किरणों के जल बूंदों की छींटों से..
अपनी अपनी देह कों छोड़
रहते मै और तुम
एक दूसरे के मन मे
हो आत्म -विभोर
बीच मे अनाम रिश्ते की है
यह अदृश्य सी ..दृढ महीन डोर
ढूढते हैं हमें ..
इसके दोनों अंतहीन छोर
विलुप्त सा लगता एक दूजे में
हमारे अस्तित्व का हर मोड़
जानना संभव नही है
आखिर मैं और तुम
रहते कहाँ ,कब किस ओर
वियोग मे संयोग का लगता
यह जोर बेजोड़
जैसे
चेतना बहती सर्वत्र
चुपचाप ..किये बिना शोर
निशा के आते ही
जब मै प्रकृति सा –
हो जाता हू निराकार और गौण
तब
तुम किरणों के जल बूंदों की छिटो से
करने आती हो
मुझे साकार और पुनर्जीवित …
बन कर स्वर्णिम
एक् खुबसूरत सुबह
हर रोज
kishor kumar khorendra
वाह वाह ! कविता बहुत गहरे अर्थ लिये हुए है. इसका अर्थ सबकी समझ में नहीं आ सकता.
ji ..shukriya