मेरा ज़िंदा भूत उन्हें सताता है
पूरा बाग़ घूम लिए,
आख़िरी छोर आ गया,
हाथ में कोई फूल नहीं,
पर सुकून है कि,
कांटो पर चलते चलते,
तलुए सख्त हो गए हैं,
और पथरीली राहों पर चलने के लिए,
चंद पागलों के शहर में घूमने से,
शहर पागल नहीं हो जाता,
लोग आज भी मिलते हैं,
एक दूसरे से
उसी मोहब्बत के साथ,
जैसे मिलते थे पागलों के,
पागल होने के पहले,
उन्हें कितनी बार समझाया,
जट्ट मरा तब जानिये,
जब तेरहीं हो जाए,
उन्होंने तेरहीं नहीं की,
अब वो परेशान हैं कि,
मेरा ज़िंदा भूत उन्हें सताता है,
वो सोचते हैं,
मैं मरा क्यों नहीं…
— अरुण कान्त शुक्ला
बहुत खूब .
हा हा हा बढ़िया !