भारतीय संस्कृति में राम का महत्त्व
सृष्टि का बड़ा ही अद्भुत खेल है, जीव जबतक जड था तबतक न तो भूख-प्यास थी और न ही शरीर (आकार) के पोषण एवं सुरक्षा की ही चिंता | ज्योंहीं जड़ से जीव आस्तित्व में आया, चाहे वे वनस्पतियाँ ही क्यों न हों, पोषण एवं सुरक्षा की आवश्यकता महसूस होने लगी |
जलचर, थलचर और नभचर से ग्रहित उदर भरण और सुरक्षा के संस्कारों को आत्मसात करता जीव मनुष्य योनि तक पहुंचते-पहुंचते अति परिष्कृत और परिमार्जित अवस्था को प्राप्त होता है | ( जीव शब्द इसलिए भी प्रयोगानुकुल है क्योंकि जीव ही वह अवस्था है जहाँ से जड और चेतन संयुक्त रूप से जगत-व्यवहार में परिलक्षित होते है ) मनुष्य, रूप और आकार में आस्तित्त्व के सन्दर्भ में मेरे निजी विचार हैं | उस प्रारम्भिक काल के बाद अपने निजी अनुभवों के आधार पर बगैर भाषा के संवाद शुन्यता की स्थिति में पलता प्राकृतिक परिवेश का अनुकरण करता हुआ, आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए आविष्कार करता रहा होगा जिसे ज्ञान और विज्ञान के नाम से परिभाषित किया गया | उन्हीं संकलित ज्ञानपुंज को तत्कालीन भाषा संस्कृत में “वेद” की संज्ञा से विभूषित किया गया | विश्व के प्राचीनतम ग्रन्थ के रूप में सर्वमान्य गौरव प्राप्त है जिसे भारतीय संस्कृति का आधार माना जाता है |
यूँ तो वेद मनुष्य जीवन के चारों पुरुषार्थ अर्थ, धर्म काम मोक्ष को सम्पादित करता हुआ चार भागों में व्याख्या करता है जिसे ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद और सामवेद के रूप में नामित किया गया है | सबमें प्रतिपादित विषय अलग-अलग होने के वावजूद भी लक्ष्य बस एक है – मोक्ष यानी संसार में मनुष्य जीवन के उद्देश्य और इसके रहस्यों को समझते हुए उपरामता यानी मृत्यु को सत्य जानकर जड़ शरीर का त्याग और चैतन्यता में लीन होने की कला में प्रवीणता को प्राप्त कराना | कोई स्वास्थ्य रक्षा के कई आयाम खोलता है तो कोई प्रयोग और अनुसंधान एवं सुरक्षा के निमित्त उपादान की व्याख्या करता है | ऐसे ही परिष्कृत आविष्कार का ताजातरीन उदाहरण सन १८९५ में देखने मे आया | दक्षिण भारत के श्री तलपडे जी ने भारद्वाज ऋषि द्वारा प्रतिपादित विमान शास्त्र के एक खंड के आधार पर तत्कालीन बम्बई के मुख्य न्यायाधीश एवं अन्य कई गणमान्य लोगों की उपस्थिति में पायलट रहित विमान उड़ाकर दिखाया था, जो ज्ञान गुलामी के भेंट चढ़ गया | जीवन को खुशमय, उल्लासमय एवं आनन्दमय बनाने की कला का नाम सामवेद के रूप में प्रतिपाद्य है | सबके वाच्यांश विषय अलग-अलग होने के बाद भी लक्ष्यांश एक हैं- मात्र जड़ शरीर में चैतन्यता का परमबोध कराना और इसी चैतन्यता में निस्वार्थ और निर्बैर भाव में जीवित रहते हुए जगत व्यवहार के बाद शरीर का त्याग | इन विषयों की व्याख्या शीर्षस्थ विषय के प्रतिपादन में निश्चय ही सहायक होगा | उदाहरणार्थ – जब हम जल कहते हैं तो जल चाहे जहाँ का भी हों उसके दो यौगिक हाईड्रोजन और आक्सीजन ही पाया जायगा न कि अन्य और अगर अन्य कुछ भी होगा तो वह तरल तो कहलायेगा पर जल नहीं साथ ही ये यौगिक अलग भी हो जायेंगे तो जल का आस्तित्व ही नहीं रहेगा |
तो ऐसे ज्ञान के समग्र संस्कारों से आप्त ब्रह्माजी के मानस-पुत्र श्री वशिष्ठ जी, अपनी नापसन्दगी के बाद भी कई पीढ़ियों तक सूर्यवंश के राजपुरोहित का भार वहन करने को तैयार हुए और सूर्यवंश में उपरोक्त ज्ञान पीढ़ी-दर-पीढी पुष्ट होते- होते राम के रूप में पूर्णत: प्रदर्शित कर पाए या हुआ | तब ही नामकरण करते समय घोषणा कर दी –
रमै निरंतर आत्मा सब घट आठो याम |
ताहि सों संतन्ह धरेऊ राम वाही को नाम ||
यदि राम की यही परिकल्पना थी तबी तो कहना ही पड़ेगा कि राम का महत्त्व भारतीय सनातन संस्कृति में सृष्टि के आदिकाल से ही रहा और अबतक भी है |
ऐसे ही उस निराकार चैतन्य ब्रह्म को साकार रूप, दसरथ पुत्र, सीतापति, अवधपति राम के रूप में, सांसारिक व्यवहार में रहते हुए भी मनुष्य जीवन की सार्थकता का प्रत्यक्ष प्रदर्शन और अर्थ, धर्म, काम और अंत में मोक्ष की सीख देते हुए प्रयाण करने की स्थिति का उत्तमोत्तम उदाहरण प्रस्तुत किया गया | इस संसार सागर में उतरने के पहले और पार जाने तक का सारा ज्ञान निचोड़कर सिद्धांत और प्रयोग रूप से बता दिया, जता दिया |
रामावतार भी उस समय की तथ्यात्मक बात है जब विश्व में किसी भी सभ्यता का कहीं अता-पता नहीं था, जिसे लोग हाल तक मात्र कोरी कल्पना ही मानते रहे | अब आधुनिक वैज्ञानिक भी इस सत्यता की पुष्टि रामसेतु से करने लगे |
उपरोक्त और भी कई तरह के तथ्यों के आधार पर कहनी अतिश्योक्ति नहीं होगी कि विश्व की सबसे पुरानी भारतीय सनातन संस्कृति ही है | जो सर्वगुण सम्पन्न, स्वयं स्रष्टा, स्वयं द्रष्टा, संहारकर्ता, सर्वग्य, कालातीत, रूपातीत, गुनातीत आदि जितने भी विशेषणों से युक्त जो परोक्ष सत्ता अपरोक्ष रूप से प्रकट हुआ, का नाम ही “राम” है | राम के साकार रूप में निराकार सत्ता का प्राकट्य है | ऐसा मेरे स्वयं का मानना है |
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि जब से भारतीय सनातन संस्कृति आस्तित्व में आई, तब से आज तक और न जाने कबतक चैतन्य ब्रह्म का आत्मरूप से जड़ शरीर में परिलक्षित होने के तथ्य को स्वीकरता आया है | तब ही तो – आत्मवत सर्व भूतेषु की व्यख्या भी करता रहा | और राम को साकार रूप में ब्रह्म मानता रहा है | जीवन के प्रारम्भ से अंत तक, आम बोल-चाल तक में ही नहीं प्रत्येक गणना में राम शब्द का प्रयोग, अपने आप में प्रमाण है | यथा- रामे जी राम, रामे जी दो, रामे जी तीन आदि आदि….|
और अगर पीछे के इतिहास को नकार भी दें फिर भी यह तो मानना और कहना ही पड़ेगा कि वर्तमान से सत्रह लाख वर्ष पूर्व ही रामावतार से भारतीय संस्कृति में राम का महत्त्व रहा है | इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता |
भारतीय संस्कृति राम और कृष्ण आधारित है | एक संत के भाषा में कहें तो – बीस चार अरु तीन में दो से बड़ा न कोय | राम को बारह कलाओं से नवाजा गया वहीं मनुष्य की और उपलब्धियों के साथ सोलह कलाओं से कृष्ण जो द्वापर में आये, को प्रतीक माना गया |
इन तथ्यों को कौन नकार सकता है कि छद्म नामों से नामित सम्प्रदाय (तथाकथित धर्म) के लोग – कि नहीं सोते, नहीं जगते, सपने भी नहीं देखते, और गहरी नींद में नहीं जाते | गहरी नींद की तो ये हालत होती है कि बगल में लेटी पत्नी बच्चों तक का पता तो छोडिये अपने स्वयं के शरीर का भी पता नहीं चलता | सिर्फ बैखरी वाणी से बताने के सिवाय | इन्हीं तीनों अवस्थाओं के ज्ञाता को जागकर विभिन्न मान्यताओं में बँट जाता है आदमी | प्रकारांतर में अंधी श्रद्धा बढती गयी और लोग कुनबों में बँटते गये | अहंकारवश द्वेष, घृणा और कटुता बढती गयी | जहाँ ईश निंदा के नाम पर प्रतिरोधात्मक बाड़े लगाये जाते हों | उन मान्यताओं की स्थिति तो ऐसे है जैसे गड्ढे में सड़ता बदबूदार पानी | ऐसे में ज्ञान का उत्तरोत्तर विकास कैसे सम्भव हो सकता है ? वहाँ तो अधूरे ज्ञान को थोपा ही जा सकता है |
कोई रूह को निराकार के रूप में मान्यता देता है तो कोई गलतियां करते जाओ और माफी मांगने तक को ही आधार बताता है | जो ईश्वर रूपी परम तत्व (राम) को झुठलाने के लिए थोथी दलील के सिवाय और कुछ नहीं |
भारतीय संस्कृति तो भागीरथी गंगा की तरह सभी नदियों को अपने में समाविष्ट करती अथाह सागर में समाहित हो जाती है और अपना आस्तित्त्व भी खो लेती है | ऐसी है भारतीय संस्कृति और उसमें लाखों वर्षों से आधार स्तम्भ राम का स्थान |
इस महान दर्शन के फलस्वरूप तो यही कहा जा सकता है –
क्या मन्दिर क्या मस्जिद औ’ गिरिजाघर
क्या खोजे मानव तू फिर-फिर हर घर-घर |
गर चाहे ढूंढना और जान पाना सही – सही
कर खोज अपने घर आपस में तो न झगड़ ||
सब मिल जायेंगे राम-रहीम वाहे गुरु गाड
प्रयास तो कर पगले एकबार अपने ही धड ||
दुसरे शब्दों में –
सगुण साकार शरीर में है निर्गुण निराकार भी
असीम भी, अजन्मा भी और राम निराधार भी |
अन्य कई संतों के उदाहरण पटे पड़े हैं –
ना मैं मन्दिर ना मैं मस्जिद ना काबे-कैलाश में
मोको कहां ढूंढे रे बंदे मैं तो तेरे पास में |
और – कस्तुरी का मृग ज्यों फिरि –फिरि सूंघे घास आदि, आदि
और अंत में इसी निष्कर्ष के साथ –
सगुण लागे पिता हमारो निर्गुण है महतारी
या को बंदें वा को नींदें दोनों पलड़ा भारी
याको निन्दें वाको वन्दें ताको निगुरा कहिये
इससे न्यारा उससे न्यारा उस न्यारे में रहिये |
आज भी कोई किसी का अभिनन्दन-वन्दन करता है तो भारतीय संस्कृति के अनुरूप राम-राम ही कहता है | वैसे विद्रुपतावश हाय-हेलो भी समाता जा रहा है |
इस तरह हम कह सकते हैं कि भारतीय सनातन संस्कृति में राम सगुण और निर्गुण दोनों का प्रतिरूपात्मक स्वरूप होने के कारण रीढ़ की हड्डी के रूप में महत्व ही नहीं प्रतिष्ठापित भी है |
श्याम “स्नेही” शास्त्री
५०२/से० -१०ए, गुरुग्राम (हरियाणा)
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