उपन्यास अंश

यशोदानंदन-३४

वर्षा ऋतु और सम्यक वृष्टि के नियामक देवराज इन्द्र को प्रसन्न करने हेतु व्रज में विशाल यज्ञ करने की प्रथा थी। महाराज नन्द ने उस वर्ष इस यज्ञ को संपन्न करने का संकल्प लिया। स्थान-स्थान से वैदिक कर्मकाण्डों में प्रवीण ब्राह्मण निमंत्रित किए गए। पूजन सामग्री और दान सामग्री एकत्रित की गई। यज्ञ हेतु शुभ दिन निश्चित करने हेतु महाराज गोप-प्रमुखों और ब्राह्मणों से मंत्रणा कर रहे थे। श्रीकृष्ण ने कौतुहलवश गुरुजनों के बीच बैठे नन्द जी से पूछा –

“हे पिताजी! किस विशाल यज्ञ के लिए इतने सारे प्रबंध हो रहे हैं? इस यज्ञ का हेतु क्या है?”

महाराज नन्द ने श्रीकृष्ण की जिज्ञासा शान्त करने का प्रयास किया –

“पुत्र! यह उत्सव न्यूनाधिक परंपरागत है। पृथ्वी पर वर्षा देवराज इन्द्र की कृपा से होती है और मेघ उनके प्रतिनिधि हैं। हमारा पूरा जीवन और हमारी कृषि-व्यवस्था पूर्णतः वर्षा पर ही निर्भर है। वर्षा के बिना न हम जोत-बो सकते हैं और न अन्न उत्पन्न कर सकते हैं। यदि वर्षा न हो, तो हम जीवित भी नहीं रह सकते। यह वर्षा धर्म, अर्थ और मोक्ष के लिए भी आवश्यक है। अतः वर्षा के अधिष्ठाता देवराज इन्द्र को प्रसन्न करने के उद्देश्य से हम इस यज्ञ का अनुष्ठान कर रहे हैं।”

श्रीकृष्ण ने अत्यन्त विनम्रता के साथ पुनः अपने पिता को संबोधित किया –

“हे पिताजी! मैं आपके कथन से पूर्ण सहमत हूँ कि वर्षा के बिना हमारा जीवन असंभव है, परन्तु मैं यह समझने में सर्वथा असमर्थ हूँ कि इसके लिए देवराज इन्द्र को प्रसन्न करना आवश्यक है। बादल की उत्पत्ति समुद्र, नदियों और सरोवरों से बने जलवाष्प के कारण होती है। ये जलवाष्प सूर्यदेव की प्रखर किरणों के प्रभाव से बनते हैं और आकाश में बादल के रूप में विचरण करते हैं। इन्हें बरसने के लिए हमारे पर्वत और उनपर स्थित ये घने वन आमंत्रित करते हैं। इसमें इन्द्र का क्या योगदान है? हम उनकी पूजा करें या न करें, यदि इन वृक्षों, वनों और पर्वतों को सुरक्षित रख सकें, तो भी वर्षा होगी। प्रत्येक जीव को अपने कर्म का फल प्राप्त होता है। हर व्यक्ति अपने कर्म की स्वाभाविक प्रवृत्ति के अनुसार अपने कर्म में कार्यरत हो जाता है। सारे जीव अपने-अपने कर्म के अनुसार उच्च या निम्न शरीर प्राप्त करते हैं और शत्रु या मित्र बनाते हैं। मनुष्य को अपनी सहज प्रवृत्ति के अनुसार ही कर्म करना चाहिए और विभिन्न देवताओं की पूजा में ध्यान नहीं मोड़ना चाहिए। अच्छा यही है कि हम अपना कर्त्तव्य सुचारु रीति से करें। हमारा संबन्ध गोवर्धन पर्वत और वृन्दावन के अरण्य से है। हमारे अस्तित्व और हमारी प्रगति के लिए यही उत्तरदायी हैं। यदि यज्ञ करना ही है, पूजा करनी ही है तो क्यों नहीं हम गोवर्धन पर्वत की ही पूजा करें? हमारे सम्मुख हमारे देवता गोवर्धन प्रत्यक्ष खड़े हैं। हमें अदृश्य और दूरस्थ इन्द्र से क्या प्रयोजन?”

श्रीकृष्ण के विद्वतापूर्ण कथन के पश्चात्‌ गुरुजन एवं ब्राह्मण अवाक्‌ से हो गए। किसी को कोई उत्तर नहीं सूझ रहा था। अन्त में नन्द बाबा ने ही श्रीकृष्ण को मनाने का प्रयास करते हुए कहा –

“मेरे प्रिय पुत्र! तुम यह क्या कह रहे हो? यह यज्ञ न करने से देवराज इन्द्र अप्रसन्न हो सकते हैं। उनके कोप के कारण संपूर्ण व्रज अनावृष्टि या अतिवृष्टि का शिकार हो सकता है। इस समय मुझे यह इन्द्र-यज्ञ करने दो। तुम्हारी इच्छानुसार गोवर्धन पर्वत के लिए मैं एक पृथक यज्ञ का आयोजन किए देता हूँ।”

श्रीकृष्ण ने दृढ़ शब्दों में पिता को पुनः समझाया –

“पिताजी! गोवर्धन पर्वत के लिए जिस यज्ञ को अलग से आयोजित करने का आप जो प्रस्ताव रख रहे हैं, उसमें दीर्घ समय लगेगा। आप विलंब न करें। इन्द्र-यज्ञ के लिए जितनी तैयारियां की गई हैं, उनसे ही उसी शुभ घड़ी में गोवर्धन-यज्ञ संपन्न किया जाय, ऐसा मेरा स्पष्ट अभिमत है।”

लंबे विचार-विमर्श के बाद अन्ततोगत्वा नन्द महाराज और गुरुजनों को पसीजना ही पड़ा। सबने गोवर्धन-पूजा के लिए सहमति प्रदान की। यह पूजा वृन्दावन में पहली बार आयोजित की जा रही थी। अतः पूजा-विधि भी श्रीकृष्ण को ही निर्धारित करनी पड़ी। यज्ञ के लिए एकत्र किए गए अन्न तथा घी से विविध पकवान तथा दूध से निर्मित भांति-भांति की मिठाइयां बनाई गईं। विद्वान ब्राह्मणों द्वारा मंत्रोच्चार किया गया तथा अग्नि को आहुति दी गई। ब्राह्मणों को यथाशक्ति दक्षिणा दी गई। सारी गौवों को विशेष रूप से सजाया गया और चारा दिया गया। अन्य पशुओं, यहां तक कि कुत्ते-बिल्लियों को भी भर पेट भोजन कराया गया। वृन्दावन के सभी लोगों को एक पंक्ति में बैठाकर भोजन कराया गया। देवराज इन्द्र के स्थान पर गोवर्धन पर्वत की  पूजा इन्द्र की सत्ता को खुली चुनौती थी। इन्द्र श्रीकृष्ण की लीला को समझने में सर्वथा असमर्थ थे। जब सृष्टिकर्ता ब्रह्मा भी धोखा खा गए, तो इन्द्र का धोखा खाना सर्वथा स्वाभाविक था। अपने वैभव और अपनी शक्ति के कारण ऐसा नहीं कि सिर्फ असुरों को ही अहंकार हो जाता था, देवता भी इससे अछूते नहीं थे। उन्हें क्या पता था कि अहंकार ही भगवान का भोजन होता है। बालक श्रीकृष्ण द्वारा अपनी अवहेलना से क्रुद्ध देवराज इन्द्र ने श्रीकृष्ण सहित समस्त वृन्दावन निवासियों को दंड देने का निर्णय ले लिया। उन्होंने दृश्य जगत के संहार के लिए उत्तरदायी सांवर्तक नामक बादल का आह्वान किया –

“हे सांवर्तक! वृन्दावन के ग्वालों ने एक ढीठ और वाचाल बालक कृष्ण के निर्देश पर मेरी देवसत्ता की उपेक्षा की है। ये वृन्दावनवासी अपने भौतिक ऐश्वर्य तथा अपने नन्हें शुभ चिन्तक पर विश्वास करने के कारण गर्व से भर उठे हैं। संपूर्ण वृन्दावन का नाश होना ही चाहिए। यही उनके कृत्यों का उचित द्ण्ड होगा। तुम शीघ्र वृन्दावन के आकाश में जाकर इतनी वृष्टि करो कि वहां प्रलय आ जाय। तुम आगे-आगे चलो, मैं भी ऐरावत पर सवार होकर प्रलयकारी अंधड़ को साथ लेकर आऊंगा। मैं वृन्दावनवासियों को दंडित करने में अपनी सारी शक्ति लगा दूंगा।”

 

बिपिन किशोर सिन्हा

B. Tech. in Mechanical Engg. from IIT, B.H.U., Varanasi. Presently Chief Engineer (Admn) in Purvanchal Vidyut Vitaran Nigam Ltd, Varanasi under U.P. Power Corpn Ltd, Lucknow, a UP Govt Undertaking and author of following books : 1. Kaho Kauntey (A novel based on Mahabharat) 2. Shesh Kathit Ramkatha (A novel based on Ramayana) 3. Smriti (Social novel) 4. Kya khoya kya paya (social novel) 5. Faisala ( collection of stories) 6. Abhivyakti (collection of poems) 7. Amarai (collection of poems) 8. Sandarbh ( collection of poems), Write articles on current affairs in Nav Bharat Times, Pravakta, Inside story, Shashi Features, Panchajany and several Hindi Portals.

One thought on “यशोदानंदन-३४

  • विजय कुमार सिंघल

    पैराणिक कहानी होने के बावजूद रोचक है!

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