भ्रष्टाचार के दलदल मेें आकंठ डूबी प्राथमिक शिक्षा
वर्ष 2015-16 के नये शैक्षिक सत्र का आगाज हो गया है। प्रदेश का शिक्षा विभाग हर वर्ष लम्बे-चैड़े वायदों व नारों के साथ शैक्षणिक कार्यों का प्रारम्भ करवाता है। स्कूल जाने वाले बच्चों व नये प्रवेश लेने वाले बच्चों के लिये तमाम तरह की योजनाओं की घोषणा की जाती है व सरकार हर वर्ष अरबों रुपये की योजनायें पेश करती है। लेकिन आज भ्रष्टाचार रूपी भयानक दीमक ने शिक्षा व्यवस्था को पूरी तरह से चैपट कर दिया है। आज आजादी के 65 वर्ष से भी अधिक का समय बीत चुका है, लेकिन गांवों में न तो प्राथमिक स्कूलों की अच्छी इमारतें हैं और न ही विद्यालयों में आवश्यकता के अनुरूप मूलभूत सुविधायें। विद्यालयो के पठन-पाठन का स्तर भी लगातार गिरता ही जा रहा है। सरकार चाहती है कि सरकारी स्कूलों के बच्चे कुपोषण व बीमारियों से मुक्त हों तथा उनकी पढ़ाई व जीवन स्तर को सुधारने में कोई अवरोध न उत्पन्न हो, इसलिए मिड-डे -मील जैसी योजना भी चला रही है। लेकिन आज कोई भी योजना ऐसी नहीं बची है जो भ्रष्टाचार के दलदल में आकंठ न डूब गयी होे।
आजादी के बाद प्रदेश में अधिकांशत: कांग्रेस व जातिवाद पर आधारित सपा -बसपा का शासन ही रहा है। इन सभी दलों ने अपने हिसाब से प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था को चलाया है, जिसका परिणाम है कि आज शिक्षक पूरी तरह से बेकार हो चुका है। प्रदेश का शिक्षक केवल आरामतलबी करता है। गांवों में तो शिक्षकों का बुरा हाल है। वैसे भी शिक्षक इस बात का बहाना बनाते रहते हैं कि उन्हें चुनाव डयूटी, जनगणना सहित अन्य सरकारी कामों में लगा दिया जाता है, जिसके कारण पठन-पाठन का काम सम्भव नहीं हो पाता। लेकिन शिक्षक तंत्र इसके इतर भी कई काम करता है। शैक्षिक संगठनों के नेतृत्व में वह अपनी तथाकथित मांगों के समर्थन में जिंदाबाद-मुर्दाबाद के नारे लगाता है। जिसके कारण भी पठन-पाठन काफी प्रभावित होता है।
आज प्रदेश की बेसिक शिक्षा के हालात इतने बिगड़ चुके हैं कि यदि ऊपर से ईश्वर भी उतर आये तो भी ठीक नहीं हो सकेगी। वर्ष 2015-16 में सरकार ने शैक्षिक सत्र को दो माह पहले ही शुरू करने की घोषणा की है तथा कई केद्रों में अंग्रेजी मीडियम से पढ़़ाई करवाने का ऐलान किया है ताकि सरकारी स्कूल भी प्राइवेट स्कूलों की लोकप्रियता का सामना कर सकें। लेकिन एक अप्रैल को जब बच्चे अपने अभिभावकों के साथ स्कूल पहुंचे तो उन्हें एक बार फिर घोर निराशा का ही सामना करना पड़ गया। सभी समस्यायें जस की तस थीं।
बच्चों को स्कूली हालत खस्ताहाल दिखी। जब राजधानी लखनऊ व उसके आसपास के स्कूलों का बुरा हाल हो रहा है, तब पूरे प्रदेश के क्या हालात होंगे आसानी से समझे जा सकते हैं। पहले ही दिन स्कूलों में स्वच्छता अभियान धराशायी नजर आया और अधिकांश स्कूल गंदगी से पटे मिले। मूलभूत सुविधाओं का बुराहाल है। शौचालयों में दरवाजे तक नहीं हैं। और तो और लाख अभियानों के बावजूद अभी भी कई स्कूलों में बच्चियों के लिए अलग शौचालय तक नहीं बन पा रहे हैं। यदि बन भी रहे तो भ्रष्टाचार के दलदल में उनका निर्माण बेहद घटिया तरीके से हो रहा है। लाख निगरानियों के बाद भी स्कूलों के निर्माण कार्यों में दलाली और कमीशनखोरी जारी हैं। स्कूलों में पर्याप्त मात्रा में धन उपलब्ध रहने के बावजूद आज की तारीख में ब्लैकबोेर्ड, चाॅक बच्चों को दी जाने वाली स्लेट व कापी-किताबों की समस्या बनी रहती है। जब से स्कूलों में ही बच्चों को प्राथमिक आवश्यकता की चीजें दी जाने लगी हैं, तब से हर वर्ष कोई न कोई समस्या बनी रहती है। कभी बच्चों की किताबों की कमी रहेगी, तो कभी किसी और चीज की। यह सब कुछ गम्भीर वित्तीय अनियमितताओं व अधिकारियों की लापरवाही व सुस्ती का भी परिणाम होता है।
पहले ही दिन जब स्कूल खुले तो पता चला कि स्कूलों में कमरों से दरवाजे और खिड़कियां, कहीं-कहीं तो पंखे और बल्ब भी नदारद दिखे। अधिकतर स्कूलों में ऐसा ही नजारा देखने को मिला। हालांकि प्रथम पखवारे में स्कूलों में अभिभावकों से संपर्क और रैलियों के माध्यम से जनजागरूकता अभियान भी चलाया गया। आंगनबाड़ी केद्रों पर छह वर्ष तक के बच्चों के पंजीकरण के लिए नाम लिखे गये हैं। अभिभावकों से शिक्षकों द्वारा संपर्क करके तथा जनजागरूकता रैली के माध्यम से लोगों को प्राथमिक स्कूलों में अपने बच्चों को भेजने के लिए प्रेरित किया गया।
राजधानी लखनऊ के पास काकोरी क्षेत्र का अमेठिया सलेमपुर पूर्व माध्यमिक विद्यालय का तो बहुत ही बुरा हाल निकला। यहां की प्रधानाध्यापिका शमा बेगम ने बताया कि विद्यालय में 145 बच्चे पंजीकृत हैं। लेकिन विद्यालय में लगे दो पंखे दो माह पूर्व ही चोरी हो गये थे। रसोई घर के सभी बर्तन व इनवर्टर भी चोरी हो चुका है। यह यहां के लोगों की विकृत मानसिकता है। शिकायत के बावजूद नया सामान नहीं मिला है। यही हाल दुर्गागंज स्थित प्राथमिक विद्यालय, बड़ागांव प्राथमिक विद्यालय का है। इन विद्यालयों में न चहारदीवारी है और न ही गेट। हाईकोर्ट के आदेश के तहत शिक्षकों ने जनगणना, बालगणना के अलावा कोई अन्य कार्य न कराया जाये, लेकिन शिक्षा विभाग ने अध्यापकों से एक एनजीओ के लिए सर्वे करा रहा है। इस कार्य के लिए अधिसंख्य शिक्षक लगे हैं।
इतना ही नहीं प्राथमिक विद्यालय आलमनगर, हैदरगंज, खरियाही, मर्दन खेड़ा, पारा, नरपतखेड़ा, हंसखेड़ा, भपटामऊ, मदेयगंज, पक्काबाग के विद्यालयों की कुछ तस्वीर भी ऐसी ही है। विद्यालयों में काफी गंदगी व अव्यवस्था है। कहीं-कहीं तो विद्यालयों में जानवर चरते हुए दिखाई दिये। सुअर व कुत्ते आदि जानवर स्कूलों में अपनी पढ़ाई करते नजर आये। विद्यालयों की चहारदीवारी टूटी है, शौचालयों का बुरा हाल हो रहा है, इमारतों का प्लास्टर तक झड़ रहा है। मिड-डे-मील योजना का तो पुरसाहाल हो रहा है। जब राजधानी लखनऊ व उसके आसपास स्थित सरकारी स्कूलों का यह हाल हो रहा है तो पूरे प्रदेश में भयंकर तबाही का आलम हो रहा होगा। सारा का सारा सरकारी धन लूटा जा रहा है। भ्रष्टाचार के दलदल में नौनिहालों के सपने बनते ही बिखर रहे हैं।
यही कारण है कि आज इन विद्यालयों के शिक्षकों व बच्चों का समान्य ज्ञान पूरी तरह से शून्य है। अभी यदि किसी भी शिक्षक का अचानक समान्य ज्ञान चेक किया जाये तो वह फेल हो जायेगा और यह तो कई बार हो चुका है। स्वयं मुंख्यमंत्री के समाने शिक्षक फेल हो चुके हैं। ऐसे में शिक्षकों से क्या आशा की जाये कि वह प्रदेश के बच्चों का भविष्य सुधारेंगे। केवल लोहियावाद या समाजवाद का पाठ पढ़ाकर शिक्षा व्यवस्था को नहीं सुधारा जा सकता है। इसके लिए हमें भ्रष्टाचार, लालफीताशाही व आलस्य से भरपूर अफसरशाही व शिक्षकों को स्वयं में सुधार करना होगा। तभी हमारी शिक्षा व्यवस्था स्तरीय हो सकेगी। केवल अंग्रेजी स्कूलों की नकल करने मात्र से ही बेसिक शिक्षा में सुधार नहीं होगा। बेसिक शिक्षकों व अभिभावकों को भी अपने गिरेबां में झांकना चाहिए। नहीं तो प्रदेश के नौनिहालों का भविष्य अंधकारमय ही रहेगा। यही नौनिहाल आगे चलकर नकल करता है व नकल माफियाओं के चक्कर में पड़ता है।
— मृत्युंजय दीक्षित
आप ने सब कुछ अछे तरीके से बिआं किया है , मुझे शर्म आ रही थी जब परीक्षा हाल के बाहिर खिड्किओं पर लटके हुए नोट्स अपने चहेतों को पकड़ा रहे थे . और सब से शर्मनाक बात कि पुलिस वाले भी पैसे ले रहे थे . वोह पुलिस गलत काम रोकने के लिए थी या बुरे काम को बडावा देने के लिए ?. इस के अर्थ तो साफ़ हैं कि जिन के पास पैसे हैं वोह ही अपने बच्चे कॉन्वेंट सकूल में पड़ा सकेंगे वर्ना सरकारी स्कूलों से तो अच्छा है बचों को छोले बेचना शुरू करा दें .