यशोदानंदन-४४
माता अपने ही दिये गए आश्वासन के जाल में उलझ गई थी। देर तक श्रीकृष्ण का मुखमंडल एकटक निहारती रहीं। वहां दृढ़ निश्चय के भाव थे। अपनी भावनाओं पर काबू करते हुए माता ने स्वीकृति दे ही दी –
“मेरे कन्हैया! मेरे श्यामसुन्दर! मेरे नटखट श्रीकृष्ण! मैं तुम्हें रोक नहीं सकती। जाओ, सत्पुरुषों के मार्ग पर स्थिर रहो और जगत का उद्धार करो। समस्त देवता महर्षियों के साथ तुम्हारी रक्षा करें। सभी पर्वत, समुद्र, राजा वरुण, भूलोक, अन्तरिक्ष, पृथ्वी वायु, चराचर प्राणी, समस्त नक्षत्र-ग्रह दिन, रात, प्रभात, संध्या – ये सब के सब मथुरा में तुम्हारी रक्षा और सहायता में तत्पर रहें”
श्रीकृष्ण ने राहत की सांस ली। माता को अपने अंक में भर लिया। मैया ने अपने कन्हैया की आँखें चू्मी, ललाट चूमा, कपोल चूमे, अधर चूमे और स्नेहिल कर-कमलों से पूरे शरीर को सहलाया। रात्रिकालीन भोजन का समय हो चुका था। अपने हाथों से अपने प्यारे शिशु को पेट भर खिलाया। उस रात श्रीकृष्ण कही नहीं गए। माता के अंक में ही निद्रा को प्राप्त हुए।
श्रीकृष्ण के मथुरा-गमन का समाचार जंगल की आग की भांति व्रज के घर-घर पहुंच गया। जहां ग्वाल-बाल आनन्दित थे कि उन्हें स्वर्ण-नगरी मथुरा की शोभा देखने का सुअवसर अपनी आँखों से प्राप्त होगा, व्रज की गोपियां इस हृदय विदारक समाचार से हतप्रभ थीं। राधा ने तो अपनी सारी शक्ति ही खो दी थी। अर्द्धरात्रि में विक्षिप्तों की भांति व्रज में घूम-घूमकर वह श्रीकृष्ण के मथुरा-गमन की सूचना दे रही थी। आँखों से आँसुओं का प्रवाह जारी था। रासलीला के बाद कन्हैया के कहे शब्द उसके कानों में अभी भी गूंज रहे थे –
“राधे! आज से तुम वृन्दावन की स्वामिनी बन गई हो। जहां कही नर-नारियों के मन में विशुद्ध वासनारहित भाव-वृन्दावन होगा, वही राधा होगी, अवश्य होगी। तुम मेरी गुरु हो। मैंने तुमसे बहुत कुछ सीखा है – कभी हर समय बातें करते हुए, तो कभी मौन-व्रत रखकर, कभी हाथों के स्पर्श से, तो कभी आँखों की भाषा से, तुमने जो कुछ मुझे सिखाया है, वह अनुपमेय है। किस प्रकार नारी विधाता के निर्मल प्रेम की वासनारहित, संस्कारशील, रचनात्मक कला कृति है, इसकी मौन दीक्षा तुम्हीं ने मुझे दी है।”
जब वृन्दावन के स्वामी श्रीकृष्ण ही नहीं रहेंगे, तो वह किसकी स्वामिनी रहेगी? इस शरीर में प्राण बचेगा भी क्या? राधा ने किस द्वार पर श्रीकृष्ण को रोकने की गुहार नहीं लगाई? सभी ने लंबा मौन साध रखा था। राधा के प्रश्नों के उत्तर में आंसू के दो बूंद टपका कर सभी पट बंद कर लेते थे। फिर भी गोपियां एकत्रित हो ही गईं। राधा ने एक सखी से पूछा –
“सुना है, श्याम मथुरा जा रहे हैं। शंकित वचनों से कोई आधी रात के समय उस अनागत भविष्य की बात कह गया था। क्या बताऊं? तब से न इन नेत्रों में निद्रा प्रवेश कर रही है और न यह रात्रि आगे जा रही है। यह काली निशा थम-सी गई है। ब्रह्म-मुहूर्त्त में ही अपनी सुरीली ध्वनि से व्रज को जगानेवाले कोयल-पपीहे, जैसे मृत्य को प्राप्त हो गए हों। कुक्कुट भी बांग नहीं दे रहे हैं। चारों ओर सन्नाटे का साम्राज्य है, उदासी का बसेरा है। सुना है, सवेरे ही श्याम उस क्रूर अक्रूर के साथ मथुरा के लिए प्रस्थान करेंगे। कब सवेरा होगा और हम उनके दर्शन करेंगे। हे सखी! क्या श्यामसुन्दर इतने निष्ठुर हो गए हैं, जो हमसे बिना मिले मथुरा जाने की ठान ली? उन्हें निर्दयी कहने की भी यह दुर्बल हृदय अनुमति नहीं देता। परन्तु वे निश्चय ही ऐसे ही निस्संग लग रहे हैं, जैसे जल में कमल के पत्ते।”
सारी गोपियां चिन्तातुर और शोकमग्न थीं। वे ठगी सी अपने-अपने स्थानों पर खड़ी थीं – भीतिचित्र की भांति। मुख सूख गया था। आँखों से बही जलधारा हृदय-प्रदेश तक उमड़ आई थी। कंधों पर शिथिल हाथ धरे वे ऐसी प्रतीत हो रही थीं, मानो दावाग्नि के बाद दग्ध बेलें निढाल होकर सूखे वृक्षों पर पड़ी हों। पर इस तरह निढाल होने से श्रीकृष्ण का मथुरा-गमन रुक तो नहीं सकता था? एक चतुर गोपी ने सुझाव दिया कि हम बलपूर्वक कन्हैया को मथुरा जाने से रोकेंगी। हम सभी मथुरा जानेवाले मार्ग पर अभी से लेट जायेंगी। देखें हमारे श्यामसुन्दर हमारे शरीरों के उपर से रथ हांक कर कैसे मथुरा जाते हैं? दूसरी सखी ने समर्थन करते हुए अपनी ओर से जोड़ा –
“देखो, सखी! यह अंक्रूर कितना निष्ठुर, कितना हृदयहीन है। हमलोग इतने व्यथित हैं और वह हमारे परम प्रिय नन्ददुलारे श्यामसुन्दर को हमसे छीनकर ले जा रहा है। दो बात कहकर हमें धीरज भी नहीं बंधाता, आश्वासन भी नहीं देता। ऐसे क्रूर पुरुष का नाम अक्रूर कैसे रख दिया गया? सखी! ये हमारे श्यामसुन्दर भी कम निष्ठुर नहीं हैं। अरी सखी! हम आधे क्षण के लिए भी प्राणबल्लभ नन्दनन्दन का वियोग सहने में असमर्थ हैं। आज हमारे सबसे बड़े दुर्भाग्य का उदय हुआ है। तभी तो श्यामसुन्दर ने हमें परित्याग करने का निर्णय लिया है। हमारा चित्त विनष्ट और मन व्याकुल है। अब भला उनके बिना उन्हीं की दी हुई अपार विरह-व्यथा का पार हम कैसे पायेंगी? चलो हम स्वयं चलके अपने प्राणप्यारे श्यामसुन्दर को रोकें। कुल के बड़े-बूढ़े और बन्धु-जन हमारा क्या कर लेंगे? वैसे भी इस प्राण को शरीर में रहना नहीं है। आज नहीं तो कल यह पखेरू तो उड़ ही जायेगा। फिर क्यों नहीं इस नश्वर शरीर का अन्त श्यामसुन्दर के रथ के पहियों से कुचल कर हो?”
सभी सखियों ने प्रस्ताव पर सहमति प्रदान की। आँखों से आंसू पोंछते हुए सब चल पड़ीं, गोकुल-मथुरा के मार्ग की ओर। मार्ग की एक-एक अंगुल धरती गोपियों से पट गई। बड़े-बूढ़ों ने उन्हें समझाने की चेष्टा की , परन्तु सब व्यर्थ। गोपियों ने किसी के प्रश्न और अनुरोध का कोई उत्तर ही नहीं दिया। वे इस तरह लेटी रहीं, मानो अचेतावस्था में हों। उन्हें खिसकी हुई ओढ़नी, गिरते हुए आभूषण और ढीले हुए जूड़ों तक का पता नहीं रहा। भगवान के स्वरूप का ध्यान आते ही गोपियों की चित्तवृत्तियां सर्वथा निवृत्त हो गईं, मानो वे समाथिस्थ आत्मा में स्थित हो गई हों।
रोचक !