उपन्यास : देवल देवी (कड़ी 57)
52. मंगल बेला
नाऊन ने स्नान कराया, सोलह श्रृंगार किए, बारह आभूषण पहनाए। सखियों ने मंगल गान गाए। पुरोहित ने मंत्र पढ़े और अग्नि के सात फेरे लेकर गुर्जर राजकुमारी से वैदिक रीति से खुशरवशाह (धर्मदेव) ने पाणिग्रहण किया। उचित घड़ी पर पति-पत्नी को सखियाँ सजे-संवरे कक्ष में अकेला छोड़ गईं।
एकांत जान पति के चरण स्पर्श करके देवलदेवी बोली, ”देव, अभी भी विश्वास नहीं होता, लगता है जैसे सब स्वप्न हो।“
पैरों में बैठी देवलदेवी की बाँहों को पकड़कर प्रेम से उठाते खुशरवशाह बोले- ”देवी! हमारी विजय पूर्ण हुई, आपकी तपस्या सफल हुई, अब आप भारत की साम्राज्ञी हैं।“
”नहीं देव!“ देवलदेवी बोली, ”अभी कुछ कार्य अपूर्ण है, उसे पूरा करना है।“
”क्या देवी! कौन से कार्य?“
”आपका विधिवत् राज्याभिषेक देव।“
”ठीक कहा देवी“, खुशरव शाह हँसते हुए बोले, ”सम्राट धर्मदेव और साम्राज्ञी देवलदेवी।“
”नहीं देव! सम्राट धर्मदेव नही, सुल्तान नसिरूद्दीन।“
”ऐ… ऐसा क्यों देवी?“ खुशरव शाह तनिक चैंकते हुए बोले।
”यह कूटनीति है, मुस्लिमों को चकमा देने के लिए और फिर नसिरूद्दीन का अर्थ होता है धर्मरक्षक अर्थात् धर्मदेव। देवलदेवी अपने पति के वक्ष पर सिर रखते हुए बोली।“
खुशरव बोले, ”देवी! साम्राज्ञी आपकी आज्ञा शिरोधार्य“ और फिर दोनों हँस पड़े। देर तक हँसते रहे। फिर एक-दूसरे के आलिंगन में कसमसाने लगे।
बहुत अच्छा उपन्यास. अब यह समापन की ओर जा रहा लगता है.