कविता

ताजमहल

tajmahalउस प्यार के नज़राने काे देखने
लाेग दूर दूर से जाते हैं
हर काेई अपनी महबूबा काे
ऐसा ही ताज बनाने का
अश्वासन भी देते हैं.
लेकिन सदियां गुज़र गई
न हुआ काेई शाहजहाँ
और न बनाया किसने वैसा ताज
इसका अर्थ यह नहीं है कि
आज दुनिया में प्यार नहीं है
दुनिया ताे आज भी
प्यार की दिवानी है याराे
बस उसमें एक
मुमताज की कमी है.

डॉ. सुनील कुलकर्णी

डॉ. सुनील कुलकर्णी विभागाध्यक्ष हिंदी ऊत्तर महाराष्ट विश्वविद्यालय, जलगाँव

2 thoughts on “ताजमहल

  • विजय कुमार सिंघल

    हा हा हा बढ़िया ! लैला मजनुओं की कोई कमी नहीं है, लेकिन सच्चा प्यार दुर्लभ है.

  • बहुत खूब .

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