आत्मकथा – दो नम्बर का आदमी (कड़ी 29)
वाराणसी में जो नया फ्लैट मैंने किराये पर लिया था, वह श्रीमतीजी को बहुत पसन्द आया। अगले कुछ दिन घर को जमाने में लगे। उस समय मेरे पास कोई विशेष फर्नीचर आदि नहीं था। केवल दो फोल्डिंग पलंग, एक तख्त और एक साधारण मेज-कुर्सी थी। कुछ दिनों के बाद ही मुझे बैंक से आवश्यक फर्नीचर मिल गया। 2 कमरों का छोटा सा फ्लैट होने के कारण मैंने सीमित फर्नीचर ही लिया था- एक डबल बैड, गद्दे, एक अलमारी, एक ड्रेसिंग टेबल, एक मेज-कुर्सी और एक स्टूल। इससे अधिक फर्नीचर के लिए वहाँ जगह ही नहीं थी। सबसे अधिक आवश्यकता हमें फ्रिज की थी। यह बैंक से मिलता नहीं है। इसलिए मैंने बैंक से उपभोक्ता ऋण लेकर फ्रिज खरीद लिया। इससे श्रीमती जी बहुत खुश हुईं। मनोरंजन के लिए एक काला-सफेद पोर्टेबल टीवी हमारे पास था ही। कुल मिलाकर हमारा समय अच्छा कटने लगा।
लगभग 15-20 दिन बाद श्रीमती जी के भाई आलोक (अन्नू) अपने मित्र सत्येन्द्र (पप्पू) के साथ उन्हें लेने आ गये। उनके साथ पहले हम वाराणसी घूमे, मंदिर देखे, गंगाजी में नहाये और सारनाथ भी गये। फिर वे वीनू जी को लेकर आगरा चले गये। उनकी गाड़ी मुगलसराय से छूटती थी। मैं उन्हें छोड़ने मुगलसराय जाना चाहता था, परन्तु साले साहब ने मना कर दिया। इसलिए मैंने नदेसर से ही उनको आॅटो में बिठाकर विदा कर दिया।
इसके कुछ दिन बाद मैं अपने माताजी-पिताजी के साथ आगरा वापस आया। उस समय मैं पहले डाक्टर भाई साहब के घर पर ही गया था। वे उन दिनों बाग फरजाना में एक किराये के मकान में रहते थे, जहाँ से मेरी बहिन गीता का विवाह भी हुआ था। मैं वहाँ पहुँचा तो हमारी भाभीजी ने एकान्त पाते ही मुझे समाचार दिया कि मैं पिता बनने वाला हूँ। मुझे इस समाचार से प्रसन्नता हुई, हालांकि मैं चाहता था कि पहली संतान एक-दो साल बाद हो। परन्तु श्रीमती जी माँ बनने का गौरव जल्दी पाना चाहती थीं, इसलिए ईश्वर ने हमारी इच्छा पूरी की। उसी दिन शाम को मैं अपनी ससुराल गया, तो श्रीमती जी ने मुझे यही समाचार सुनाया। जब मैंने बताया कि भाभीजी ने मुझे यह बता दिया है, तो वे थोड़ा मायूस हुईं, क्योंकि वे यह समाचार मुझे सबसे पहले स्वयं सुनाना चाहती थीं।
उस समय ससुराल में मेरी बहुत इज्जत हुई। वैसे भी नये दामाद और पुरानी बहू की इज्जत ज्यादा होती है। उस समय तक घर का भोजन पूर्ण मात्रा में नियमित मिलने और वैवाहिक जीवन के प्रारम्भिक आनन्द के कारण मेरा स्वास्थ्य कुछ सुधर गया था। मेरे पिचके हुए गाल भी कुछ भर गये थे, इसलिए मैं काफी अच्छा लगने लगा था। इससे भी बड़ी बात यह थी कि श्रीमती जी की मम्मी भी स्वस्थ होकर घर आ गयी थीं और घर की हालत ठीक हो गयी थी।
एक सप्ताह बाद हम वाराणसी वापस गये। अब केवल हम दोनों ही वाराणसी में थे और वैवाहिक जीवन का आनन्द उठा रहे थे। उस समय मेरा कुल वेतन लगभग 4 हजार रुपये मासिक था, जिसमें से भविष्य निधि और ऋण आदि की किस्तों की कटौती के बाद मुझे लगभग 2800 रुपये मिल जाते थे। फ्लैट का किराया बैंक देता ही था। हम दोनों के लिए यह पर्याप्त से भी अधिक था। इसलिए हम लगभग 500 रुपये प्रतिमाह बचत कर लेते थे और शेष धन से घर-गृहस्थी की चीजें खरीदते हुए आनन्दपूर्वक अपना समय बिता रहे थे।
पुनः वाराणसी आने के लगभग एक सप्ताह बाद हमें समाचार मिला कि उनके मायके में बेबी का विवाह मार्च माह के प्रारम्भ में होना तय हुआ है। पहले मैंने समझा कि किसी लड़की की शादी की बात हो रही है, परन्तु बाद में मुझे पता चला कि उनकी बड़ी ताईजी के सबसे छोटे पुत्र श्री अनूप कुमार गोयल का प्यार का नाम ‘बेबी’ है। उन्हीं की शादी 4 मार्च 1990 को होनी थी। जब तक हम आगरा में थे, तब तक उनके विवाह का कोई संकेत नहीं था, नहीं तो श्रीमती जी को वाराणसी आने की आज्ञा नहीं मिलती और बेबी जी का विवाह करके ही आने दिया जाता। वाराणसी से फिर इतनी जल्दी आगरा जाना हमारे लिए सम्भव नहीं था, इसलिए हम इस विवाह में शामिल नहीं हो सके। इसका हमें काफी खेद हुआ।
यहाँ यह बता दूँ कि श्रीमती जी के चचेरे भाइयों की एक बड़ी संख्या है। इनमें से अधिकांश उस समय विवाहित थे और शेष विवाह योग्य थे। वे सभी एक ही परिसर में पास-पास के कमरों या घरों में रहते थे। इसलिए वहाँ हर साल ही एक-दो विवाह होते थे और 2-3 बच्चे भी पैदा होते थे। एक दिन मैंने मजाक में श्रीमती जी से कहा था- ‘तुम्हारे घर में दो-तीन भाभियाँ हमेशा प्रिगनेंट (गर्भवती) रहती ही हैं।’ यह डायलाॅग उन्होंने आगरा में सुनाया, तो इस पर सब लोग खूब हँसे थे।
मार्च में ही होली थी। हमारा आगरा जाने का विचार नहीं था। इसलिए मेरे बहनोई श्री यतेन्द्र जी, मेरी बहिनों गीता और सुनीता के साथ घूमने वाराणसी आये। हम उनके साथ खूब घूमे। उस समय मेरी भानजी रिम्मी 4-5 महीने की थी। वह बहुत हँसती थी। उससे मेरा मन खूब लगता था। मैंने गीता से कहा कि इसको यहीं छोड़ दे, मेरा मन लग जाएगा। वह बोली- कुछ महीने और रुक जा, तुझे भी खिलौना मिल जाएगा।
मेरे विवाह के बाद मेरे कम्प्यूटर विभाग के सहयोगी अधिकारी मुझसे विवाह की पार्टी देने को कह रहे थे। मैंने उनसे कहा कि परम्पराओं के अनुसार तो आप सब लोगों को मिलकर हमें पार्टी देनी चाहिए और उल्टे हमसे पार्टी माँग रहे हैं। इस पर वे चुप हो गये। वैसे उनमें से श्री राकेश क्वात्रा और श्री प्रफुल्ल चन्द्र पंडा को छोड़कर सभी ने हमें अलग-अलग अपने-अपने घर भोजन पर बुलाया था और हमने भी उन्हें बुलाया था। उनकी पत्नियों के साथ हमारी श्रीमती जी की अच्छी मित्रता हो गयी थी।
अनन्ता कालोनी, नदेसर, वाराणसी के जिस फ्लैट नं. ए-2/32 में हम रहा करते थे, वह तीसरी मंजिल पर था। उस मंजिल पर एक दूसरे से सटे हुए 4 फ्लैट थे। हमारे बगलवाला फ्लैट उस समय खाली था। बाद में उसमें फिलिप्पीन से लौटे हुए एक सिन्धी सज्जन श्री किशोर शिवदासानी आ गये थे। उनसे अगला फ्लैट एक मुसलमान सज्जन का था, जो पर्यटन विभाग में ड्राइवर थे। हमारे ठीक सामने वाले फ्लैट में एक अन्य सिन्धी परिवार रहता था। उस परिवार के मुखिया का नाम है श्री मोहन दास पंजाबी। उनके साथ हमारी सबसे अधिक घनिष्टता थी। वे साड़ी के व्यापारी हैं। पहले वे अपने भाई के साथ साझे में व्यापार करते थे, बाद में अलग होकर अकेले करने लगे। उनके दो पुत्र हैं, कोई पुत्री नहीं है। बड़ा पुत्र मनोज (राजू) वाराणसी में ही व्यापार सँभाल रहा है और छोटा पुत्र प्रकाश (पिकी) चीन चला गया है। मनोज की शादी में हम सब कानपुर से वाराणसी जाकर शामिल हुए थे। बहुत अच्छा विवाह हुआ था। उसकी पत्नी वन्दना काफी सुन्दर है। सिंधियों में विवाह के बाद लड़की का नाम बदल देने की परम्परा है, इसलिए उसका नाम ‘रश्मि’ कर दिया है।
हमसे नीचे के फ्लैटों में भी कई परिवार रहते थे। उनमें से एक श्री अनुरोध कुमार गुप्ता के परिवार से हमारी घनिष्टता थी। उनकी श्रीमतीजी आगरा की ही हैं। वे पहले रेलवे में माल बाबू थे, अब अधिकारी हो गये हैं। वे नीचे के 2 जुड़वाँ फ्लैटों में रहते थे। पीछे वाला फ्लैट प्रायः खाली रहता था, क्योंकि उनका छोटा सा परिवार है- एक लड़का और एक लड़की।
गुप्ताजी के सामने के जुड़वाँ फ्लैट में एक अन्य परिवार रहता था श्री राय साहब का, जो गाजीपुर के रहने वाले हैं। उनके बड़े पुत्र मैरीन इंजीनियर हैं और शिप पर रहते हैं, इसलिए वे साल में 2 माह के लिए आते हैं। उनके छोटे पुत्र श्री सर्वेश उस समय प्रायः बेरोजगार रहते थे, बाद में कोई कार्य करने लगे थे। इस परिवार से हमारी बहुत घनिष्टता तो नहीं थी, परन्तु अच्छा परिचय था।
(जारी…)
बहुत रोचक प्रस्तुति !
हार्दिक धन्यवाद, महोदया!
विजय भाई, एक दम सारा पड़ गिया , आप के लिखने का ढंग बहुत अच्छा है , बहुत मज़ा आता है. जीवन कथा में इस लिए भी मज़ा आता कि यह सच होती है कोई नावल नहीं होता कि इस में काल्पनिक घटनाएं हों . आगे का इंतज़ार है.
आभार, भाईसाहब ! जब कभी मैं ख़ुद इसको पढ़ता हूँ तो मुझे भी आनंद आता है जैसे कोई रोचक उपन्यास हो !
आज की आत्मकथा की क़िस्त को पढ़कर प्रसन्नता व संतोष हुआ। वाराणसी मै भी दो बार गया हूँ. हमारे सेवाकाल के दिनों के मेरे एक बॉस डॉ. एस एन शर्मा वाराणसी के रहने वाले थे। अब देहरादून में ही रहते हैं। एक मित्र श्री अग्रवाल जी थे। वह भी वाराणसी के थे। उन्होंने एक एक्सपर्ट के रूप में कुछ वर्ष कार्य किया था। एक दुर्घटना में उनके पैर क्षतिग्रस्त हो गए थे जिन्हे काटना पड़ा था। देश के प्रमुख नौ स्थानो की यात्रा का कार्यक्रम बनाकर तिरुपति वा जगन्नाथ पूरी से लौटते हुए वाराणसी में रूके थे और परिवार सहित श्री अग्रवाल जी से मिल कर वाराणसी घाट वा विश्वनाथ मंदिर गए थे। एक बार वहां पाणिनि कन्या गुरुकुल महाविद्यालय, वाराणसी के रजत जयंती समारोह में जाने का अवसर भी मिला था। इस गुरुकुल की छात्रा एवं बाद में शिक्षिता रही सुश्री सुर्यादेवी विद्यालंकृता आर्य जगत की वेद व समस्त वैदिक साहित्य की प्रसिद्ध विदुषी महिला हैं। उनकी छोटी बहन शिवगंज राजस्थान में कन्याओं का गुरुकुल चलाती हैं। आज की क़िस्त के लिए हार्दिक धन्यवाद।
आभार, माननीय !