कविता

पाजेब

“गुलाबी प्रात,यौवन की नींद
को देखो,जगा गई।
अलंकृत गदरायी काया को
कैसा मोह लगा गई?
सहज़ ही तो जागी थी मैं
कहाँ से आया पाजेब वाला?
जिसने हृदय निःसृत वाणी
से कर दिया मतवाला।।
तीर सी भागी मैं बाहर
की और पीट ताली।
इस हलचल मे जाने कब
गिरी सोने की बाली।।
चाँदी की सफ़ेद पाजेब
वो दो-तीन लड़ियाँ।
देखकर लगा,आ गई
ठुमकनें की घड़ियाँ।।
टख़नों के चारों और
लिपटकर बिछी हुई।
बहुत सुघड़ थी,छनकतें
घुंघरूओं से गूँथी हुई।।
दाम पुछा तो पता चला
दो पैसे दस।
ऐसे खरीदी राजधानी
जैसे खरीद ली बस।।
भीतर-भीतर जाते ही
रूनझून होने लगी।
और अधरों से भी
गुनगुन होने लगी।।
निकली छन-छन मैं,लजाती
सखियों के पास।
अनगिन शोभा दिखा,
प्रशंसा की आस।।
पैर पटक-पटक हरित-
तृणों की नोकों पर।
छनन-छनन ताल मिलाती
पवन के झोंको पर।।
बावली बन दौड़ लगाई
तब आया सखी द्वार।
जैसे स्वागत् होगा मेरा
पहनाकर हार।।
सखी तो देखते ही
ठँठाकर हँसने लगी। 🙂
“सोना”कब से एक
पाजेब पहनने लगी??
सारी ऐंठन,नयन की
अश्रुधार हो गई।
मेरी चारूचंद्र सी पाजेब
कहीं पथ में खो गई।।
“सोनाश्री”

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