आत्मकथा – दो नम्बर का आदमी (कड़ी 37)
एन.टी.टी. की विलक्षण खोजें देखकर ही हमने बस नहीं की, बल्कि अभी और भी चमत्कार देखने थे। उसी का एक हिस्सा है, एन.टी.टी. डाटा फेज, जहाँ डाटा कम्यूनीकेशन का एक नया और विलक्षण सिस्टम तैयार किया गया है। उसको हमें दिखाया कु. एम. ओनो ने, जिसे हम सुविधा के लिए मोनो या ‘मोना’ कह सकते हैं। यह मोना मौसमी से कम सुन्दर थी, परन्तु ज्यादा पढ़ी-लिखी थी। उसने भी डाटा फेज समझाया तथा कुछ ऐसी चीजें दिखायीं जिनका उत्पादन अभी केवल प्रयोग के तौर पर किया जा रहा है। यहाँ हमने कम्प्यूटर संगीत के विलक्षण प्रयोग भी देखे। आप अपना पियानो बनाइये, कम्प्यूटर उसे रिकार्ड करता जायेगा। बाद में उस धुन को कम्प्यूटरीकृत पियानो पर जब चाहो सुन लो। चाहो तो सुधार कर लो।
यहीं हमने एक कम्प्यूटरीकृत संगीत प्रोग्राम भी सुना (मैंने केवल देखा)। इसमें एक माॅडल कई प्रकार से हरकतें करता है तथा बैकग्राउण्ड में संगीत बजता रहता है। काफी प्रभावित करने वाला कार्यक्रम था।
मोना ने भी उसी तरह हमें झुककर विदा दी तथा कुछ कागज-पन्ने भी भेंट में दिये।
यहाँ से हमें अशोका रेस्टोरेन्ट जाना था, जहाँ हमारे रात के खाने का प्रबन्ध किया गया था। श्री हिरानो ने यहाँ मेरा काफी ध्यान रखा। मैं तो केवल रोटी तथा एक सब्जी चाहता था, परन्तु उन्होंने दो सब्जी तथा रायता भी मंगवा लिया। यह होटल जापान के गिने-चुने ऐसे रेस्तराओं में से एक है जहाँ भारतीय खाना मिलता है। मेरे सामने जो मेन्यू लाया गया, वह सारा जापानी में छपा था, अंग्रेजी में एक शब्द भी नहीं। इसलिए वह मेरे लिए काला अक्षर भैंस बराबर था। लेकिन उसमें हर चीज के चित्र भी छपे हुए थे। वहीं एक पन्ने पर मुझे बन्द गोभी की सब्जी का चित्र दिखाई पड़ गया। मैंने उसी पर उँगली रख दी कि यह ले आओ और वह ले आया। मेरे अलावा सबने माँसाहारी भोजन किया था। यहाँ मैंने छककर पानी पिया। एक गिलास सन्तरे का रस भी पिया तथा भारतीय पद्धति की चाय अन्त में मिली, जो कि यहाँ एक बड़ी दुर्लभ वस्तु है।
श्री हिरानो वहाँ से हमें होटल के लिए विदा करके चले गये। मैंने वहाँ से कैमरा खरीदने का प्रयत्न किया, परन्तु जिस दुकान से मुझे खरीदना था, वह बन्द हो चुकी थी। इसलिए हम टैक्सी में बैठ कर वापस आ गये। टैक्सी के पैसे श्री हिरानो दे गये थे। मेरे साथ पाकिस्तान के श्री बट्ट थे।
23.11.1990
यह हमारे घूमने का दूसरा दिन था। श्री हिरानो के निर्देशानुसार हम 8.10 से पहले ही नीचे लाबी में पहुँच गये थे। वे भी समय पर आ गये। वहाँ से हमें निक्की डाटा बेस देखने जाना था। इधर से हम फिर टैक्सी में गये। मैंने कहा था कि अगर वहाँ बस जाती हो तो हम बस में जाने को तैयार हैं, परन्तु वे न माने। निक्की डाटा बेस को ढूँढ़ने में उन्हें थोड़ा समय लगा, परन्तु मिल गया। हम वहाँ गये तो बड़ा स्वागत हुआ। वहाँ के लोग अंग्रेजी कम जानते थे, परन्तु एक-दो आफीसर अच्छी अंग्रेजी जानने वाले मिल ही जाते हैं। उन्हीं में से एक श्री नाओमी आसो ने सबसे पहले हमें निक्की डाटा बेस के बारे में जानकारी दी। काफी प्रभावपूर्ण जानकारी थी।
यह डाटा बेस हमारे यहाँ के टाटा-बिरला की तरह एक धनकुबेर की निजी सम्पत्ति है। इसमें जापान तथा एशिया के कई देशों की हजारों कम्पनियों के बारे में जानकारी भरी रहती है, जो प्रत्येक मिनट सुधारी जाती रहती है। दुनिया भर के नये-नये आर्थिक-राजनैतिक समाचारों, विचारों तथा लेखों का भी इसमें भण्डार रखा जाता है, जिन पर 4000 से अधिक कर्मचारी दिन-रात काम करते हैं। प्रत्येक ग्राहक शुल्क देकर इस सूचना का उपयोग कर सकता है, यानी पढ़ सकता है या नकल कर सकता है, परन्तु बदल नहीं सकता। बड़ी-बड़ी व्यापारिक कम्पनियों के लिये ये सूचनाएँ बहुमूल्य होती हैं, जो उन्हें मामूली खर्च पर सरलता से घर बैठे मिल जाती हैं।
ऐसे डाटा बेस दुनिया में और भी हैं, परन्तु इतना बड़ा कोई नहीं है। भारत में तो ऐसा शायद ही कोई हो। हम काफी प्रभावित हुए। करीब एक घंटे तक सूचनाओं के नमूने दिखाकर हमें विदा किया गया।
वहाँ से हमें लगभग 50 कि.मी. दूर तुकूबा को जाना था, जहाँ एक विज्ञान शहर ही बसाया गया है। भारत में ऐसा शहर बनने की बात एकबार चली थी, परन्तु शायद लालफीताशाही आड़े आ गयी। तुकूबा के लिए वहाँ से ट्रेन जाती है, पैसेन्जर जैसी। मैंने बुलेट ट्रेन का काफी नाम सुना था, परन्तु बैठने का मौका नहीं लग पाया। वह दूर-दूर जाती हैं और हमारे पास इतना समय नहीं था।
यहाँ जापानी रेलों के बारे में बता देना उचित रहेगा। जापान में तीन तरह की रेल हैं- टोकियो शहर की सब-वे रेल (जो जमीन के भीतर चलती हैं), जापान रेलवे तथा बुलेट ट्रेन। टोकियो शहर की यातायात की जिम्मेदारी सब-वे रेलों पर है। पूरे शहर में एक-एक डेढ़-डेढ़ किलोमीटर पर स्टेशन बने हुए हैं, जिनसे होकर करीब 10-12 रूटों पर रेलें चलती हैं। इनमें काफी भीड़ होती है तथा खास-खास समय (पीक आवर्स) पर रेलें दो-दो मिनट में आती रहती हैं। टिकटें प्रायः मशीन से खरीदनी पड़ती हैं। अपना नोट या सिक्के डालिये। जितनी कीमत की टिकट चाहिए उसका बटन दबाइये तथा नीचे टिकट और बचे हुए पैसे आ जायेंगे। अन्दर जाने के लिए या तो अपनी टिकट को टिकट चैकर से पंच कराइये या फिर यह काम मशीन से कराइये।
ये मशीनें ऐसी हैं कि एक ओर अपना टिकट रखिये। अगर वह वैध होगी तो टिकट में गोल छेद होकर आगे से निकल आयेगी और दरवाजा खुल जायेगा। नहीं तो उस टिकट को मशीन जब्त कर लेगी और दरवाजा नहीं खुलेगा।
लौटते समय यह होता है कि टिकट यदि वैध है तो मशीन टिकट रख लेगी और दरवाजा खोल देगी, नहीं तो मशीन टिकट आपको वापस कर देगी और दरवाजा बन्द ही रहेगा। यह लगता तो बड़ा सीधा है पर मेरे खुराफाती दिमाग ने इसमें भी कुछ पेंच ढूँढ़ लिये। मैंने कहा कि यदि कोई वैध टिकट रखे और जब उसके लिए दरवाजा खुले तभी उसके साथ ही कोई दूसरा आदमी भी बाहर निकल जाये तो मशीन क्या कर लेगी, इसका जबाव कोई नहीं दे पाया। इसी तरह भीतर जाने के लिए भी ट्रिक से काम लिया जा सकता है। ऐसे आदमी को पकड़ पाना असंभव होगा, क्योंकि भीतर यानी चलती गाड़ी में कोई चैकिंग नहीं होती। परन्तु यह जापान है, भारत नहीं। यहाँ ऐसी बेईमानी कोई करता नहीं। लोग तो यहाँ इतने ईमानदार हैं कि यदि वे कहीं दूर के स्टेशन से आ रहे हैं तथा टिकट कम पैसों की ली है, तो बाकी पैसे बाहर निकलते समय टिकट चैकर से पूछ कर दे जाते हैं, जिनकी कोई रसीद भी नहीं दी जाती और एक-एक पाई सही जगह जमा हो जाती है।
रेलवे स्टेशन वैसे ही हैं जैसे हमारे यहाँ होते हैं। भीतर दुकानें भी है परन्तु गन्दगी नाम को भी नहीं तथा बैठकर इन्तजार करने के लिए सीटें भी नहीं क्योंकि किसी को इन्तजार करने की जरूरत नहीं। गाड़ियाँ 5-5 मिनट पर एक के बाद एक आती रहती हैं। प्रत्येक में 5-6 ही बड़े-बड़े डिब्बे होते हैं। उतने में जितने आदमी आ जायें, उन्हें लेकर चल देती है। बाकी अगली गाड़ी से आ सकते हैं। ज्यादा भीड़ के समय पर गाड़ियां दो-दो मिनट बाद भी आती रहती हैं, इससे किसी का भी समय बेकार नहीं जाता।
स्टेशन एक-एक, डेढ़-डेढ़ किलोमीटर दूर बने हुए हैं। प्रत्येक स्टेशन पर सैकड़ों लोग चढ़ते उतरते हैं। प्रत्येक डिब्बे में चार-चार पाँच-पाँच दरवाजे होते हैं। जिनको चढ़ना होता है वे दरवाजे के बाहर लाइन लगाकर खड़े रहते हैं, यह आश्चर्यजनक है कि लाइनें ठीक उसी जगह लगती हैं जहाँ दरवाजा आकर रुकता है और दरवाजा ठीक उसी जगह रुकता है जहाँ लाइनें लगती हैं। इसका रहस्य मैं अभी तक नहीं जान पाया हूँ क्योंकि वहाँ ऐसा केाई चिह्न नहीं था, जिससे पता चले कि दरवाजा वहीं आकर खुलेगा। जब मैंने श्री हिरानो से इसका रहस्य पूछा, तो वे केवल मुस्करा दिये।
हाँ तो मैं कह रहा था कि जैसे ही गाड़ी आकर रुकती है दरवाजा अपने आप खुल जाता है और लगभग आधे मिनट तक खुला रहता है। पहले सब उतरने वाले उतरते हैं और जब वे सब उतर जाते हैं तब चढ़ने वाले चढ़ते हैं। किसी के पास ज्यादा सामान होता नहीं। मुश्किल से हाथ में या कन्धे पर लटकाने वाले बैग होते हैं। इसलिए उतरने-चढ़ने में दो कदम चलने जितना समय लगता है। भारत की तरह धक्का-मुक्की बिल्कुल नहीं होती, चाहे भीड़ कितनी भी हो। यहाँ दरवाजे भी कई और बड़े-बड़े होते हैं।
भीतर दीवाल के सहारे कुर्सियाँ बनी होती हैं। उन पर कुछ लोग बैठ जाते हैं, बाकी डण्डा या छल्ला पकड़ कर खड़े रहते हैं। ऊपर सामान रखने के लिए भी जगह होती है। परन्तु उनका उपयोग बहुत कम लोग करते हैं, क्योंकि ज्यादातर लोग एक-दो स्टेशनों के बाद ही उतर जाते हैं और नयी गाड़ी पकड़ते हैं। यहाँ मैंने एक विचित्र बात देखी कि ज्यादातर लोग गाड़ी में लगने वाले समय का सदुपयोग किताबें पढ़कर करते हैं। हालांकि ये किताबें ज्यादातर अखबार, उपन्यास जैसी ही होती हैं। बाकी लोग सो लेते हैं। दो-दो मिनट की रेलयात्रा में सो जाना जापानियों की ही विशेषता है। कई लोग अपना अखबार पढ़ने के बाद गाड़ी में ही छोड़ जाते हैं, ताकि दूसरा कोई पढ़ना चाहे तो पढ़ सके। यहाँ हमारे देश की तरह अखबार रखकर घर ले जाने की परम्परा नहीं है।
(जारी…)
padha
धन्य !
विजय भाई , आज का परसंग भी अच्छा लगा. जापान ने इतनी तबाही के बावजूद इतनी उन्ती की है कि दुनीआं में मिसाल मिलनी मुश्किल है . इंग्लैण्ड में भी बहुत इमानदारी होती थी लेकिन अब उतनी नहीं है किओंकि सारी दुनीआं से लोग यहाँ आ गए हैं और साथ ही अपने देशों का गंद भी यहाँ ले आये हैं . कोई ज़माना था जब दूध वाले के पैसे बाहिर ही रख देते थे किओंकि हम काम पर गए होते थे . कोई पैसे नहीं उठाता था , हा हा अब तो एक दिन मिसज़ ने नकली फूलों का बहुत सुन्दर गमला ला कर दरवाज़े के बाहिर रख दिया , सुबह को गाएब हो चुक्का था .
धन्यवाद, भाई साहब. दुनिया में सभी तरह के लोग होते हैं. पर किसी जगह एक तरह के लोग अधिक हो जाते हैं, तो सबके बारे में वैसी ही धारणा बन जाती है. जापान में अधिकांश लोग कर्मठ और ईमानदार हैं. देशभक्त भी हैं. इसलिए वहां के लोगों की इज्जत बहुत है. भारत के अधिकांश लोग मुफ्तखोर हैं. इसलिए उनके बारे में धारणा उतनी अच्छी नहीं है.
आज की क़िस्त पढ़कर जापान की जिंदगी को जानने का अवसर मिला। धन्यवाद। तुलसीदास जी की एक पंक्ति याद आयी। जहाँ सुमति वहां संपत्ति नाना। जहाँ चरित्र होगा, अनुशासन होगा, वहां सब कुछ होगा, यदि नहीं होगा तो बहुत कुछ तो होगा ही। यह सब चीजें वहां कदापि नहीं हो सकती जहाँ सुमति, चरित्र वा अनुशासन नहीं होता। श्री हिरानो बहुत सज्जन एवं कर्त्यनिष्ठ लगते हैं। काश कि सभी उन जैसे भारत में भी हों। आज की क़िस्त के लिए धन्यवाद।
आभार मान्यवर ! श्री हिरानो वास्तव में बहुत कर्तव्यनिष्ठ थे. जापान में अधिकांश ही नहीं लगभग सभी लोग कर्मठ ही होते हैं. तभी तो अणुबम से तबाह हो जाने के बाद भी वह देश बहुत कम समय में विकसित राष्ट्रों में गिना जाने लगा था. हमारा देश तब तक गाँधी-नेहरु के नाम को ही चाट रहा था.
आपसे सहमत हूँ। मेरे भी ऐसे ही विचार हैं।