कविता

मेरा ज़िंदा भूत उन्हें सताता है

पूरा बाग़ घूम लिए,

आख़िरी छोर आ गया,

हाथ में कोई फूल नहीं,
पर सुकून है कि,
कांटो पर चलते चलते,
तलुए सख्त हो गए हैं,
और पथरीली राहों पर चलने के लिए,

चंद पागलों के शहर में घूमने से,
शहर पागल नहीं हो जाता,
लोग आज भी मिलते हैं,
एक दूसरे से
उसी मोहब्बत के साथ,
जैसे मिलते थे पागलों के,
पागल होने के पहले,

उन्हें कितनी बार समझाया,
जट्ट मरा तब जानिये,
जब तेरहीं हो जाए,
उन्होंने तेरहीं नहीं की,
अब वो परेशान हैं कि,
मेरा ज़िंदा भूत उन्हें सताता है,
वो सोचते हैं,
मैं मरा क्यों नहीं…

अरुण कान्त शुक्ला

अरुण कान्त शुक्ला

नाम : अरुण कान्त शुक्ला, ३१/७९, न्यू शान्ति नगर, पुराणी पाईप फेक्ट्री रोड, रायपुर, परिचय : ट्रेड युनियन में सक्रिय था, भारतीय जीवन बीमा निगम से पांच वर्ष पूर्व रिटायर्ड , देशबंधु, छत्तीसगढ़ में लेखन, साहित्य में रुची, लेखों के अलावा कहानी, कविता, गजल भी लिखता हूँ,, मोबाइल नंबर : 9425208198 ईमेल पता : [email protected]

2 thoughts on “मेरा ज़िंदा भूत उन्हें सताता है

  • बहुत खूब .

  • विजय कुमार सिंघल

    हा हा हा बढ़िया !

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