सामाजिक

यज्ञ चिकित्सा विज्ञान द्वारा आश्चर्यजनक लाभ

ओ३म्

यज्ञ चिकित्सा विज्ञान द्वारा आश्चर्यजनक लाभ

लेखकस्व. पं. वीरसेन वेदश्रमी, इन्दौर।

 

सर्वेभ्योहि कामेभ्यो यज्ञः प्रयुज्यते। (कृष्ण यजुर्वेद)

अर्थात् यज्ञ से सब कामनाओं की पूर्ति होती है।

 

समस्त लौकिक एवं पारलौकिक कामनाओं की पूर्ति के लिए यज्ञ का प्रयोग होता है। यजुर्वेद अध्याय 18 में जहां बहुत सी कामनाओं की पूर्ति के लिए यज्ञ की सामथ्र्य का उल्लेख है वहां इस बात का भी उल्लेख है कि –

 

अयक्ष्मं मे अनामयच्च मे जीवातुश्च मे।

दीर्घायुत्वं मे यज्ञेन कल्पन्ताम्।। (अध्याय 18 मंत्र 16)

 

अर्थात् मेरा रोगों से रहित शरीर आदि और रोग विनाशक कर्म, मेरा रोगादि रहित और इसकी सिद्धि करने वाली औषधियां, मेरा जिससे जीते हैं या जो जीवन प्रदान करता है वह व्यवहार और पथ्य भोजन, मेरा अधिक आयु का होना आदि यज्ञ से सामथ्र्यवान् बने। इस प्रकार वेद ने आरोग्यता निमित्त, रोग निवारण के लिये एवं जीवन वृद्धि के लिये यज्ञ करने का उपदेश दिया है।

 

यज्ञ से रोगमुक्ति

 

अथर्ववेद, काण्ड 3, सूक्त 11 के मन्त्र में कहा है-

 

मुंचामित्वा हविषा जीवानाय कमज्ञात यक्ष्मादुत राज्यक्ष्मात्।

 

अर्थात् मुझ रोगी को मैं जीवन के लिये ज्ञात एवं अज्ञात रोगों  से यज्ञ में हवि प्रदान करने के द्वारा रोगयुक्त करता हूं। अर्थात् सभी प्रकार के प्रकट या अप्रकट रोगों की मुक्ति का साधन यज्ञ है। अतः यज्ञ, चिकित्सा का परम श्रेष्ठ साधन है और इसका उपयोग चिकित्सा क्षेत्र में बाहुल्य से होना चाहिये।

रोगी यज्ञ अवश्य करें।

प्रायः समर्थ रोगी अपनी चिकित्सा के लिये देश-विदेश में जाते हैं। ऐसे व्यक्ति यदि यज्ञ का भी प्रयोग करें तो उनको अति शीघ्र लाभ होगा ही और बहुत से व्यय से भी बच सकते हैं तथा उनके द्वारा यज्ञ करने से औरों को भी लाभ हो सकता है।

यज्ञ की वायु: रोग विनाशक

आयुर्वेद के ग्रन्थों में धूनि, धूम्रादि के अनेक प्रयोग रोगों की निवृत्ति के लिये ऋषियों ने लिखे हैं। वर्तमान समय की चिकित्सा प्रणाली में कठिन एवं चिन्तनीय स्थिति में प्राणवायु (आक्सीजन) देने की प्रणाली वायु-चिकित्सा का ही एक अंग है।

रोग चिकित्सा के लिये औषधि सेवन, इन्जेक्शन आदि का बहुत प्रचार है। खाने की ओैषधियों से अधिक एवं शीघ्र प्रभाव इन्जेक्शनों का होता है। परन्तु यज्ञ द्वारा रोगी की वायु के माध्यम से श्वास-प्रश्वास द्वारा स्वाभाविक रूप से औषधितत्व अधिक प्रभावशाली रूप में अतिशीघ्र, आश्चर्यजनक रीति से लाभ करता है और जो रोग वर्षो से घर किये हुए हैं वे भी बहुत अंशों में निवृत्त हो जाते हैं ऐसा हमारा अनुभव है।

यज्ञ द्वारा अनेक रोगियों को लाभ

यज्ञ द्वारा रोगियों को जो आश्चर्यजनक लाभ हमारे द्वारा हुए उनको समय-समय पर हमने समाचार पत्रों द्वारा प्रकाशित भी किया। सन् 1978 ई. के मार्च मास में एक भेषज यज्ञ केवल रोगियों के लिये ही आर्यकन्या आयुर्वेद महाविद्यालय बड़ौदा में किया। श्री पं. आनन्द प्रिय जी के वेद, यज्ञ एवं आयुर्वेद के प्रति श्रद्धा एवं प्रेम के कारण 8 दिवस के लिए परीक्षाणार्थ यह यज्ञ आयोजित हुआ था। लगभग 211 रोगी दूर-दूर से आये थे। जिस रोगी ने जितने अधिक दिन यज्ञ में भाग लिया उसको उतना ही अधिक लाभ भी हुआ था।

अब इस लघु पुस्तिका द्वारा दिनांक 26 नवम्बर, सन् 1979 ई. से दिनांक 7 दिसम्बर, सन् 1979 ई. तक 12 दिवस का जो वृष्टि यज्ञ आर्य उपप्रतिनिधि सभा, भरतपुर की ओर से हुआ था, उसमें प्रमुख रूप से 2 रोगियों को चिकित्सार्थ स्थान दिया गया था। उन पर यज्ञ का जो अद्भुत प्रभाव रोग निवृत्ति के लिये हुआ, उसका विवरण यहां प्रस्तुत है। आशा है इससे प्रेरणा प्राप्त कर जनसाधारण भी यज्ञ को अपनायेंगे और लाभान्वित होंगे तथा–

आयुर्यज्ञेन कल्पताम् (यजु. अध्याय 18 मंत्र 29) के अनुसार यज्ञ द्वारा अपने जीवन को आयु, आरोग्य एवं ऐश्वर्य से समर्थ बनायेगें।

निवेदकः

वीरसेन वेदश्रमी

15 जनवरी, सन् 1980 ई.

यज्ञ द्वारा चिकित्सा में अद्भुत लाभ शीघ्र होता है। अभी 26 नवम्बर से 7 दिसम्बर, सन् 1979 ई. तक भरतपुर में जिला आर्य प्रतिनिधि सभा द्वारा वृष्टि यज्ञ के लिये मुझे आमन्त्रण प्राप्त हुआ था। इस यज्ञ के अवसर पर मैंने कहा कि यज्ञ का लाभ अनेक रोगों के निवारण के लिये भी आश्चर्यजनक होता है, अतः जिनको रोग है, यदि वे व्यक्ति यज्ञ में नियमित रूप से सम्मिलित होकर स्वाहा की उच्चस्वर से ध्वनि करेंगे तो उन्हें लाभ अवश्य होगा।

प्रथम रोगी

तीसरे दिन दिनांक 28 नवम्बर को सभा के मन्त्री श्री पं. हरगोविन्दजी शर्मा ने श्री पं. केदारनाथ शर्मा को उपस्थित किया। 30 वर्ष का, ग्राम जिरौली, पोस्ट सोंख, जिला मथुरा का यह निवासी था। उसे यज्ञ में बैठाया गया।

रोगी की दशा

6 वर्ष पूर्व एक दिन वह साईकिल से घर पहुंचा। पसीने मं तर था। उसे हवा लग गई। वाताघात से चलने, बोलने और हाथ से कार्य करने में असमर्थता हो गई। लड़खड़ाकर बहुत कठिनता से लाठी के सहारे चलता था। वाणी भी अस्पष्ट थी। हाथों से भी कार्य ठीक रीति से करने में असमर्थ था। इसकी चिकित्सा उसने दिल्ली, आगरा, भरतपुर आदि के अस्पतालों में तथा और भी अनेक स्थानों पर कराई परन्तु कुछ भी लाभ नहीं हुआ।

प्रथम उपचारआचमन

उसकी स्थिति देखकर यज्ञशाला के समीप में स्थित हारसिंगार के कुछ पत्ते मैं लाया। 3 पत्तों को पानी के साथ हाथ से ही मर्दन कर आचमन पात्र के जल में उसके रस को मिश्रित कर दिया। यज्ञ के प्रारम्भ एवं अन्त में 3-3 आचमन उस जल से ब्रह्मतीर्थ द्वारा मन्त्र पूर्वक कराये गये। यज्ञ दिन में तीन बार होता था। अतः एक दिन में 18 आचमन यज्ञ में एवं सायं संध्या के अवसर पर 6 आचमन इस प्रकार 24 आचमन मन्त्र पूर्वक इस जल के उसे प्रतिदिन प्रारम्भ कराये गये। मन्त्र एवं यज्ञ भावित जल अमृत हो जाता है। अतः–

ओ३म् अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा।।

इस मन्त्र से आचमन का विधान ऋषियों ने किया है।

द्वितीय उपचार प्रतपन

प्रति सवन के यज्ञ के अन्त में यज्ञशेष घृत थोड़ा सा हाथ में लेकर हारसिंगार के ही 2-3 पत्तों को उसे हथेली में मर्दन करने को दिया जाने लगा। मर्दन के पश्चात्–‘‘तनृपाअग्नेसि…’’ यजुर्मन्त्रादि से यज्ञाग्नि द्वारा हथेलियों का प्रतपन एवं उसका अंगों पर स्पर्श एवं अभिमर्शन कराया जाता था। यज्ञशेष घृत एवं अन्न भी अमृत हो जाता है। अतः इनके द्वारा अद्भुत दिव्य गुणों का समावेश रोगी में हो जाता है। जिससे रोग शीघ्र शमन होने लगता है।

हव्य द्रव्यों से संस्कारित घृत

यज्ञ शेष घृत में आहुतियों के प्रभाव से रोगनाशक सामर्थ्य विशेष हो जाती है। हव्य द्रव्यों के धूम का प्रति घृताहुति से आहुति चम्मच वा स्रुवा पर संस्कार होता है और वह स्रुवा पुनः पुनः घृत पात्र के घृत से सम्पर्क करता है। इस कारण आहुति भावित चम्मच का प्रभाव घृत में उत्तरोत्तर वृद्धि को प्राप्त हो जाता है। और उसकी रोग विनाशक शक्ति बढ़ जाती है। इस संस्कारित घृत का हथेलियों में मर्दन कर उसे यज्ञाग्नि से प्राप्त कर अंगों पर लगाने से रोग शीघ्रातिशीघ्र दूर हो जाते हैं।

तृतीय उपचारप्राणायाम

इस अभिमर्शन एवं स्पर्श क्रिया के पश्चात् पुनः हथेलियों का परस्पर घर्षण करके तथा यज्ञाग्नि से प्रतपन अर्थात् तपा कर उन हाथों को विधि विशेष से मुख पर आच्छादन पूर्वक तीन प्राणायाम प्रति समय के यज्ञान्त में भी कराये गये। इस प्रकार प्रतिदिन कुल नौ प्राणायाम कराने से रोगी में दिव्य नव प्राणों का संचार होता है। आरोग्यता प्राप्ति में प्राणों का ही महत्व है। प्रति प्राणायाम से पूर्व हथेलियों को मर्दित करके उष्णता का संचार कर उन्हें यज्ञाग्नि से प्रतप्त करना आवश्यक है।

चतुर्थ उपचारयज्ञान्त आचमन

पूर्वोक्त क्रिया के पश्चात् आचमन क्रिया विशेष मन्त्रों से कराई जाती थी। इस आचमन का प्रभाव भी विशेष इसलिये होता है कि हाथ में हव्य द्रव्य एवं यज्ञ शेष घृत का घर्षण कर यज्ञाग्नि से प्रतप्त कर स्थिर एवं प्रभावशाली किया गया है, उस हथेली में जो यज्ञ भावित जल यज्ञशाला में उपस्थित है उस पर और भी अधिक रोग निवारक प्रभाव उत्पन्न हो जाता है तथा आरोग्य वृद्धि का हेतु बन जाता है। इस आचमन क्रिया के पश्चात् रोगी को 3 ग्राम नारसिंह चूर्ण यज्ञ शेष घृत के साथ सेवन भी कराया जाता था।

प्रभाव एवं लाभ

तीन दिन में ही उसके ऊपर आश्चर्यजनक प्रभाव लोगों को दृष्टिगोचर होने लगा। वह यज्ञ कुण्ड की परिक्रमा 2-3 दिन लाठी के सहारे लगाता रहा। 3-4 दिन बाद बिना लाठी के परिक्रमा सम्भल-सम्भल कर, चलकर लगाने लगा। 4-5 दिन बाद वह भरतपुर की विशाल मण्डी का चक्कर लाठी के सहारे शीघ्र करने लगा। सातवें एवं आठवें दिन तो वह बिना लाठी के सहारे भी चलने लगा और जीने पर चढ़कर ऊपर की मंजिल में भी जाने लगा। शब्दों के स्पष्ट उच्चारण करने में उसकी शक्ति बढ़ी। हाथ से भी कार्य करने की सामथ्र्य बढ़ी। लाठी के सहारे चलने में तो अब वह सामान्य लोगों से भी तेज चलने में समर्थ हो गया था।

वह यज्ञ के दिनों में 4 बजे प्रातः प्रतिदिन ठण्डे जल से स्नान करता था। अपने वस्त्रों को साबुन लगाकर धोने भी लगा। एक दिन वह अपने ऊनी कोट को साबुन लगाकर धो रहा था। लोग उसको मना करते थे कि प्रातः ठण्डे जल से स्नान न कर, कपड़े आदि धोने का श्रम न कर। परन्तु वह नहीं मानता था। 7 दिसम्बर को लोगों ने उससे पूछा कैसा लाभ है? तो उसने कहा कि–बहुत लाभ है। बहुत स्थानों पर इलाज कराया था परन्तु लाभ कुछ भी नहीं हुआ था। श्री पं. घनश्यामजी साहित्याचार्य पुरोहित आर्यसमाज नामनेर, आगरा जो यज्ञ में ऋत्विज थे उन्होंने कहा–पं. केदार जी अब आप बैठक लगा के दिखाओ। उसने बैठक भी लगाकर दिखाई तथा कहा डंड अभी नहीं लगा सकता हूं।

पूर्व यज्ञ में भी ऐसा ही लाभ

यह यज्ञ तो वृष्टि निमित्त था। रोगोपचार प्रधान कार्य नहीं था। यदि केवल रोगोपचार निमित्त ही यज्ञ होता तो उसको और भी विशेष लाभ होता। इसी प्रकार सन् 1978 ई. में बड़ौदा आर्य कन्या महाविद्यालय के आयुर्वेद महाविद्यालय के अन्तर्गत भेषज यज्ञ मेरे द्वारा आयोजित किया गया था। वहां पर भी एक ऐसा ही रोगी वाताघात से पीडि़त था। 7वें दिन उसने कहा मुझे कुछ लाभ है। परन्तु वहां पूर्वोक्त सब प्रक्रिया नहीं कराई गई थी।

उपरोक्त लाभ को देखकर स्पष्ट ज्ञात होता है कि यज्ञ से आरोग्य लाभ आश्चर्यजनक रूप से सर्वाधिक रूप से अन्य चिकित्सा पद्धतियों की अपेक्षा अधिक होता है। इस केदारनाथ शर्मा रोगी के ऊपर यज्ञ के प्रभाव को देखकर —

पंगु लंघयते गिरिम् — वाक्य चरितार्थ हो रहा था।

द्वितीय रोगी

इसी प्रकार सभा मन्त्री श्री पं. हरगोविंदजी शर्मा ने दिनांक 30 नवम्बर, सन् 1979 ई. को श्री वेदमित्रजी अवस्था 50 वर्ष ग्राम-नगला बरताई, पोस्ट सुनारी, जिला भरतपुर को भी यज्ञ में आरोग्य लाभ के हेतु उपस्थित किया।

रोगी की दशा एवं याज्ञिक उपचार

इन्हें 11 वर्ष पुराना वायुरोग, श्वास का था। वर्तमान में इन्हें थोड़ा-सा चलने से भी घबराहट होती थी, श्वास फूल जाता था। 3 मास से यह अधिक उग्र था। कार्य करने में असमर्थ थे। इनका भी यज्ञ द्वारा उपरोक्त उपचार किया गया। तीनों समय यज्ञ में उन्हें बैठाया गया। नारसिंह चूर्ण और हारश्रिंगार पत्र भावित जल उन्हें नहीं दिया जाता था। यज्ञ का ही सामान्य जल दिया जाता था। 3-4 दिन में ही अपूर्व लाभ हुआ। पूर्ण स्वस्थ अनुभव करने लगे। इनके पैर में भी दर्द था उसमें भी लाभ हुआ।

तृतीय रोगी

इसी प्रकार एक महिला को पेट दर्द की पुरानी शिकायत थी उन्हें उपरोक्त यज्ञ चिकित्सा के साथ नारसिंह चूर्ण (कालेड़ा कं0 का) यज्ञशेष घृत के साथ दिया गया। उन्हें भी प्रथम दिवस में ही लाभ होने लगा। इसी प्रकार अन्य रोगियों को भी केवल यज्ञ से लाभ प्रतीत हुए।

यज्ञ के पश्चात् यज्ञशाला में अन्य रोगियों को बैठने की अनुमति दे दी जाती थी, जिससे वे वहां प्राणायाम एवं यज्ञशेष घृत को लगाकर प्रतपन क्रिया द्वारा लाभ ले सकें।

हृदय रोगियों को यज्ञ से लाभ

इसके पूर्व भी दो बार हृदय के रोगियों पर यज्ञ का अद्भुत प्रभाव देखा गया। देवास में श्री रामचन्द्रजी सोनी को सन् 1973 ई. में हृदय रोग का तीसरा आक्रमण हुआ था। 10 दिन बाद ही उनके मामा के यहां गायत्री महायज्ञ था। डाक्टरों ने पूर्ण विश्राम की सलाह दे रखी थी, परन्तु वे यज्ञ में प्रतिदिन 5 घण्टे बैठते। 32 दिन यज्ञ में पूर्ण भाग लिया। कुछ भी कष्ट नहीं हुआ। यज्ञ में बैठने से उन्हें उत्तरोत्तर शक्ति प्राप्त होती गई और वे अब तक स्वस्थ हैं।

इसी प्रकार सन् 1976 ई. में श्री बी.एन. वालासरिया, प्रेसीडेंट, दिग्जाम मिल्स, जामनगर वालों को हृदय रोग का आक्रमण हुआ था। एतदर्थ उनके यहां यज्ञ 8 दिवस का मैंने किया था। यज्ञ प्रातः सायं 45-45 मिनट का 24-24 गायत्री मंत्र एवं मृत्युंजय मन्त्रों से होता था। समिधा में बिल्व, पीपल, शमी, आम्र की लकड़ी प्रयोग की जाती थी। गौ-घृत, शहद, अर्जुन त्वक्, अपामार्ग, अश्वगन्ध, गूगल, कपूर काचरी, तगर, अगर, जटामासी, तुलसी के बीज, कमल गट्टा आदि का यज्ञ में प्रयोग किया जाता था। उन्हें भी 8 दिन में ही यज्ञ द्वारा चमत्कारिक अद्भुत लाभ हुआ। प्रारम्भ में उन्होंने कहा था कि वे 5 मिनट भी बैठने में असमर्थ हैं। अन्तिम दिवस तक उनमें अपूर्व शक्ति प्राप्त हो गई और सम्पूर्ण मिल (कारखाने) का परिभ्रमण पैदल ही किया, जबकि वे सदा मोटर में ही किया करते थे।

अनेक रोगों पर यज्ञ का अभूतपूर्व लाभ

इसी प्रकार मेधायज्ञ द्वारा बुद्धि-वृद्धि के लिये श्री प्रकाशचन्द्र चैहान, इंजीनियर इन्दौर को, आध्यात्मिक लाभ के लिए श्री हरिश्चन्द्र जी वर्मा वैदिक, मुरारोई (पं. बंगला) को, पुत्रेष्टि यज्ञ द्वारा श्री काशीरामजी ठेकेदार जोधपुर को, गूंगापन दूर होने के लिये तथा वाणी प्राप्ति के लिये कु. ज्योति सूरतवाली को, श्री यज्ञ द्वारा श्री वैद्य मुरारीलालजी भीमसेनी काजलवाले दिल्ली एवं श्री दिलीपसिंह जी आर्य पानीपत को, आरोग्य प्राप्ति, रोग निवृति का लाभ श्री बाबूरामजी सण्डीला (हरदोई) श्री राजन्द्र प्रसाद जी बरहरवा (साहबगंज) श्री हरिश्चन्द्रजी वर्मा वैदिक आदि अनेकों को यज्ञ के अभूतपूर्व लाभ हुए हैं।

यज्ञ द्वारा वृष्टि लाभ तथा आम्रवृक्ष में फल आदि का आना

यज्ञ द्वारा वृष्टि कराने के शुभ परिणाम दिल्ली, पानीपत, जयपुर, खण्डवा, अजमेर, शाहपुरा, बिलासपुर, खरोरा (रायपुर) जालना आदि में प्राप्त हुए। फल न देने वाले आम्रवृक्षों पर पुनः फल भी आये। यज्ञ का प्रभाव पेड़-पौधों एवं वनस्पति आदि पर भी अद्भुत होता है।

यज्ञ चिकित्सा केन्द्रों का आयोजन हो

यज्ञ के प्रभाव से सर्वसाधारण जनों को लाभान्वित करने के लिये यज्ञ चिकित्सा केन्द्र स्थापित करने तथा यज्ञ चिकित्सा शिविर लगाने की योजना क्रियान्वित होनी चाहिये। जिस तरह आजकल लोग नेत्र चिकित्सा शिविर लगाते हैं उसी तरह कृषि के लिये फार्मों व खेतों में यज्ञों का आयोजन होना चाहिये। इस प्रकार यज्ञों की उपयोगिता का प्रचार होगा और यज्ञ कार्य में सामान्य जनों की रूचि बढ़ेगी।

इति।

(प्रस्तुतकर्ताः मनमोहन कुमार आर्य)

4 thoughts on “यज्ञ चिकित्सा विज्ञान द्वारा आश्चर्यजनक लाभ

  • विजय कुमार सिंघल

    अच्छा विवरण है। लेकिन जब तक इसका प्रत्यक्ष परीक्षण न कर लिया जाये तब तक विश्वास होना कठिन है।

    • Man Mohan Kumar Arya

      आपकी बातों से मेरा विरोध किंचित नहीं है। परन्तु यह कहना है कि यज्ञ करने की आज्ञा वेदों में स्वयं ईश्वर ने दी है। ऋषियों ने कहा है कि यज्ञ श्रेष्ठतम कर्म है। यदि ईश्वर के बनाये वा दिए हुए वेद मन्त्रों में जो प्रार्थनाएं है वह सत्य हैं तो मेरा निजी विचार और विश्वास है कि वह अवश्य पूरी होती हैं। इसके लिए दर्शनों का अध्ययन भी आवश्यक है। यज्ञ करने वाले एक महर्षि दयानंद ने अपने समय के सभी देशी व विदेशी विद्वानो को विचारों व तर्क में परास्त किया था और वेदों की मान्यताओं की विजय हुई थी। महर्षि अरविन्द जी भी महर्षि के वेद मन्त्रार्थों के समर्थक थे। यज्ञ से मिलने वाले लाभ आध्यात्मिक विषय में आते है जिनका वैज्ञानिको से प्रमाणपत्र की शायद आवश्यकता नहीं है। आज मैंने यज्ञ पर एक लेख भेजा है। कृपया उसे अपलोड करने एवं उसे पढ़कर अपनी स्वतंत्र प्रतिक्रिया देने की कृपा करें। हार्दिक धन्यवाद।

  • मनमोहन जी , अच्छा लेख है , इस में पुरातन समय के बारे में बताया , जब यग्य होते थे , तब हवा यलवायु भी शुद्ध हुआ करते थे . आज तो इंसान भी कैमिकल्ज़ से भरा हुआ है , ना पानी शुद्ध ना हवा ना खुराक बल्कि जीवन शैली वोह रही ही नहीं , मानसक तौर पर भी दौड़ लगी हुई है , किसी को चैन नहीं , बच्चों की शिक्षा उन कि शादी नौकरी का फिकर घर के बिल आदक . उस समय यह यग्य जरुर कारगार होंगे.

    • Man Mohan Kumar Arya

      नमस्ते एवं धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। यज्ञ करने की आज्ञा वेदों में स्वयं ईश्वर ने सृष्टि के आरम्भ में दी थी। मध्यकाल में यज्ञों में हिंसा होने के कारण बौद्ध एवं जैन मतों का प्रादुर्भाव हुवा। यज्ञ बंद हो गए व उनमे अपेक्षित सुधार न हो सका। महर्षि दयानंद ने अपूर्व पुरुषार्थ कर वेदो के सत्य अर्थों का प्रकाश किया और संध्या व यज्ञों सहित पंचमहायज्ञ विधि पुस्तक का वैदिक प्रमाणों से निर्माण किया वा देश घर में यज्ञों का शुभारम्भ किया। देश भर में सभी आर्यसमाजों में सम्प्रति नित्य यज्ञ होता है। आर्यसमाजी भी अपने घरों पर यज्ञ करते हैं। बहुत से प्रतिदिन प्रातः व सायं दोनों समय में करते हैं। यज्ञ करने से हमारा यह जीवन व परजन्म सुधरता है। लन्दन में भी आर्यसमाज है और मेरा अनुमान वा विश्वास है कि वहां भी अनेक स्थानो पर कम से कम प्रति रविवार तो यज्ञ होता ही है। मेरी मेलिंग लिस्ट में भी कुछ लन्दनवासी लोग है। मैं भी यज्ञ कर वा करा लेता हूँ। मैं कई बार गंभीर दुर्घटनाओं में बचा हूँ। मेरे गैर आर्यसमाजी मित्रो का अनुमान था कि मैं हवन करने व कराने से बचा था। मेरा भेजा हुआ एक लेख yuvasughoh.com पर आज या कल अपलोड होगा। कृपया उसे भी पढ़े और प्रतिक्रिया दे। आपके विचार मेरे लिए आशीर्वाद के समान उपयोगी हैं। स्नेहकांशी आपका मनमोहन आर्य।

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