ग़ज़ल : बेज़ार नहीं हम
बेज़ार से दिखते हैं गो, बेज़ार नहीं हम,
बस तेरी वफ़ाओं के तलबगार नहीं हम।
आसान था लगता, पर तेरे सामने आकर,
पाया कि रहे क़ाबिले-गुफ़्तार नहीं हम।
मासूम निगाहों का असर देखिये दिल पर,
अपनी ही शिकायत के तरफ़दार नहीं हम।
ये चाहते-शिकवा-ए-तग़ाफ़ुल है भला क्यों,
अब दर्द में इतने भी हैं लाचार नहीं हम।
है ज़हन में, गो उनके, खजीना-ए-अल्फ़ाज़,
ऐ ‘होश’, मगर सुनते हैं हरबार ‘नहीं’ हम।
— मनोज पाण्डेय ‘होश’
वाह वाह ! बहुत खूब !!