किसान की झोली
मौसम बार बार ले रहा है, बेमौसम की करवट,
रंग बदलने में मार खा रहा है बेचारा गिरगिट,
कभी धूप कभी छाया , कभी ओले भरा तूफ़ान,
अप्रैल के माह में, यह सब देख कर हम हैरान
न सावन की बरखा सी मिटटी में सौंधी खुशबू,
न बारिश में बच्चो को खूब नहाने की जुस्तजू,
बस बिजली कड़कती है और खूब पानी बरसता है,
बेचारा किसान भी इस तूफ़ान के थमने को तरसता है
न कहीं कागज़ की कश्ती है, न हरियाली तीज के झूले,
इस बेमौसम बरसात में, सब अपना काम धंधा भी भूले,
न चलती है असहनीय गर्मी से राहत देती पुरवा की बयार,
इस कुदरत के बेमौसम खेल ने, कितनो को किया बीमार
हे प्रभु , अब इस बेमौसम की बारिश को यहीं थमने दे,
बैसाख की आहट है, अब तो अन्न की फसल पकने दे,
बेचारे किसान का गोदाम भी ‘कनक’ से लबालब भरने दे,
बेचारों की मेहनत के बदले, इनकी झोली ‘कनक’ से भरने दे
—जय प्रकाश भाटिया
बहुत अच्छी सामयिक कविता !