीं सकते.

    • विजय भाई , हम सब को पता तो है कि हम ने किया किया अनुभव किया था लेकिन इस को दुहराने से सब को अपना बचपन याद आ जाता है , इसी लिए मैं छोटी छोटी बात लिख रहा हूँ . सच बोलूं मुझे यकीन ही नहीं था कि मैं अपनी जीवनी लिख पाऊंगा लेकिन अब लिखने में दिलचस्पी बड रही है , देखो कब तक चलेगा.

  • Man Mohan Kumar Arya

    आपकी बाल सुलभ बातें और सभी घटनाएँ मन को अच्छी लगी। आपका बचपन का दोस्त एक चित्रकार आर्टिस्ट बन गया. मास्टर केहर सिंह जी उसका सही मूल्यांकन नहीं कर सके थे। यदि उसे प्रोत्साहित करके पढाई पर ध्यान देने के लिए कहते तो शायद सोम जीवन में अधिक सफल हो सकता था और गुरूजी के प्रति श्रद्धा उसमे पैदा होती। इस महत्वपूर्ण आत्मकथा की किश्त के लिए हार्दिक धन्यवाद।

    • मनमोहन जी , आप ठीक कहा रहे हैं , कि अगर मास्टर जी उस पर कुछ धियान देते तो बहुत बड़ा आर्टिस्ट बन सकता था . वोह समय ही और था , टीचर पीटते बहुत थे .बस एक बात पर उन का जोर होता था सिर्फ हिसाब . उस्ताद और शागिर्द का रिश्ता पियार भरा होना चाहिए लेकिन यहाँ एक डर ही हो वहां यह संभव नहीं हो सकता . मुझे गाने का शौक था और गाता भी बहुत अच्छा था लेकिन कभी भी किसे से प्रोत्साहन नहीं मिला . जैसे आज हर आर्ट के लिए सुभिदा है उस समय होता ही नहीं था . और यह मास्टर कहर सिंह तो क्रूअल होता था , इतना पीटता था कि जैसे पुलिस वाले मुजरिम को पीटते हैं . आप का बहुत बहुत धन्यवाद .

      • Man Mohan Kumar Arya

        आपकी आत्मकथा या लघु कथाएं पढ़कर जो आनंद आता है व ज्ञानवर्धन होता है उतना ही आपके कमेंट्स या प्रतिक्रियाओं को पढ़कर भी चित्त प्रसन्न होता है। आपके विचारों एवं लेखनी में प्राकृतिक सौंदर्य व रस है। आपकी कमेंट्स से शत प्रतिशत सहमत हूँ. मैं स्कूल में अपने अध्यापकों से डरता था तथा उनका सम्मान भी करता था। शायद यही कारण रहा कि मैं बीएससी तक पढ़ गया और अब तक का जीवन गुजर गया। धन्यवाद।

        • मनमोहन जी , आप ने ठीक कहा कि अधिआप्कों से डर लगता था लेकिन मेरे लिए तो इतना ख़ास प्राब्लम नहीं था किओंकि पड़ने में मैं इतना बुरा नहीं था . लेकिन जो कमज़ोर लड़के थे उनकी पिटाई रोज़ होती थी , इस लिए उन्होंने तो डरना ही था . जैसे चोर को डर होता है इसी तरह कमज़ोर विदिआर्थी को डर होता है . सोम तो बिलकुल ही कमज़ोर था लेकिन जो वोह चित्र बनाता था वोह मुझे आज भी हैरानी होती है , यह नैचुरल गिफ्ट था उन को भगवान् से . यहाँ तक मुझे याद है मुझे दो दफा बहुत पीटा गिया , एक तो मैं पहले लिख चुक्का हूँ , दुसरी दफा हम मेला देखने के लिए सकूल छोड़ कर भाग गए थे , इस का ज़िकर मैं आगे करूँगा .

          • Man Mohan Kumar Arya

            आकी बात पूरी तरह ठीक है। मेरे अंदर बचपन में अनेक कुंठाएं थी, अध्यापकों से डरता था और अंदर ही अंदर उनका सामान भी करता था। इससे मुझे बहुत लाभ हुआ। पढाई में मैंने गलतियां एवं उपेक्षाएं बहुत की हैं। माता पिता जी के डर के कारण काम चलाऊ बीएससी पढ़ गया था। निर्धनता मुख्य कारण था। आर्य मित्रो व साथियों जो बहुत विद्वान थे तथा रात दिन के स्वाध्याय से बहुत लाभ मिला।

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