उपन्यास : देवल देवी (कड़ी 56)
51. विजय घोष
वह शुभ घड़ी आई चार अप्रैल तेरह सौ बीस को। खुशरव शाह और देवलदेवी ने शाही हरम के एकांत में एक-दूसरे को अंकपाश में लेकर प्रेम किया और फिर खुशरव सुल्तान के पास गए।
सुल्तान को सजदा करके खुशरव शाह बोले, ”सुल्ताने आला, मेरे पूर्व धर्म के कुछ लोग इस्लाम का सम्मान हासिल करना चाहते हैं, पर संकोची स्वभाव होने के कारण खुले में ऐसा करने से लजाते हैं। मैं उन्हें आज रात्रि महल में बुलाकर इस्लाम का सम्मान दिलाना चाहता हूँ। मेरी सुल्तान से गुजारिश है इस्लाम की महत्ता के लिए उन्हें महल में इस्लाम ग्रहण करने की इजाजत दें।“
अभी खुशरव सुल्तान से बात कर रहे थे तभी वहाँ देवलदेवी आ गई। देवलदेवी के समर्थन से कालवश सुल्तान मुबारक ने खुशरव शाह को इजाजत दे दी।
उसी रात इस्लाम ग्रहण करने के नाम पर खुशरव और देवलदेवी के द्वारा संगठित किए गए घुड़सवार शाही हरम में घुसे और वहाँ उपस्थित रक्षा सैनिकों को काटने लगे। शाही हरम में भगदड़ मच गई और इस भगदड़ से बहुत शोरगुल हुआ।
सुल्तान मुबारक शाह खिलजी, खिलजी घराने का अंतिम चिराग, देवल देवी के साथ शय्या पर निद्रामग्न था। इस शोरगुल से वह उठकर बैठ गया। देवलदेवी जो पहले से जागकर शोरगुल सुनकर शय्या पर चुपचाप लेटी थी, उन्होंने सुल्तान को अंकपाश में लेते हुए कहा, ”क्या हुआ सुल्ताने आला, क्या आपने कोई ख्वाब देख लिया?“
शोरगुल सुनकर भयभीत मुबारक बोला, ”बेगम, क्या आप ये शोरगुल की आवाजें नहीं सुन पा रही हैं।“
”देवलदेवी, मुबारक शाह को वापस शय्या पर लिटाते हुए बोली, ”हाँ सुल्तान, हम अभी पता करवाते हैं।“ उन्होंने द्वार पर खड़ी दासी से कहा, ”जाओ, वजीर को भेजो, कहो सुल्ताना ने याद किया है।“ कुछ देर बाद खुशरव शाह ने आकर कहा, ”सुल्ताना, आपने नाचीज को इतनी रात गए याद फरमाया।“
देवलदेवी ने आँख के इशारे से सब प्रबंध होने के बारे में पूछा, खुशरव ने इशारे से हाँ में संकेत किया। तत्पश्चात् देवलदेवी बोली, ”खुशरव, यह महल में इतना शोरगुल क्यों मचा है।“
अब तक सुल्तान मुबारक फिर से शय्या से उठकर खड़ा हो गया था। पहले मुबारक शाह और फिर देवलदेवी की तरफ देखकर खुशरव शाह बोले, ”जी सुल्ताना, कुछ घोड़े छूट गए हैं, इसी वजह से शोरगुल हो रहा है, मैंने सैनिकों को उन्हें बाँधने का हुक्म दे दिया है।“
मुबारक का भय अब कुछ कम हो गया है। वह कक्ष में टहलने लगता है, पीठ पर हाथ बाँधे हुए है। तभी वहाँ कुछ सैनिक आते हैं, रक्त से सनी हुई तलवारें और उनके होंठो से निकलता, ‘हर-हर महादेव।’ सैनिकों का यह रूप देखकर मुबाकरशाह के गले से डर के मारे चीख निकली और वह हड़बड़ाकर भागा, राजकुमारी देवलदेवी ने हल्का-सा अपना पैर उठाया उसमें फँसकर मुबारकशाह, खुशरव की बाँहों में गिरा। खुशरव उसके बाल पकड़कर खींचता हुआ कमरे के मध्य में लाया।
मृत्यु के भय से सुल्तान मुबारक लगातार चीख रहा था। देवलदेवी, खुशरव के समीप आकर बोली, ”देव, अब विलंब न कीजिए, इस पापी अलाउद्दीन के आखिरी वंशज को शीघ्र समाप्त कीजिए। इसके जीवन को अब मैं एक घड़ी भी सहन नहीं कर सकती।
देवलदेवी का यह रूप देखकर मुबारक की आँखें हैरत से खुली रह गई। उसे लात और घूसों से मारते हुए खुशरवशाह बोले, ”देवी! आगे बढ़ो और इस राक्षस को मारकर अन्हिलवाड़ विध्वंस, भगवान सोमनाथ के अपमान, अपने धर्मभ्रष्ट होने और अपने शील भंग का प्रतिशोध लो।“
मुबारक के सीने पर अपने पैर का प्रहार करके देवलदेवी बोली, ”नहीं देव, मैं इस पापी के रक्त की एक बूँद भी अपनी देह पर न लगने दूँगी।“
”ठीक है देवी, जैसी आपकी अभिलाषा।“ इतना कहकर खुशरव शाह ने अपने सैनिक जहीरा ओर मामा खडोल को मुबारक का वध करने की आज्ञा दी।
खडोल और जहीरा आगे बढ़े। हाथ में भाला, तीव्र वेग से भाले का प्रहार मुबारक के शरीर पर होने लगा। मुबारक की आर्तनाद भरी चीखें गूँजती रहीं। जहीरा और खडोल तब तक मुबारक का शरीर छेदते रहे, जब तक मुबारक की चीखें शांत नहीं हो गईं।
पूरा महल खुशरवशाह और देवलदेवी की जय की गूँज से गुंजायमान हो उठा। चारों ओर स्वधर्म स्थापना का विजय घोष गूँजने लगा।
बहुत रोचक उपन्यास !
देवल देवी और धर्मदेव ने जिस प्रकार लम्बी और ठोस योजना बनाकर ख़िलजी वंश का अंत किया और हिंदू साम्राज्य की स्थापना की वह अत्यंत प्रशंसनीय है।