सूर्य और दीपक
संध्या का समय ,
दूर क्षितिज में सूर्य अस्त हो रहा था,
धरती पर धीरे धीरे अंधकार पसर रहा था,
सूर्य का मन ग्लानी से भर उठा –यह क्या ?
जिस धरा को दिन भर मैंने किया प्रकाशमान,
जिसके बल पर था यह सारा जग उदीयमान ,
उसे अंधकार देकर क्यों जा रहा हूँ दूर .
पर प्रकृति के नियम आगे – सूर्य भी मजबूर ,
अंधकार बढने लगा–सूर्य का मन भरने लगा–
तभी सूर्य ने देखा –
दूर किसी गरीब की कुटिया में,
एक नन्हा सा दीपक जलने लगा,
सूर्या देवता को प्रणाम कर कहने लगा…
हे सूर्य देवता… मैं हूँ ना…
“आप व्यर्थ ना करें अपने मन को उदास ,
जहाँ तक मेरी सामर्थ्य है–
वहां तक मैं फैलाऊँगा प्रकाश,
मैं अकेला नहीं-हजारों दीपक हैं मेरे साथ,
हम दूर करेंगे इस धरती का अंधकार
भोर होने तक आपका करेंगें इंतजार,”
दीपक के इस हौसले से, सूर्य आश्वस्त हो गया,
और निश्चिन्त भाव से दूर क्षितिज में अस्त हो गया.
—जय प्रकाश भाटिया
बहुत सुन्दर कविता !