कहानी : वास्तविकता का दर्पण
अनुज और रमेश एक ही गाँव में पैदा हुए। दोनों ही जाति के अलग परंतु दोनों के परिवारों के मध्य रिश्ते मधुर थे मानो दोनों परिवारों में एक ही खून हो। अनुज और रमेश की दोस्ती इतनी गहरी थी कि गाँव के अन्य लोग अपने बच्चों से यही कहते हुए नजर आते कि- “दोस्ती हो तो अनुज और रमेश जैसी”। हुनर की क्या बात करें उनके बारे में? प्रत्येक कार्य को बड़ी कुशलता पूर्वक करते। दोनों पढ़ाई में भी अपनी कछाओं में प्रथम ही आते। समय अपनी रफ्तार से आगे बढ़ने लगा। समय के बदलते रूप के साथ-साथ पूरे गाँव की रूपरेखा ही बदल गयी। अब अनुज और रमेश कछा बारह की परीक्षा पास कर चुके हैं। दोनों ने ही पूरे जिले में सर्वाधिक अंक लाकर सिर्फ अपने माता-पिता का ही नहीं अपितु अपने गाँव का भी नाम रोशन किया। जिलाधिकारी द्वारा दोनों को सम्मान पत्र और कुछ धनराशि देकर सम्मानित किया। दोनों ने आगे की शिक्षा पाने के लिए अपने माता-पिता के से परामर्श किया। माता-पिता भी बहुत खुश हुए, यह जानकर उनके बच्चे आगे की शिक्षा पाना चाहते हैं. क्योंकि उस गाँव अभी तक कोई भी उच्च शिक्षा परापत नहीं कर पाया। जिसने भी हामी भरी तो उसे जिम्मेदारियों की बेडियों में बाँध दिया गया।
भले ही दोनों ही दोनों परिवारों का गुजारा खेती से होता था। अपने बच्चों की इच्छा को मारना नहीं चाहते थे। कुछ दिन बाद ही अनुज और रमेश ने शहर आकर एक नामी कालेझ में दाखिला ले लिया। छात्रावास में भी दोनों साथ ही रहते। पढ़ाई आरंभ हो गयी। दोनों ही भलीभाँति जानते थे कि उनके माता-पिता ने किन परिस्थितियों में उन्हें शहर भेजा है? अनुज की मित्रमंडली में सभी पढ़ाकू बच्चे ही थे इसके विपरीत रमेश गलत संगति का शिकार हो गया।
शहर के ग्लैमर में रमेश भूलता ही जा रहा था कि उसके माता-पिता ने उसे किन सपनों के सहारे शहर भेजा है? हद तो तब हुई जब रमेश अपने आवारा दोस्तों के चक्कर में अपनी कछाएं भी छोड़ने लगा और नशे की लत में पड़ गया। रमेश के माता-पिता जो पैसे रमेश की पढ़ाई के लिए भेजते। वह उन पैसों को अपने दोस्तों के साथ आवारागरदी और नशे में उड़ा देता। अनुज ने कई बार उसे समझाया और कहा कि- “अगर तुम अपनी ये गंदी हरकतों नहीं छोड़ोगे तो मैं तुम्हारे घर सब सच बता दूँगा।” इतना सुनते ही रमेश तुरंत अनुज के हाथ पैर जोड़ने लगता और कहता- “आज के बाद नहीं करूँगा।” दिन बीतते जा रहे थे परंतु रमेश तो सुधरने का नाम ही नहीं ले रहा था। परीक्षाएं भी समीप आ गयी। अनुज को तो कोई भय नहीं था क्योंकि उसने सालभर सही से पढ़ाई की थी। रमेश को अब किसकी चिंता वह तो होश में ही नहीं रहता था। परीक्षाएं समाप्त हो गयी। परिणाम सामने आया तो रमेश भौँचक्का रह गया। वह फेल हो गया जबकि अनुज ने कालेज में टाप किया। रमेश इस बात से चिढ़ गया और कुछ दोस्तों के साथ आकर अनुज के साथ हाथापाई कर दी।
सुबह होते ही रमेश अनुज के पैरों में गिर पड़ा और बोला- मेरे भाई पता नहीं कल मैने कैसे तुम पर हाथ उठा दिया? मुझे माफ कर दे भाई। अनुज चुप था। थोड़ी देर बाद, अनुज बोला- “रमेश अब हम एक साथ नहीं रह सकते।” इतना कहते ही अनुज ने अपना सामान पैक किया और चला गया। अब रमेश और दोनों ही अलग-अलग छात्रावास में रहने लगे। समय पंख लगाकर उड़ने लगा। कुछ दिन… सप्ताह… फिर महीने…। कुछ साल बाद। अब वह समय आ गया था जब किस्मत को उनके करम के आधार पर उनका फैसला करना था। आज एक तरफ जहाँ अनुज ने स्नातक की डिग्री प्राप्त कर ली है। रमेश ने तो पुस्तकों से नाता तभी तोड़ दिया था जब वह फेल हुआ था। कुछ समय पश्चात… रमेश शहर में एक नामी गुंडा ‘दादा’ के नाम से मशहूर हो गया। रमेश अब पूरी तरह काली दुनिया के चंगुल में फँस गया और गुनाहों के समंदर में तैरने लगा। वहीं अनुज एक पुलिस अफसर बन गया है। अनुज की खुशी का तब कोई ठिकाना न रहा जब उसकी पोस्टिंग उसी शहर में हुई जहाँ से अनुज ने स्नातक किया। शहर में कानून की छवि को और मजबूत करने कि लिए जहाँ एक ओर अनुज अपने नियमों के दायरे में रहकर माफिया को जड़ से समाप्त करने की पलानिंग कर रहा था वहीं दूसरी ओर रमेश उर्फ दादा अपना पूरा जोर शहर में दहशत और किशोरों को नशे का आदी बनाने में लगा रहा था।
अनुज को ऊपर से आदेश आया कि शहर में हो रहे दंगे, चोरी और लूट जैसी वारदातों पर जल्दी ही रोक लगाई जाए। अनुज ने अपने काम करने के तरीकों में और तेजी लाई। शराब की दुकानों पर ताले लगने लगे। चोर, खूनी, लुटेरे सभी जेल के अंदर दिखाई देने लगे। इसी दौरान खुफिया सूत्रों से अनुज को पता चला कि शहर में सभी कालेधंधोँ का काम कोई दादा संभाल रहा है। अनुज को दादा को जिंदा या मुरदा पकड़ने का आदेश मिल गया। बस! अब देर किस बात की? खबरी से दादा के अड्डे का पता चल गया। एक बंद पड़ी फैक्टरी में अनुज ने अपनी टीम के साथ दादा और उसके आदमियों को चारों तरफ से घेर लिया और हमला बोल दिया। फैक्टरी के आस-पास का वातावरण गोलियाँ की आवाजों से गूँज उठा। तड़..तड़……….तड़..तड़..तड़….तड़….तड़!! अनुज की टीम के कुछ सिपाही घायल हो गए। रमेश के सभी आदमी मारे गए। अचानक! अनुज और रमेश आमने-सामने। दोनों ने ही एक दूसरे को पहचान लिया। रमेश तो खुश हुआ और सहसा बोला -“अरे! अनुज तुम। यार तुमने तो डरा ही दिया।” अनुज चुपचाप होकर सब सुन रहा था। अब अनुज बोला -“रमेश तुम्हें इस बार माफी नहीं सजा मिलेगी। आज मेरी दोस्ती मेरे फरज के आगे नहीं झुक सकती”। रमेश ने चालाकी दिखाते हुए भागने की कोशिश की परंतु अनुज उसकी इस चाल को भाँप गया और ऊँची आवाज में बोला- “देखो रमेश भागने का प्रयास मत करना। मेरे पास तुम्हें जिंदा या मुरदा पकड़ने का आदेश है। मुझे मजबूर मत करो।” सहसा रमेश चालाकी से अनुज को मारने के लिए अपनी पिसटल निकाल ही रहा था कि धांय-धांय करती हुई दो गोलियाँ अनुज की बंदूक से निकलती हुई रमेश के शरीर में घुस जाती हैं।
रमेश की बंदूक गिर जाती है और रमेश भी। रमेश के शव को उसके गाँव पहुँचाया जाता है। रमेश के माता-पिता की चीखें सुनकर और बहते हुए आँसुओं की धाराओं को देखकर सभी भावुक हो उठे। रमेश की लाश के साथ उसके माता-पिता के द्वारा देखे गए सपनों का भी आज अंत हो गया था। अनुज भी उन भावुक पलो में स्वयं को नहीं रोक पाया और यही सोच रहा था कि -“काश! रमेश स्वयं को वास्तविकता का दर्पण दिखा पाता तो आज यूँ लाश बनकर न लेटा होता।“
— विकाश सक्सेना
अच्छी कहानी , लगा जैसे कोई फिल्म देख रहा हूँ .
अच्छी कहानी ! वैसे इस थीम पर पहले भी कहानियाँ पढ़ी हैं.