कविता

बेटी होती क्यूं पराई ??

बहुत लाड दिया
बहुत प्यार किया
अपने आंगन की किलकारी का
बहुत बङा सम्मान किया
नही किया ओझल
कभी अपनी आंखो से
ह्रदय रुपी रुप विशाल किया
जो जो मांगा ,वो वो पाया
अपनी चाहतो को भले दबाया
मगर ख्वाईशों को हमारी
कभी नही दुत्कार किया
बङे नाजुक दौर से
हरपल संभाला
नही कभी कोई विचार किया
लगाकर अपना सबकुछ दांव पर
लाकर मुस्कान अपने स्वभाव पर
जोर शोर और धूमधाम से
उसका तुमने ब्याह किया
यही खत्म नही होती जिम्मेदारी
ये बात भी देखी है तुम्हारी
हर तीज और त्यौहारों पर
खुशियां भेजी ससुराल मे सारी
अपने दायित्वों से बाबुल तुमने
खुद को नही लाचार किया
पर…
आज जब बारी उसकी आई
पल में कर दी तुमने पराई
दुख और तकलीफों से
भले उसकी आंखे भर आई
नही दिख रहे आंसू आज उसके
उठायें थे जिसके तुमने सदके
बेटी होती है पराई
ये आज बात तुमने समझाई
बाबुल ये तेरा निर्णय
मुझे रास नही आ रहा
कल तक जो दिल की धङकन थी
उसे कैसे अलग खुद से करा
नही मानती इस समाज की
उस ओच्छी मानसिकता को
बेटी में भर देता है
ब्याह बाद एक रिक्तता जो
क्या अब मां बाप बदल गये
या वो रिश्ते छिल गये
बेटी आज भी वो नन्हीं कली
तेरे आंगन की खुद को समझती है
जो अपने हक और जिद्द से
कुछ भी कर धमकती है
ये बेटी भी तुम्हारा ही अंश है
मन मे फिर क्यूं कोई दंश है
क्यूं कर रहै हो खुद से जुदा
जिसे कर नही पाया स्वंय खुदा
उसे भी हक दो कर्तव्य निवारण का
अब भी करने दो अपने मन का
क्यूं सामाजिक अङचने लाते हो
उसे क्यूं कर्तव्यों से दूर भगाते हो
क्या बेटी होना सिर्फ जिम्मेदारी है
माफ करना पर ये बात समझ नही आ रही है

*एकता सारदा

नाम - एकता सारदा पता - सूरत (गुजरात) सम्प्रति - स्वतंत्र लेखन प्रकाशित पुस्तकें - अपनी-अपनी धरती , अपना-अपना आसमान , अपने-अपने सपने [email protected]

One thought on “बेटी होती क्यूं पराई ??

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत अच्छी कविता ! बेटी को हम भले ही परे कहते हों, पर उसके लिए हम कभी पराये नहीं होते.

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