कहानी : वर्तमान का सच
गाँव के बेवा बुधिया की लाश बीच चौराहे पर पड़ी है, शायद कुछ लोग श्मशान ले जाने की तैयारी में लग रहे हैं | बुधिया के मौत की खबर आस-पास के इलाके में जंगल के आग की तरह फ़ैल चुकी थी |लोगों में संवेदनाएं कम पर जिज्ञासा ज्यादे झलक रही थी | दो-चार लोगों के झुण्ड मगर अलग-अलग, जितने मुंह उतनी बातें | श्यामल भी अपनी स्कूटर सडक के किनारे ख्दाक्र लोगों के प्रतिक्रियाएं सुनने लगा | यूँ तो आफिस आते-जाते बराबर ही बुधिया को देखता, पर असली कहानी से परिचित तो नहीं था | आज जिस तरह की बातें सुनने को मिल रही थी उसने तो जिज्ञासा की भूख ही बढा दी थी |
कोई कह रहा था बेचारी आखिर मर गयी | कभी बड़े नाम के घर की बहू, जो उदार प्रकृति की थी | उसके घर से शायद ही कोई जरुरतमन्द इंसान निराश लौटा हो | वक्त बदला ससुर और पति की बीमारी के कारण बारी-बारी से आर्थिक झंझावात से घिरती चली गयी अपने पति की निशानी दोनों बेटों के घर बसाने तक |
आज उसके दोनों बेटे विदेशों में खुशहाल जिन्दगी बिता रहे हैं | लोग बता रहे थे – फोन तो किया था पर हवाई जहाज के टिकिट के अनुपलब्धता बता रहे थे | हाँ, इतना जरुर कहा कि कुछ पैसे भेज रहा हूँ, उससे आवश्यक क्रिया-कर्म जरुर कर देने की बात कही |
कुछ लोग बता रहे थे बच्चों ने कई बार प्रयास किया कि यहाँ की सम्पत्ति बेचकर अपने साथ ले जाने की | बुधिया एकाध बार गयी भी | मगर पाश्चात्य आधुनिक संस्कृति में खुद को नहीं ढाल पाने के कारण जल्दी ही वापस आ जाती |
अब तो बेटों के पास जाने तक से यह कहकर इनकार कर देती कि –“पुरुखों की मिट्टी को कैसे छोड़ जाऊँ, जिस घर डोली चढ़ दुल्हन बनकर आई थी उसी घर से अर्थी भी निकले” यही सीख और संस्कार जो माता-पिता से मिले थे | जिसे वह जीते जी नहीं भुला पा रही थी | और ऐसी ही अपेक्षा उसके माता-पिता की भी थी, जो कब के स्वर्गवासी हो चुके थे, पर बुधिया उस बंधन से स्वयं को कल तक बांधे थी |
बुधिया अक्सर कहती – “मेरा सब कुछ तो यहीं है” और अतीत में खो सी जाती | कभी-कभार सास-ससुर के तानों की कहानी सुनाती तो उन तानों में भी मेरी भलाई ही छिपी होती, बेशक कुछ समय के लिए कटु जरुर महसूस होता पर बाद में विचारने पर उपदेशात्मक ही प्रतीत होती जिसमें मेरे भविष्य की उज्ज्वल परिकल्पना मात्र ही उद्देश्य होता | वैसे सासु माँ थी तो कर्कशा, मगर अन्तर से बिलकुल ही निश्छल और निष्पाप | कभी अपने पति के बुलंदियों के किस्से तो कभी मनुहार की बातें |
जमीन-जगह सभी बच्चों के भविष्य संवारने में या तो बिक गये या फिर दबंगों ने कब्जा लिया | जब लोगों को विश्वास हो चला कि – पहले तो बच्चे साल में एकाध बार आ भी जाते पर अब बहुत ही कम आते हैं और इनके बच्चों ने लगभग नाता तोड़ सा लिया है और फोन पर भी कम ही बातें होती है तो दबंगों ने अपना जाल बिछाना शुरू कर दिया |
अचानक एक दिन बुधिया लम्बी बीमारी के गिरफ्त में आई और अस्पताल से इलाज कराकर वापस आई तो चौकीदार वाला कमरा छोडकर पूरे मकान पर भी एक दबंग तथाकथित नेता द्वारा कब्जा देखकर हतप्रभ सी रह गयी | जब गेट पर खड़े रंगदारनुमा दो व्यतियों ने रोबीले स्वर में हाथ के ईशारे से किस्से जमाने का दरबान क्वार्टर के ओर दिखाते – समझाते हुए कहा – “अम्मा, आपके जरूरत के सारे सामान रखे हुए हैं | अब आप उधर ही उस कमरे में जाएँ | आपका मकान बिक चुका है | ललन बाबू ने खरीद लिया है |” यह सुनते ही बुधिया बेहोश हो गयी | किसी नमूने जब होश में आई तो रजिस्ट्री के कागजात देख कुछ बुदबुदाते हुए दुबारे बेहोश हो गयी | उन्हीं लोगों ने किसी तरह बुधिया को उसके कमरे में पडी टूटी सी खाट पर लिटाकर वापस हो गये | स्वत: जब होश में आयी तो – बेटों द्वारा उसे पागल करार देकर डाक्टरी प्रमाण-पत्र के आधार पर रजिस्ट्री मुकम्मल हो चुकी थी, सिर्फ एक कमरे को छोडकर |
बुधिया बदहवाशी के हालत में अपने ज़िंदा और मानसिक रूप से स्वस्थ्य होने के सबूत गाँव के पंचायत, थाने से लेकर उच्चाधिकारी तक के साथ छोटे-बड़े नेता मंत्री तक पहुंचाती रही | मगर सभी ने सचमुच के पगली समझकर टालते रहे | कोई-कोई तो सहानुभूतिपूर्वक उसकी व्यथा सुनने के बजाय दुत्कारते – फटकारते रहे और अपनी चौखट से भगाते भी रहे | यहाँ तक कि बच्चे भी चिढाते-कुढाते रहते | कुछ तो लोगों ने और कुछ ललन बाबू के गुर्गों ने बुधिया के पागल होने की कई मनगढन्त कहानियाँ फैला रखी थी |
एक दिन थाने के थानेदार का मन पसीजा या आर्थिक लोभवश एक दरख्वास्त बुधिया से लिखवाकर ले लिया | दूसरे ही दिन थानेदार ललन बाबू के घर पहुंचा और चाय-पानी के खर्चे का जुगाड़ कर वापस लौट आया | लेकिन पहुंच और पैसेवाले होने का लाभ बराबर मिलते रहने के उद्देश्य से एक मुकदमा तो दर्ज करने की गलती तो थानेदार ने कर ही ली थी | इसके एवज में कई बार अपना तबादला भी रुकवा चुका था | इस कदर सालों-साल तक जांच भी चलती रही | जांच प्रतिवेदन की अप्राप्ति के आधार पर तारीख-दर तारीख साल बितते रहे | कचहरी के चक्कर लगाते-लगाते बुधिया लगभग टूट सी चुकी थी |
बुधिया जो कभी बड़े घर बुद्धिमती और अन्नपूर्णा सी एकलौती बहू हुआ करती थी वही अब बुधिया बनकर सिलाई-कढ़ाई, पापड़-अँचार बनाकर अपना गुजारा चलाती और मुकदमे की पैरवी भी | यहाँ हाजरी के नाम पर कुछ न कुछ तो खर्च करने ही पड़ते | सुबह जाती तो अंधेरी शाम तक कचहरी से वापस आती, खाना बनाती, कुछ देर रामायण पढती और सो जाती | यही क्रम वर्षों से चल रहा था | उस एक कमरे पर नजर गडाए लल्लन बाबू की नियत तो उसे भी लपक लेने की थी और बुधिया की नियती भी कुछ और | सहानुभूतिवश कोई कुछ सहायता भी करता तो ललन बाबू के प्रताड़ना से छुपाकर |
आखिर एक दिन ऐसा भी आया जब न्यायालय के फटकार के बाद जांच प्रतिवेदन न्यायालय में एकपक्षीय अनुमोदन के साथ दाखिल किया गया |
गनीमत ये थी कि पहले ही दिन के नोटिस पर जब बिधिया कचहरी पहुंची तो वकीलों के बाजार में खुद को पाकर दंग रह गयी | सबने लगभग पागल ही मान लिया और यह कहकर टाल दिया कि उसका कुछ नहीं हो सकता |
नये-नये बने वकील रमेश जी, जो मौन मुद्रा में अपने मुकद्दर को कोस रहा था, तभी बुधिया की आवाज से उसकी तन्द्रा टूटी – “मैं पागल नहीं हूँ और ज़िंदा हूँ | बेटा, मेरा हक मुझे कानून से दिलवा दो |”
पहले तो रमेश जी ने भी पागल या भीख मांगनेवाली ही समझा | पर, साथ ही एक दया और करुणा का जो भाव बुधिया की आपबीती सुनकर जागा तो अश्वस्त करते हुए वकालतनामे पर दस्तखत लेकर उसका मुकदमा लड़ने को तैयार हो गया | वह भी बिना फीस के | यह जानते हुए भी कि प्रतिपक्ष में नामी-गिरामी प्रख्यात वकील इस मुकदमें की पैरवी कर रहे हैं | आखिर रमेश को भी अपनी काबिलियत का लोहा मनवाना था |
रमेश अपने शिक्षाक्रम में हमेशा सर्वोत्कृष्ट स्थान पाने वाला एक गरीब बाप का एकलौता सन्तान था | शायद गरीबी के कारण ही डाक्टर, इंजीनियर तो नहीं बन सका पर, मात्र एक वकील बनकर रह गया | सत्यनिष्ठ पिता और कर्मनिष्ठ माँ के खून ने उसे सत्य के पथ से कभी डिगने नहीं दिया | पर, सच को झूठ और झूठ को सच सिद्ध करने के बाजार में, सच को सच बताने का जज्बा बरकरार था | इसलिए भी शायद वह आधुनिक न्याय की दुनियाँ में सबसे अलग-थलग पद गया था |
हाँ, अपनी काबिलियत और अध्ययन पर पूरा भरोसा था रमेश जी को |
बुधिया का मुकदमा आठ साल बाद अपने बहस के पहले पादान पर पहुंच रहा था | बहस-दर-बहस में एक तरफ तो अकेले रमेशजी जबकि प्रतिपक्ष में तीन-तीन, चार-चार बूढ़े खन्नास वकीलों के तर्कों को अपने तर्कों से काटकर छिन्न-भिन्न करता रहा तो पूरे न्यायालय परिसर में मानो एक ख्याति सी फ़ैल गयी | ये चर्चा आम हो चली कि इस मुकदमें का फैसला रमेश जी के ही पक्ष में जायगा |
पर निर्णय के दिन तो नजारा ही बदल गया | जब न्यायाधीश ने फैसला देते हुए रमेश जी के विरुद्ध देते हुए विपक्ष को सही ठहरा दिया |
बुधिया भी अवाक रह गयी | बस, इतना ही बोल सकी कि “ बाबू तुमने तो जान लड़ा दी, मगर, मेरी किस्मत ही खोटी निकली |” और बुधिया वहीं बेहोश हो गयी | तत्काल पुलिस उसे अस्पताल ले गयी जहाँ उसे मृत घोषित कर दिया गया | पोस्टमार्टम रिपोर्ट में उसके पिछले कई दिनों से भूखा बताया गया |
न्याय की आकांक्षा से लिपटी फटी-पुरानी, मटमैली चादर में बुधिया के मृत शरीर को रमेशजी और गाँव के कुछेक लोगों ने घर तक पहुंचाया, जिसे अब सूने श्मशान में दाह-संस्कार के लिए ले जाने की तैयारी हो रही थी |
— श्याम “स्नेही”
बहुत दर्दनाक कहानी , और यह आज हो रहा है , वैसे भी इंडिया में गुंडागर्दी लैंड माफिया और वकीलों का लालच वा जजों के इन्साफ का तराजू सिर्फ बुरे लोगों की तरफ होना कभी ख़तम नहीं हो सकता .साथ ही बिदेशी लोगों की मुश्कलें और उन का वहां ही फंस जाना एक दुभिदा बनी हुई है. मैं भी कभी सोचता था कि दो चार साल काम करके वापिस इंडिया आ जाऊँगा लेकिन बच्चे हो गए , उन की पड़ाई शुरू हो गई , बड़े हुए तो शादीआं हो गईं . अब ग्रैंड चिल्ड्रन हो गए और साथ ही बूड़े भी , इंडिया ज़िआदा तर माँ बाप तो कहना मान कर बचों के पास आ जाते हैं और बच्चों की मज्बूरीँ भी समझ लेते हैं लेकिन कुछ ऐसे भी हैं जैसे आप ने कहानी में बताया है .
बहुत अच्छी कहानी. यही आज का सत्य है.