संस्मरण

मेरी कहानी – 17

स्कूल में नए नए टीचर आ रहे थे , एक वातावरण ही नया सा हो गिया था। दो कमरे और बन गए थे। स्कूल काफी खुला हो गिया था। सरकार की तरफ से फ़ुटबाल, वालीबाल और वालीबाल नैट आ गए थे। मुझे वालीबाल का बहुत शौक था। आधी छुटी के वक्त मैं कभी घर नहीं गया था , मैं वालीबाल नैट एक लड़के की मदद से लगाता और फिर कुछ और लड़के भी आ जाते और घंटा भर खेलते रहते। पीटी आई मास्टर चरण सिंह हमें बहुत खुश रखता था , वोह तीस बतीस वर्ष का होगा। हर सुबह वोह हम से कसरत करवाता। डंड बैठक करवाता और हमारे पसीने छूट जाते। डंड करने के वक्त कोई ज़रा सा नीचे होता चरण सिंह सोटी मार देता। हमारी टांगें कांपने लगती। फिर वोह हमें दौड़ाने लगता और साथ ही आप भी दौड़ता जाता। दौड़ते दौड़ते हमें नदी की तरफ ले जाता जो एक मील दूर थी। नदी के किनारे किनारे दौड़ते जाते और फिर हमें बेरीओं के झुण्ड की ओर ले जाता।  यह बेरीआं जिसको मले कहते थे दो तीन फुट ऊंची ही होतीं थीं जिस पर छोटे छोटे बेर लगते थे। फिर वोह कहता , “ओए लड़को जाओ बेर खा लो “हम बेर खाने लगते और चरण सिंह कहता, “ओए हैड मास्टर को ना बताना नहीं तो फिर इधर कभी नहीं लाऊंगा “. बेर खाने के बाद दौड़ते हुए वापिस स्कूल आ जाते। इस टीचर से हम खुश थे और यह हमें भूगोल भी पडाता था।

पंजाबी का टीचर भगत सिंह होता था  जो एक सीधा साधा बज़ुर्ग था, खादी के कपडे ढीली सी पगड़ी और बड़ी बड़ी दाहड़ी। बहुत शरीफ और एक गुरदुआरे में ग्रंथी भी था। इन से कभी कोई डरा नहीं था और ना ही वे अपने पास कोई सोटी  रखते थे। मास्टर गुरदयाल सिंह पचीस छबीस वर्ष के स्मार्ट नौजवान थे , नई नई शादी हुई थी और मेरे उस दोस्त के चाचा जी थे जो अब बर्मिंघम में रहता है ( यह गुरदिआल सिंह अब फगवारे में रहते हैं, सौ के करीब इन की उम्र हो गई है) और हम तकरीबन इकठे ही इंग्लैण्ड आए थे। यह गाँव के जैलदार के बेटे थे जो गाँव में सब से अमीर थे। ऊंचे लम्बे शरीर के तगड़े लेकिन हॉकी खेलते हुए एक कलाई पर चोट लग जाने के कारण कलाई टेढ़ी थी, वरना  वोह कोई मिलिट्री में बड़े ऑफिसर होते क्योंकि इन के खानदान में एक रवायत ही थी कि सभी बड़े बड़े  मिलिटरी ऑफिसर ही लगे हुए थे। इस का कारण गाँव में जैलदार होने के कारण उनके लिंक बहुत दूर दूर तक थे। गुरदयाल सिंह बहुत अछा पढ़ाते थे। बाबू राम हमें इतहास पढ़ाते थे , इन के कपड़े भी खादी के होते थे , ढीली सी पगड़ी , क्लीन शेव और कानों में छोटे छोटे रिंग होते थे जिस को नंन्तीआं बोलते थे , यह हमारी भुआ परतापो के पड़ोसी थे। इनको तो हम कभी भूल ही नहीं सकते क्योंकि जब एक दो बजते तो कहते, ” जाह गुरमेल भट्टी से दाने भुनवा के ला”. मैं खुश हो कर दौड़ जाता, पहले घर से दाने लेता, फिर बंसो झीरी की भट्टी पहुँच जाता और दाने ले कर मास्टर जी को दे देता।  मास्टर जी दाने अपनी कमीज के पलड़े में डाल  लेते और चबने लगते। मज़े ले ले कर वोह दाने चबते और पढ़ाते भी रहते।

            एक दिन वोह हम से कहने लगे , “ओ बाई लड़को जिसने मेरे घर आ कर पड़ना है वोह रात को वहीं आ कर पड़ा करें और वहीँ सो जाया  करें” . हम तो खुश हो गए , हमारे लिए तो यह हॉलिडे कैम्प जैसा ही था। दूसरे दिन हम तकरीबन बारह तेरह लड़के अपने अपने बिस्तरे ले कर मास्टर जी के बड़े से कमरे जिस को दलान बोलते थे में बिस्तरे लगा दिए। यह बिस्तरे हमने फर्श पर ही लगाए , नीचे दरीआं और ऊपर दूसरे कपड़े। हर रोज़ हम अपने बिस्तरे बिछा कर पड़ने लगते। कुछ देर के लिए मास्टर बाबू राम जी भी आ जाते और हम से सवाल पूछते। सुबह को अपने अपने बिस्तरे इक्कठे करके एक बड़े से लोहे के संदूक पर रख देते। यह हमारा रोज़ का रूटीन ही बन गिया था। सभी लड़कों ने पैसे इकठे करके एक मट्टी के तेल का लैम्प लिया था जिसकी चिमनी काफी ऊंची थी। मट्टी का तेल भी साँझा खरीदते थे। कभी कभी लैम्प गर्म हो जाने के कारण चिमनी में क्रैक आ जाते। मास्टर जी आटे में थोह्ड़ा सा पानी डाल कर लेटी सी बना लेते और एक कागज़ के टुकड़े पर वोह आटा लगा कर चिमनी के क्रैक के ऊपर लगा देते और हंसकर कहते “नई नौ दिन पुरानी सौ दिन”. इस दालान में चूहे बहुत होते थे , जब हम सो जाते तो चूहे हमारे ऊपर मिलिटरी परेड करते। कई दफा कोई लड़का छोर मचा देता “ओए मर गए चूहा ! ” और हम दियासलाई से लैम्प जला लेते  लेकिन वोह चूहे हम से ज़्यादा चालाक थे , वोह पता नहीं कहाँ चले जाते। फिर हम वक्त पास करने के लिए कहानीआं सुनाने लगते। एक गाने की तर्ज़ पर हम ने एक गाना बनाया हुआ था जो हम गाते रहते जो कुछ इस तरह था “मुझे गोरा गोरा कहते , मैं बेटा इंग्लिस्तान का, इन चूहों पे मेरा कब्ज़ा , मैं मालिक इस दालान का “. एक दिन सुनकर मास्टर जी हँसते हँसते  आ गए और पूछने लगे , ” ओए , इस गाने के किया अर्थ हैं ?” पहले तो हम  चुप हो गए फिर हम बोले , “मास्टर जी यह सब चूहे हमारे हैं हम इन के मालिक हैं  “. मास्टर जी हँसते हँसते चले गए। मास्टर बाबू राम जी का बेटा राम सरूप भी हमारे साथ ही रहता था।
            मास्टर बाबू राम जी कई दफा हमें कहते,” ओए भजन, कल को अपने खेतों से मेरी भैंस के लिए चारा लाना”. कभी कहते, ” ओए गुरमेल कल को अपने खेतों से गन्ने ले कर आना”, किसी को कुछ हुकम फरमा देते किसी को कुछ। सारे लड़के उन का हुकम मान कर काम कर देते। मास्टर जी का कहना हम ख़ुशी से मानते थे। कभी तो यहां तक भी कह देते,” ओए जा अपने घर से चाह पत्ती ला, चाह बनाने लगे तो देखा खत्म हो गई थी”. हम शरारतें भी बहुत किया करते थे लेकिन बाबू राम जी ऊपर चुबारे में सोते थे, पता नहीं या तो उन्हें सुनाई नहीं देता था या जान बूझ कर इग्नोर कर देते थे। जितनी देर हम मास्टर जी के घर में सोए हम ने बहुत मज़े किये, लेकिन इस का अंत भी बहुत बुरा हुआ। मास्टर जी के बड़े लड़के यानी राम सरूप के बड़े भाई लुभाया राम की शादी हो गई थी। उस की पत्नी बहुत सुन्दर लेकिन एक टांग से लंगड़ी थी। हरभजन ने राम सरूप को उनकी भाभी के बारे में कुछ अपशब्द बोल दिए। राम सरूप गुस्से हो गिया और जाकर बाबू राम जी को सब कुछ बता दिया। मास्टर जी गुस्से में आग बबूला हो गए और आते ही हरभजन को इतना पीटा कि हम सब दहल गए।
मास्टर जी कुछ देर के लिए खड़े हो गए, फिर हरभजन की तरफ चिलाये और बोले उठ ! हरभजन डरता डरता उठ खड़ा हुआ , मास्टर जी  ने मुंह पर तमाचे मारने शुरू कर दिए। हरभजन का रंग गोरा था, तमाचे पड़ने से उस की गालें लाल हो गईं। बाबू राम जी बहुत बोले और कहा , खबरदार ! जो मेरे घर में कभी आये, सुबह होते ही अपने अपने बिस्तरे यहां से ले जाओ और कभी मेरे घर को नहीं आना, उन्होंने बहुत लफ़ज़ बोले जो मुझे याद नहीं। बाबू राम जी भी जैसे थक गए, अपने कमरे की ओर चले गए। हममें से कोई लड़का बोला नहीं। सुबह को चुप चाप सभी ने अपने अपने बिस्तरे सरो पर रख लिए और अपने अपने घर को चल दिए। हम बहुत उदास थे। मैंने हरभजन को कहा, यार ! जाने से पहले मास्टर जी से मुआफ़ी मांग ले। हरभजन के मन में भी यह बात आ गई। हम पीछे मुड़ गए। मास्टर जी भी हमें जाते हुए देख रहे थे, पता नहीं उन के मन में क्या था। हरभजन जाते ही मास्टर जी के पैरों पर पड़  गया और रोते  हुए बोला ,” मास्टर जी मुझे मुआफ कर दो , आगे ऐसी गलती कभी नहीं होगी “. हम सभी ने भी मुआफ़ी मांगी। मास्टर जी बोले नहीं लेकिन हरभजन के सर पर हाथ रख दिया और अपने कमरे की तरफ चल दिए। सभी लड़के अपने अपने घरों को चल दिए। हमें लग रहा था जैसे हम सब कुछ हारकर जा रहे थे।
           दूसरे दिन जब स्कूल गए तो हमारी बातें सभी लड़के जान गए थे और हम पर हंस रहे थे। हम शर्म के मारे कुछ बोल नहीं रहे थे। हरभजन स्कूल ही छोड़ गया था शायद वोह यह सह नहीं सका था। यह हरभजन बड़ा हो कर बहुत बड़ा बदमाश आदमी बना, उस का इतिहास ही अजीब बना , मुझे पता नहीं वोह अब है या नहीं। बारह तरह वर्ष हुए जब मैं इंडिया गया तो अपने छोटे भइया को हरभजन से मिलने की इच्छा जाहिर की तो भइया बोले ,” कोई फायदा नहीं वोह बहुत बड़ा बदमाश बना हुआ है, वोह आप से पैसे मांगेगा “. एक दिन मुझे वोह बस में ही बैठा हुआ मिल गया।  मैंने तो उसे पहचाना नहीं था लेकिन वोह मुझे पहचान कर मेरी सीट के नज़दीक आ गया और बोला, ” गुरमेल , किया हाल है ” जब मैंने कहा कि मैंने उसको पहचाना नहीं था तो वोह बोला, ” मैं हरभजन हूँ” कुछ देर हम बातें करते रहे, मेरा स्टॉप आ गया था और मैं उसे सत सिरी अकाल कह कर बस से उत्तर गया। सारा दिन मेरे मन में वोह बचपन का सीन जब हम सरों पर बिस्तरे उठाए बाबू राम जी के घर से बेइज़त हो कर आये थे याद आता रहा।
(चलता …)

12 thoughts on “मेरी कहानी – 17

  • विभा रानी श्रीवास्तव

    आपकी लेखनी सजीव चित्रण करती है ….

  • विजय कुमार सिंघल

    भाई साहब, मेरे एक मित्र, जो मेरे ही बैंक में बड़े अधिकारी हैं, के पिताजी विभाजन के समय पाकिस्तान से पलायन करके भारत आये थे. उन्होंने अपनी कहानी बहुत रोचक और मार्मिक ढंग से लिखी है. इसको मैंने अपने मित्र के कहने पर एक पुस्तक का रूप दिया था और उसकी कुछ प्रतियां कम्प्यूटर से छपी थीं. सौभाग्य से उसकी softcopy मुझे मिल गयी है. अगर आपकी आज्ञा हो तो मैं इसे धारावाहिक रूप से प्रस्तुत करना चाहता हूँ.

    मनमोहन जी से भी राय चाहिए.

    • Man Mohan Kumar Arya

      यदि आप प्रस्तुत करते हैं तो मुझे इससे प्रसन्ना होगी। अनुमान है कि उन्होंने विभाजन से पूर्व पाकिस्तान प्रवास के अपने अनुभव इसमें दिए होंगे और वह काफी रोचक होंगे। इससे हमें तत्कालीन परिस्थितियों को जानने का एक अवसर मिलेगा। कृपया लेखक महानुभाव का नाम अवगत कराने की कृपा करें। हार्दिक धन्यवाद।

      • विजय कुमार सिंघल

        आप दोनों की आज्ञा सिर माथे। कल से ही इसे प्रस्तुत करना शुरू कर रहा हूँ।

        • Man Mohan Kumar Arya

          हार्दिक धन्यवाद।

    • विजय भाई, मुझे तो इस से बहुत मज़ा आएगा और जानकारी हासिल होगी किओंकि वोह पाकिस्तान से आये थे , इस लिए उन से ज़िआदा कौन हमें उस समय के हालात बता सकता है ? यह इतहास ही है , जो आँखों देखा सच है. इस से बड़ा उपकार कोई है नहीं , कृपा बिसमिल्ला कीजिये .

  • विजय कुमार सिंघल

    आपका यह संस्मरण बहुत प्रभावशाली है ! रोचक तो है ही ! पढ़कर प्रसन्नता हुई.

    • धन्यवाद विजय भाई .

  • Man Mohan Kumar Arya

    बचपन में स्कूल तथा मास्टर जी के घर पर घटी घटनाओं का वर्णन रोचक एवं प्रभावशाली है। पढ़कर आनंद का अनुभव हुआ। धन्यवाद।

    • धन्यवाद मनमोहन भाई .

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