अंधेरा, नींद और स्वप्न
रात के अंधेरे में,
नींद का पहरा,
मुझ पर होता है।
तब स्वप्न,
मुझे जगाता है ।
कर लेता है मुझे,
अपने में समाहित।
हो जाता हूँ मैं स्वप्नमय।
देखता हूँ तुम्हें,
कभी छोटी सी,
ज्योति की तरह।
कभी कुहाँसे में,
रूपहली झलमल,
बूँद की तरह।
कभी लहलहाती,
कलियो की तरह।
मुस्कुराती हुई,
दिखती हो।
उसमें निहारता हूँ,
तुम्हारा ही मुख-मंडल।
क्षण भर का,
यह उदय-अस्त।
केवल,
पैदा कर जाता है,
हृदय में सिहरन।
तभी अचानक,
निद्रा साथ छोड़ जाती है।
स्वप्न के पन्ने ,
बिखर जाते हैं।
कोशिश करता हूँ,
इकट्ठा करने का,
लेकिन ,
मिलती है मुझे,
असफलता,
रह जाती है मेरे पास,
सिर्फ विवशता ।
न रहती है अंधेरा,
न रहता है नींद का पहरा।
—— रमेश कुमार सिंह
–
सुंदर भाव श्रीमान जी।
धन्यवाद
अच्छी कविता !
धन्यवाद श्रीमान जी।