आत्मकथा – दो नम्बर का आदमी (कड़ी 28)
मेरे विवाह में रिश्तेदार अच्छी संख्या में आ गये थे, जैसा कि प्रायः होता है। मैंने अपने बैंक के साथियों और एच.ए.एल., लखनऊ के पुराने साथियों को भी स्वयं जाकर आमंत्रित किया था, परन्तु कोई शामिल नहीं हुआ। हाँ, लखनऊ से हमारे नगर संघ चालक श्री यशोदानन्दन माहेश्वरी पधारे थे। दुर्भाग्य से इसके बाद मैं उनके दर्शन नहीं कर सका, क्योंकि कुछ माह बाद ही उनके स्वर्गवास का समाचार मिला। वे दिल्ली चले गये थे, वहीं उनका स्वर्गवास हो गया।
मेरे विवाह में जो एक विशेष अतिथि सम्मिलित हुए थे, वे थे ब्रह्मचारी श्री विश्वनाथ दास शास्त्री। आप 1989 में अप्रैल माह में संघ संस्थापक डा. हेडगेवार की जन्मशताब्दी के अवसर पर हमारे नगर के कार्यक्रम में लखनऊ आये थे। यह कार्यक्रम हमारी शाखा के स्थान पर ही हुआ था। तभी मेरा उनसे परिचय हुआ। हालांकि वे कबीरपंथी हैं और मैं स्वयं वैदिक विचारधारा को मानने वाला आर्यसमाजी हूँ, फिर भी मैं उन्हें गुरुतुल्य सम्मान देता हूँ। अयोध्या में जानकी घाट में उनका आश्रम है। बाद में वे एक बार भारतीय जनता पार्टी की टिकट पर सुल्तानपुर से सांसद भी चुने गये थे।
अपने विवाह के समय मुझे अपनी सास की बहुत चिन्ता थी। मैं घबरा रहा था कि यदि विवाह के पहले, विवाह के दिन ही या उसके तुरन्त बाद मेरी सास को कुछ हो गया, तो मेरे ऊपर सदा के लिए कलंक लग जाएगा। परन्तु ईश्वर की ऐसी कृपा हुई कि हमारे विवाह के बाद ही उनकी हालत सुधरने लगी और एक माह में ही वे पूर्ण स्वस्थ होकर अपने घर आगरा आ गयीं। इसके बाद ईश्वर की ही कृपा से उनकी आर्थिक स्थिति भी धीरे-धीरे सुधरने लगी। श्रीमतीजी ने मुझे बाद में बताया था कि उनके परिवार वाले कहा करते थे कि उनके घर में कैसे दामाद का पैर पड़ा है कि सास मौत के मुँह से निकल आयी और घर की हालत भी सुधर गयी।
जिस दिन मेरा विवाह हुआ था, उस दिन मैंने पूर्ण उपवास रखा था, क्योंकि मैं नयी जिन्दगी शुरू कर रहा था। संयोग से उस दिन मेरी होने वाली श्रीमती जी ने भी अष्टमी का व्रत रखा था। रात्रि को जय माला के बाद उन्होंने मुझे अपने हाथ से कुछ खिलाकर मेरा उपवास तोड़ा था, हालांकि मेरी इच्छा नहीं थी।
फेरों के समय सभी लोग उनके घर के आँगन में एकत्र हुए थे। सनातनी और आर्यसमाजी मिली-जुली पद्धति से हमारा विवाह संस्कार सम्पन्न हुआ था। मैं उस समय श्रीमती जी के बिल्कुल पास बैठा था, परन्तु उनको छूने से बचना पड़ रहा था। वैसे मैं उनको तंग करने का कोई मौका तलाश रहा था। ऐसा मौका मुझे बहुत देर बाद मिला। जब कन्यादान की रस्म हो रही थी, तो उनका हाथ मेरे हाथ पर रखा गया। उसी समय मौका जानकर मैंने नीचे से अपनी बीच की उँगली उनके हाथ पर मारी। श्रीमती जी तो समझ गयीं कि मैं शरारत कर रहा हूँ, पर और कोई व्यक्ति कुछ नहीं समझ पाया।
उसके बाद कुछ और छोटी-छोटी रस्में हुईं। उसके तत्काल बाद हम दुल्हन को विदा कराकर अपने घर अशोक नगर आ गये। वहाँ हम सभी भाई-बहिन और परिवार के कुछ लोग एक डबल-बैड पर रजाइयों में घुसे बैठे थे। उसी समय मेरे बहनोई श्री यतेन्द्र जी ने एक गीत सुनाया- ‘तुम बिल्कुल वैसी ही हो, जैसा मैंने सोचा था।’। यह गीत मेरी भावनाओं का सटीक प्रकटीकरण था। करीब एक घंटे बाद हम सब सो गये।
हमारा विवाह 6 दिसम्बर 1989 को हुआ था। हमारा प्रथम मिलन 9 दिसम्बर को होना तय किया गया था। इस रस्म को हमारे यहाँ ‘बूढ़ा बाबू’ कहा जाता है। दो दिन तक सामान्य रस्में होती रहीं। उस समय मेरी आर्थिक सामर्थ्य ऐसी नहीं थी कि मैं अपनी नवविवाहिता पत्नी को मधुयामिनी (हनीमून) हेतु बाहर घुमाने ले जाता। मेरे पास जो जमापूँजी थी, वह विवाह में खर्च हो चुकी थी। भाइयों से उधार मिल सकता था, परन्तु सास के अस्पताल में पड़े रहते हुए घूमने जाना हमारे लिए उचित न होता। इसलिए अपने बड़े भाई श्री गोविन्द स्वरूप के तत्कालीन निवास स्थान 71, अशोक नगर, आगरा के एक साधारण कमरे में हमारी सुहागरात का प्रबंध किया गया। उसी घर में विवाह सम्पन्न हुआ था।
उस समय मेरे पास इतना भी धन नहीं था कि अपनी नयी-नवेली दुल्हन को प्रथम रात्रि पर कोई भेंट दे सकता। परन्तु भेंट न देना भी अनुचित होता, इसलिए मैंने अपने बहनोई श्री यतेन्द्र जी से दो हजार रुपये उधार लिये और अपनी छोटी भाभी जी के साथ गिफ्ट खरीदने गया। हमारा विचार कोई सोने की चीज खरीदने का था, ताकि खर्च बेकार न जाये। वहाँ हमें झुमकों का एक जोड़ा पसन्द आ गया। उसकी कीमत उस समय केवल रु. 1400 थी। उसे लेकर हम घर आ गये। रात्रि को सुहागरात से पहले भाभी जी ने मुझे कुछ समझाया-बुझाया भी। दूध के गिलास भरकर रख दिये गये थे और पान भी मँगवा लिये थे। फूलों से पलंग की थोड़ी बहुत सजावट भी की गयी थी।
मेरा दिया हुआ झुमकों का जोड़ा श्रीमती जी को बहुत अच्छा लगा, जिससे मुझे सन्तोष हुआ। मैं सुहागरात के लिए एक छोटी सी कविता लिखकर ले गया था। मैंने धीमे-धीमे यह कविता उनको सुनायी, तो उन्हें बहुत पसन्द आयी। यह कविता बीच में मुझसे खो गयी थी, फिर अचानक मिल गयी। उसे यहाँ लिख रहा हूँ। शायद आपको भी पसन्द आये।
आयी बेला आज मिलन की।
मादकतम अधरों का अमृत, पीकर प्यास बुझे तन-मन की।
आयी बेला आज मिलन की।।
अंग-अंग जलता शोला सा, रोम-रोम में होती धड़कन।
भड़काती है काम हृदय में, संगिनि की मदमाती चितवन।।
डूब प्रिया की नयन झील में, शीतल होवे आग बदन की।
आयी बेला आज मिलन की।।
आज प्रियतमा की पूजा में, कर दें निज सर्वस्व समर्पण।
दो शरीर पर एक आत्मा, मिलकर दृढ़ होवे यह बन्धन।।
निकलें सब अरमान सेज पर, देरी सहन न होती क्षण की।
आयी बेला आज मिलन की।।
सुहागरात के अगले दिन हमें मम्मीजी को देखने दिल्ली जाना था। दिल्ली के लिए सुबह साढ़े 6 बजे राजामंडी स्टेशन से गाड़ी में बैठना था। इसलिए हम प्रातः 5 बजे ही उठ गये और तैयार होकर 6 बजे चल दिये। रास्ते में वीनूजी की छोटी बहिन गुड़िया को भी साथ में ले लिया। टिकट लेकर प्लेटफार्म पर पहुँचने के 2 मिनट बाद ही गाड़ी आ गयी। हम ठीक तरह से दिल्ली में निजामुद्दीन स्टेशन पर पहुँच गये और वहाँ से आॅटो में अस्पताल भी। हमें अन्दर अस्पताल में जाने का पास बहुत मुश्किल से मिला। हम मम्मी जी से जाकर मिले। मेरे साले साहब आलोक कुमार (अन्नू) वहीं थे। मैंने मम्मीजी के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा- ‘मम्मी, तुम वीनू की चिन्ता बिल्कुल मत करो। अपनी चिन्ता करो और जल्दी ठीक होकर आओ।’ मेरे इन शब्दों से उन्हें बहुत सन्तोष मिला होगा। उस समय अन्नू के पास दवाओं लायक भी पर्याप्त रुपये नहीं थे। इसलिए हमने अपने पास से 500 रु. उनको दे दिये, जो उन्होंने बड़ी मुश्किल से लिये। हमने कहा था कि ये मम्मी की दवा के लिए हैं।
दिल्ली में श्रीमती जी ने टिकट खरीदने, आॅटोरिक्शा तय करने और पास बनवाने तक के सारे कार्य स्वयं किये थे। इससे मुझे उनकी व्यवहारकुशलता का परिचय पहली बार मिला। इतनी व्यवहारकुशल पत्नी पाकर मैं बहुत प्रसन्न था।
दोपहर को मैंने अस्पताल की कैंटीन में ही कुछ खा लिया। श्रीमती जी ने कुछ नहीं खाया। दोपहर बाद हम चल दिये। ठीक समय पर गाड़ी कुतुब एक्सप्रैस, जिसका नाम अब महाकौशल हो गया है, निजामुद्दीन स्टेशन से पकड़कर हम आराम से आगरा पहुँच गये।
इसके कुछ दिन बाद ही हमें वाराणसी जाना था। गंगा-यमुना एक्सप्रेस (जो अब फरक्का एक्सप्रैस के नाम के चलती है, परन्तु आगरा से होकर नहीं जाती) में हमारा आरक्षण था। हमारे पास सामान बहुत था। वह गाड़ी हालांकि राजामंडी स्टेशन पर 2 मिनट रुकते हुए जाती थी, लेकिन अधिक सामान होने के कारण हमने आगरा कैंट स्टेशन से उसमें बैठना उचित समझा। वह स्टेशन घर से काफी दूर होने के कारण हमें विदा करने केवल श्रीमती जी के भाई आलोक अपने कुछ मित्रों के साथ पहुँचे थे। हमारे माताजी-पिताजी भी हमारे साथ वाराणसी गये थे।
जब गाड़ी राजामंडी में हमारी ससुराल वाले घर के सामने से निकली, तो हम पहले ही अपने डिब्बे के दरवाजे पर आकर खड़े हो गये थे। उनके घर के बाहर ही हमें अपने तमाम ससुराल वाले खड़े हुए दिखायी पड़े। वहीं से हाथ हिलाकर उन्होंने हमें विदाई दी।
(जारी…)
वजय भाई, यह परसंग तो जिंदगी का अहम् हिस्सा है . जब जीवन साथी हम खियाल हो तो जिंदगी आसान हो जाती है. आर्थिक हालात इतने माने नहीं रखते जब हम सफ़र अच्छा हो . कोई ज़माना था हम पे भी मुश्किल घड़ी आई थी तो मिसज़ ने अपने गैहने ला कर मेरे सामने रख दिए थे लेकिन बेचे नहीं थे लेकिन लोन ज़िआदा ले लिया था . इस वक्त उन लोगों ने भी मुंह मोड़ लिया था जिन को मैंने बहुत पैसे दिए थे और वोह भी चैक नहीं बल्कि कैश बगैर लिखत पडत के . इस के बाद हम ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा . आप भी बहुत भाग्यवान हैं जिन को अछे साथी , वोह भी दब्ब्लंगिनी का साथ मिला , हा हा .
सही कहा भाई साहब आपने. मैं स्वयं को बहुत भाग्यशाली मानता हूँ कि मुझे बीनू जी जैसी जीवन संगिनी मिलीं. आभार !
आज की किश्त पूर्व की ही तरह रोचक एवं स्वाभाविक जीवन के व्यवहारों से परिपूर्ण है। आपकी विचारधारा के बारे में जानकार प्रसन्नता हुई। समान विचारों से निकटता होकर एक दुसरे को जानना वा समझना अधिक सरल हो जाता है। आपका सादगी से विवाह करना और सासु माताजी के उपचार के लिए सालेसाहेब को धन देना आपकी विचारधारा एवं आचरण में एकता का दिग्दर्शन करता है। हार्दिक धन्यवाद।
आभार, मान्यवर !