पर्यावरण और सनातन धर्म
जब कोई हमारे धर्म को हिन्दू धर्म कह कर संबोधित करता है तो मुँह का स्वाद कसैला हो जाता है, क्योंकि मैं अपने धर्म को किसी विजातीय शब्द के बदले सनातन शब्द से संबोधित करना ज्यादा उचित समझता हूँ। वस्तुतः यही सही भी है। हमारे धर्म की एक झलक प्रस्तुत है जो मेरे कथन को सिद्ध करने के लिये पर्याप्त है।
हमारा ऋग्वेद हमें बाँटकर खाने को कहता है ! किस प्रकार यह होना है वह अपने आप में आश्चर्य करने वाला है। हम जो अनाज खेतों में पैदा करते है उसका बटवारा निम्न रूप से किया जाना चाहिये । खेत में खड़ी फसल का :-
1, जमीन से चार अंगुल भूमि का,
2, अनाज की बाली के नीचे का पशुओं का,
3, पहले पेड़ की पहली बाली अग्नि की,
4, बाली से गेहूँ अलग करने पर मुट्ठी भर दाना पंछियों का,
5, गेहूँ का आटा बनाने पर मुट्ठी भर आटा चीटियों का, फिर आटा गूथने के बाद
6, चुटकी भर गूंथा आटा मछलियों का,
7, फिर उस आटे की पहली रोटी गौमाता की और
8, पहली थाली घर के बुजुर्गो की और फिर हमारी, तत्पश्चात
9, आखरी रोटी कुत्ते की
ये है हमारा धर्म । और दुनिया हमें पर्यावरण का पाठ पढ़ाती है ! आप स्वयं बताएँ कि क्या किसी अन्य मत में अपने परिवेश की इतनी चिंता की गयी है। जिसे हम आमतौर पर धर्म कहते हैं वह वस्तुतः मत है। मनुष्य जीवन और समाज की व्यवस्था के लिये अलग अलग महीषियों ने अपनी समझ और अपने परिवेश के अनुसार अलग अलग मत प्रतिपादित किये हैं जिन्हें हम भ्रम वश धर्म कहते हैं। जीवन जीने के विभिन्न तरीके तो हो सकते हैं परन्तु सारी मनुष्य जाति का धर्म एक ही है जिसका स्वरूप ऋगवेद की उपरोक्त सूक्ति में नज़र आता है। ईश्वर की दी हुई इस प्रकृति की और इसके अवयवों की जिम्मेदारी मनुष्य पर ही है क्योंकि वही एकमात्र बुद्धि और विवेक वाला प्राणी है। इस प्रकृति के पर्यावरण को न सिर्फ अपने लिये अपित्तु सभी जड़-चेतन के लिये सुयोग्य बनाए रखना मनुष्य का प्रथम कर्तव्य है। यही सनातन अर्थात आदि काल से चला आ रहा धर्म है।
बहुत अच्छा लेख , काश आज भी लोग ऐसा समझने लगें .
बहुत अच्छा लेख. इसी समग्र चिंतन के कारण भारतीय संस्कृति को महान कहा जाता है.