सम्राट हम पैदा हुए
सम्राट हम पैदा हुए, पर सृष्टि ना समझा किए;
ना विरासत से कुछ लिये, ना विराटित हिय को किए ।
चल क्षुद्र मन बहु खो दिये, अपनों को कब बूझा किये;
सपने लिये लुटते रहे, ख़ुद फ़क़ीरी को वर लिये ।
खो अहं में रह भरम में. रम कहाँ पाये मर्म में;
भागे फिरे हठ- धर्म में. भटके रहे भव कर्म में ।।
तोड़ना सर सब का चहे, ना देखना मृदु को चहे;
अज्ञान में गर्वित रहे. रज तमोगुण गर्भित रहे ।
दर्शन दयालु जब हुए. किरपा अहैतुक कर दिए;
चक्षु ‘मधु’ खोला किए. कण कण रचयिता लख लिये ।।
गोपाल बघेल ‘मधु’
उत्तम कविता !