नदियाँ
पिता पर्वत की गोद से, सब नदियाँ निकलती हैं।
चलने लगती मोद में, कल-कल ध्वनि करती हैं।
चीड़ देवदार जंगलों से, धरातल पर गुजरती हैं।
जंगल मे रहने वालों की, प्यास बुझाया करती हैं।
जीवों के उदित नया जीवन बन कर आ जाती हैं।
अपने पिता को भूलकर, सबका कल्याण करती हैं।
साथ निभाकर सफर में, जीवन संगिनी हो जाती हैं।
दूसरों पर निछावर होकर सौभाग्यवती हो जाती हैं।
दूसरों के लिए अपने को मिटाने, खुद चली जाती हैं।
जा करके सागर में, अपने को समर्पित करती हैं।
—————–रमेश कुमार सिंह
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वाह सर
वाह ! बहुत खूब !
आभार आपका श्रीमान जी।