प्रिय कैसे रूठे तुम
तिमिर भरें जग में
छा गई अमावश काली।
तरू विगलित हुएं
सूखें पत्तें सूखी डाली।।
“प्रिय” कैसे रूठे तुम?
भीगी अश्रुतित चुनर धानी।
मुख मोड़ “श्री” रिक्त किया हृदय
रह गया बस आकार खाली♡
सुवास छीनी हृदय-गुलाब की
क्या करेगा अब वनमाली?
प्रेम विमुख भये “प्रिय”
नृत्य भुली “सोना” निराली।।
हाव-भाव सब प्रीत पर भुलाई
कलम थामी,काव्य चटकाली।।
दीप-दीप जला लिये
बीता भी दी दीवाली।
अब तक बाँट जोंह रही
आने को है मतवाली होली।
“प्रिय कैसे रूठे तुम?
भीगी अश्रुतित चुनर धानी।।
“प्रीति हृदय में काहें छोड़ी?
ले जाते संग अश्रुपानी।
तीक्ष्ण बाण भेद देते हृदय में
ना होती विचलित प्रेम दिवानी।
“प्रिय ये कैसे रूठे तुम??
भीगी अश्रुतित चुनर धानी।
मुख मोड़ “श्री” रिक्त किया हृदय
रह गया बस आकार खाली ♡।
— सोनाश्री
बहुत सुन्दर सृजन आदरणीया सोना जी
मधुर कविता !
“वो जो रूठें यों मनाना चाहिए. जिंदगी से रूठ जाना चाहिए.” यह मैंने नहीं एक शायर ने कहा है.