अतीत
माँ ने उसे सहारा दे कर कार की पिछली सीट पर बैठा दिया और खुद उसके बगल में बैठ गयी। मुझे गाड़ी चलाने की हिदायत देकर, माँ उसे अपनी बोटल से पानी पिलाने लगी। न जाने क्यूँ आज मुझे माँ की इस बात का विरोध करने का मन कर रहा था। पर मैंने कभी माँ का किसी भी बात का विरोध नहीं किया था शायद इस वजह से मैं चाह कर भी कुछ बोल नहीं पा रहा था। पर मैंने अपना विरोध दर्ज करा दिया था गाड़ी न चला कर जिसे माँ समझ भी गयी थी। सो इस बार माँ ने आवाज़ में थोड़ी सख्ती लेते हुए गाड़ी चलाने को कहा, उनका लहजा आदेशात्मक था जिसकी अवहेलना मै नहीं कर सकता था।
गाड़ी चलाते हुए मैंने बैक मिरर से देखा माँ उसे थर्मस से चाय निकाल कर पिला रही थी। गाड़ी के हिचकोलों से जब उसके होंठों के पास ले जाते हुए कप से चाय छलक कर उसके कपडे पर गिरी जो लगभग चिथड़ों की शक्ल में थे तो वो चिहुंक पड़ी। ठीक उसी वक़्त माँ ने मुझे आराम से गाड़ी ड्राइव करने को कहा। माँ उसके साथ बड़ी आत्मीयता के साथ पेश आ रही थी, खैर ये तो मेरी माँ का स्वभाव ही है। पर न जाने क्यूँ मुझे लग रहा था वो माँ के साथ बैठने में खुद को सहज महसूस नहीं कर रही है।
घर पहुँचते ही माँ ने मुझे वापस मार्केट जाने को कहा। मेरे चुप रहने पर माँ बोली- ‘लड़की क्या तेरे कपडे पहनेगी?’ मै भी क्या करता, कोई रास्ता न देख वापस मार्केट की तरफ रवाना हो गया।
कुछ तो इस वजह से कि मुझे जनाने कपडे खरीदने का कोई अनुभव नहीं था, और कुछ खुन्नस की वजह से मै काफी देर में पहुंचा। खुन्नस इस बात की थी, कि पता नहीं माँ क्यूँ उस भिखारिन को उठा कर घर लाई। उसे घर लाने की क्या जरुरत थी, वही पर उसके हाथ में दस-बीस रुपये रख देने चाहिए थे। और ऊपर से घर लाकर उस के लिए कपडे वगैरा का इंतज़ाम।
घर पहुंचा तो देखा वो मेरा पायजामा और शर्ट पहन कर खाना खा रही थी। उसका चेहरा तमाम फोड़े फुंसियों से भरा था, सर मुक्कमल गंजा था न जाने कौन सी बीमारी से उसके बाल झड गए थे। हाथ-पैर भी कोई त्वचा रोग से पीड़ित थे। कुल मिला कर वो एक बीमारी और गन्दगी का ढेर थी। अगर माँ वहां न होती तो मै उसी वक़्त उसे वहां से रुखसत कर देता।
पर माँ वो तो वही थी। मेरे साथ में थैला देख कर बोली- अरे बहुत देर कर दी, चल उसको दे दो। मैंने वो थैला उसी टेबल पर रख दिया जिस पर बैठ कर वो खाना खा रही थी। एक नज़र मैंने उस पर डाली फिर पलट कर अपने कमरे में चल दिया। अचानक न जाने क्या सोच कर मै पलट कर उसे गौर से देखने लगा। मुझे यूँ लगा जैसे कि वो किसी अच्छे घर से ताल्लुक रखती है, उसका चम्मच और फ्राक से खाना खाने का स्टाइल इस बात की चुगली कर रहा था।
न जाने कहाँ से उस पर माँ की नज़र पड़ गयी थी जब हम अपने एक जानने वाले से मिल कर लौट रहे थे। कुछ लड़के उसे परेशां कर रहे थे शोर-गुल मचाकर और कुछ तो उस पर पत्थर के छोटे टुकड़े भी मार रहे थे। इस रस्ते से कोई चार-पांच दिन पहले भी मै गुजरा था, उस वक़्त वो उस जगह मुझे नज़र नहीं आई थी।
वो खुद को लडको से बचाने का प्रयास कर रही थी पर उसे शरीर पर कंकड़ जा कर टकरा रहे थे। शरीर पर पहले से जख्म होने की वजह से वो दर्द से कभी-कभी चीख पड़ती थी। उसकी इसी चीख़ ने माँ को आकर्षित किया था और उन्होंने मुझे कार रोकने को कहा था।
माँ ने उसके लिए एक कमरा भी व्यवस्थित कर दिया था। न जाने क्यूँ एक बीमार, पागल टाइप भिखारिन के लिए माँ का इतना आत्मीय होना मुझे अखरा। पर मैंने बचपन से माँ के धार्मिक और सदैव दुसरो की सेवा में तत्पर रहने के स्वभाव को जानता था। इसलिए इस बात को मैंने इसी श्रेणी में रखा।
मैंने अंदाजा लगाया था वो जरुर जवान थी और यदि इस हालात में न होती तो कतई तेइस-चौबीस से ज्यादा न थी। माँ ने घर की नौकरानी को उसका विशेष ध्यान रखने को कहा था और अगले दिन खुद उसको लिवा कर उसके लिए दवांए ले आई थी। एक बात और थी, मैंने महसूस किया था वो माँ के सामने आते ही बेहद असहज हो जाती थी। इसका कारण क्या था मै उस वक़्त नहीं जान पाया था।
उसे घर आये दो या तीन दिन हुए होंगे जो मेरी मौसी के बीमार होने की खबर मिली। मेरे मौसा जी तो शादी के एक-डेढ साल बाद ही परलोक सिधार गए थे। मेरी मौसी का एक ही लड़का था सत्रह-अठारह साल का। मौसी, माँ से छोटी है उनकी देख-रेख के लिए माँ को वहां जाना पड़ा। जाते वक़्त माँ ने मुझे सख्त हिदायत दी उस घर लायी लड़की का मै विशेष ध्यान रखूं। जिसे मैंने न चाहते हुए भी एक आज्ञाकारी बेटे की तरह मान लिया। जाते वक़्त माँ ने मुझे उसके क्लिनिक ले जाने का शेड्यूल वगैरा भी समझाया।
उस लड़की की देखभाल मैंने अपने ऊपर एक बोझ समझ कर संभाल ली। शुरू-शुरू में मुझे उसके पास जाने, उससे बात करने में बड़ी कोफ़्त होती। कभी-कभी तो मारे उबकाई के जी बेहाल हो जाता। पर धीरे-धीरे में अभ्यस्त होता चला गया, और मै मन से उसकी देखभाल करने लगा।
मेरी देखभाल या फिर मेरी माँ की परोपकार करने की प्रवत्ति की वजह से वो लड़की बड़ी तेज़ी से स्वस्थ होने लगी। मौसी की बीमारी लम्बी खिंचने की वजह से माँ को वही रुकना पड़ा। वो फ़ोन पर उस लड़की का नियमित हालचाल लेती रहती थी।
उसके शरीर के जख्म बड़ी तेज़ी से भरने लगे थे और उनके नीचे की गोली त्वचा नुमाया होने लगी थी। सर के झाडे बाल उग आये थे और वो इतनी तेज़ी से बढ रहे थे ज्यों किसी जवान लड़की के बढ़ा करते है। उसका चेहरा निखर चला था। और सच पूछो तो उसका चेहरा मुझे ऐसा लगा जिसकी तलाश मै अपनी प्रेमिका या पत्नी के चेहरे में किया करता था। ये बात ओर थी अब तक किसी भी लड़की से मै प्यार के मामले में उलझा नहीं था।
माँ के द्वारा उसे घर में लाने के तक़रीबन दो महीने बाद वो पूर्ण स्वस्थ हो चुकी थी। वो एक बाईस-तैईस साल की छरहरे बदन की गोरी रंगत लिए एक ऐसी लड़की थी, जिसकी सुन्दरता, नैन नक्स और फिगर का कोई भी दीवाना हो सकता था।
मेरी उम्र भी लगभग बीस साल रही होगी शायद उससे दो-तीन साल मै छोटा ही रहा होऊंगा। मुझे इंटर करने के बाद ही बैंक में क्लर्क का जॉब मिल गया था और मै इससे खुश भी था माँ के पास इकठ्ठी पूंजी से एक नया घर बनवा लिया था और फाइनेंस से एक ऑल्टो गाड़ी भी ले ली थी। पिता जी का स्वर्गवास हो चूका था पर उसकी पेंशन माँ के नाम आती थी। य़ू आर्थिक रूप से कोई भी समस्या नहीं थी। उपर से मै और माँ दो लोगों का ही परिवार था। माँ ने घर के कामकाज के लिए एक नौकरानी रख छोड़ी थी।
उस शाम जब मै यू ही रोज़ की तरह घर से बाहर बेमकसद टहलने जा रहा था तो उसने मेरा नाम ले कर मुझे आवाज़ दी। उसने पहली बार पिछले दो महीनो में मेरा नाम लिया था। उसने कहा ऋषि- जरा रुक जाईये, मै चाय बनाती हूँ पीकर जाओ।
उसके होठों से मेरा नाम सुनकर मुझे यूँ लगा जैसे मेरे ह्रदय के तारो में सरगम बज पड़ी हो। ठीक उसी वक़्त मैंने भी उसका नाम पहली दफा लिया था। ‘ठीक है अस्मिता ‘- उसका ये नाम मुझे घर की नौकरानी ने बताया था।
यूँ एक सिलसिला चल पड़ा साथ शाम चाय का, साथ-साथ बाहर जाकर बेमकसद टहलने का। हम काफी नजदीक आने लगे थे या यूँ कहो एक-दुसरे के दोस्त बन चले थे उसके बोलचाल के ढंग से मै समझ गया था वो तालीमयाफ्ता लड़की है। पर फिर भी मैंने उसके अतीत को कभी कुरेदा नहीं था।
फिर वो शाम आई जब मैंने उसे प्रोपोस किया। उस दिन चाय पीने के बाद जब वो कप लेकर किचन की तरफ जा रही थी तो मैंने पीछे से उसकी बांह पकड़ कर रोक लिया। उसने सवालिया निगाहों से मेरी तरफ देखा। उस वक़्त उन गहरी काली आखों में मुझे खौफ की परछाई नज़र आई। इस खौफ को मै बखूबी समझ सकता था। निश्चय ही ये खौफ उसके साथ होने वाले बलात्कार की आशंका का था। पर उसका ये खौफ उस वक़्त अचरज में तब्दील हो गया जब मैंने उसके चेहरे के नज़दीक अपने चेहरे को लाकर कहा।
अस्मिता – मै तुमसे मोहब्बत करने लगा हूँ। मै चाहता हूँ तुम इस घर में अब मेरी महबूबा और शरीके हयात की हैसियत से रहो।
कुछ लम्हे वो मुक्कमल खामोश रही फिर मेरे हाथ से अपनी बांह छुडाते हुए बोली- ‘ये मुमकिन नहीं ऋषि।’ इतना कह कर वो किचन की तरफ चल दी।
मै भी उसके पीछे चलते हुए बोला- ‘नामुमकिन की वजह क्या है अस्मिता, क्या मै तुम्हारे काबिल नहीं?’
मुझे यूँ लगा जैसे उसने मेरी बात नहीं सुनी और वो चुपचाप चलती हुई किचन की तरफ आ गयी। उस वक़्त जब वो वाशबेसिन में चाय के झूठे बर्तन रख रही थी तब मैंने उसे कंधे से पकड़ कर तेज़ी से अपनी तरफ घुमा लिया वो नज़रे झुक कर कड़ी हो गयी मैंने कहा- ‘अस्मिता, तुमने मेरी बात का जवाब नहीं दिया।’
अपने दाये हाथ से मेरे बांये गाल को सहलाते हुए अस्मिता बोली- ‘ऋषि, मुझे मोहब्बत करने की इजाज़त मेरा अतीत नहीं देता।’
‘मुझे अतीत से कोई सरोकार नहीं।’ -मैंने अपने हाथ से उसकी कोमल हथेली को अपने गाल पर दबाते हुए बोला।
‘नहीं ऋषि मेरे अतीत से तुम्हारा ही सरोकार है।’ वो मेरे हाथ से अपना हाथ जुदा करते हुए बोल रही थी, ‘तुम्हे विनीत याद है क्या?’
विनीत! मुझे झटके से उसकी याद आ गयी। मेरे फूफा का लड़का, मुझसे कोई पांच साल बड़ा, मेरे घर पर रह कर पढाई करता था, मेरी माँ के साथ। उस वक़्त में अपने पापा के साथ रहता था जो वायुसेना में थे और मै क्लास ऐट पास करने के बाद उन्ही के साथ रह कर पढता था। घर तो बस गर्मियों की छुट्टियों में ही आता था।
मुझे याद आया जब मै बैंक में जॉइनिंग के लिए फिरोजाबाद में था उस वक़्त विनीत भईया ने हमारे घर में ही फांसी लगा कर खुदखुशी कर ली थी। मुझे खबर देर से मिली सो मै घर न पहुँच सका था। बाद मै मेरे दोस्त ने बताया था वो किसी लड़की को बहुत प्यार करते थे। पहले वो लड़की भी उन्हें चाहती थी, पर अचानक लड़की के अंदर महत्वकांक्षायें पैदा हो गयी। वो सुंदर तो थी ही बस क्षेत्रिय विधायक के प्रेमपाश में बंधती चली गयी। उसके साथ गाड़ी में टहलना, गिफ्ट लेना और पार्टियों में वो अक्सर जाने लगी।
एक दिन जब भैया बाज़ार से उसे उसके मिनी स्कर्ट पहन कर घुमने पर समझाने लगे तो उसने सबके सामने भैया को एक थप्पड़ मार दिया। बस भैया यह अपमान सह न सके और उन्होंने उसी रात दुनिया छोड़ दी।
कुछ दिन बाद जब उसी घर में मेरे पापा की हृदय आघात से म्रत्यु हो गयी तो माँ के कहने पर वो घर बेचकर हम इस नए शहर में आ गए। जहाँ मेरा जॉब था। उस वक़्त जब मैंने उस लड़की से मिलने की कोशिश की तो मेरे दोस्त ने बताया वो लड़की विधायक के साथ शादी से पहले ही हनीमून मनाने शिमला चली गयी है। मैंने भी उससे मिलने का विचार छोड़ दिया, आखिर मिल के होता भी क्या।
मै अस्मिता के उसी तरह कंधे पकडे हुए बोला, ‘विनीत भैया की मौत से तुम्हारा क्या सम्बन्ध है?’
और उस वक़्त उसकी नज़रे नीचे ज़मीन को देख रही थी जब उसने कहा- ‘ऋषि, वो लड़की मै ही हूँ।’
यूँ लगा जैसे मेरे सर पर क्लस्टर बम गिरा हो और मै अपने अरमानों सहित ज़मीदोज़ हो गया होऊं। मैंने तुरंत उसके कन्धों को अपने हाथों की गिरफ्त से अज्जाद कर दिया और बिना एक वहां रुके ड्राईंग रूम में आ के बैठ गया। मै समझ गया था कि अस्मिता माँ के सामने क्यूँ असहज रहती थी। क्यूँ की वो माँ को पहचान गयी थी, पर शायद माँ उसकी दयनीय हालत देख कर उसे पहचान नहीं पाई थी।
वो अस्मिता ही थी जो मेरे पांव के करीब आकर बैठ गयी थी। मैंने अपने पांव खीच लिए थे, और उसे देख कर अपनी आँखे बंद कर ली थी।
मेरी इस बेरुखी पर उसने मुर्दा लहजे में कहा था- ‘ऋषि, मैंने तो पहले ही कहा था मेरा अतीत मेरी ज़िल्लत के सिवा कुछ नहीं है।’
मैंने उसकी बात का सिर्फ इतना जवाब दिया- ‘अस्मिता मैंने तुम्हे प्यार किया पर तुम विनीत भैया की मौत की ज़िम्मेदार हो। जानती हो वो मेरे बुआ-फूफा के इक्लॊते बेटे थे।’
उसने ज़मीन पर आगे खिसक कर वापस मेरे पांव के करीब आई इस बार मैंने पैर खिचे नहीं थे। वो यूँही मेरे क़दमों के पास ज़मीन में बैठे हुए बोली- ‘ऋषि, हां में विनीत की कातिल हूँ, मेरे किये हुए अपमान ने उसकी जान ले ली। मेरी आखों पर विधायेक के पैसों की रंगीनी चढ़ी थी। वो शिमला में मुझे हर रात भोगता रहा, एक साल में तीन-तीन अबार्शन हुए मेरे। पत्नी की जगह उसने रखैल बना कर रखा मुझे। और फिर उस रात जब वो मुझे अपने दुसरे विधायेक दोस्त को परोसने की बात कर रहा था, तो मै मौका देख कर भाग निकली। विधायक के आदमी मुझे ढूंढ रहे थे मै उनसे बचती फिर रही थी, तभी और मनचले मुझे अपनी हवस से रौदना चाहते थे। घर वापस नहीं जा सकती थी, बस उनसे बचने के लिए भिखारिन का गन्दा रूप रख लिया। और फिर उस हालत में पहुँच गयी जब आप और आपकी माँ मुझे अपनी पनाह में ले आये। और मै मनचलों से बचने के लिए आपकी मा को पहचानते हुए भी आपके घर आ गयी।’
उसके आँखों से बहते हुए नमकीन पानी ने मेरे पांव को गीला कर दिया था। मुझे चुप देख कर वो कमरे में गयी, जब वापस आई तो उसके हाथ में एक बैग था। मेरे पास रुक कर बोली- ‘ऋषि,मै तन ढ़कने के लिए आपके दिए कुछ कपडे लेकर कर जा रही हूँ।’ मै अब भी खामोश रहा।
वो धीमे-धीमे चल कर दरवाज़े पर पहुँच गयी थी\ दरवाज़ा खोल पर वो बाहर न निकली। मैंने नज़रे उठा कर देखा तो दरवाज़े के उस तरफ माँ खड़ी थी।
माँ को आया देख कर मै उठ कर खड़ा हो गया। मेरी तरफ देखते हुए माँ ने अस्मिता से कहा- ‘कहाँ जा रही हो अस्मिता?’
उसने कोई जवाब नहीं दिया। माँ ने अंदर आके दरवाज़ा बंद कर दिया। अस्मिता को मेरे बगल में सोफे पर बैठाते हुए वो बोली- ‘मै तुम्हे उसी दिन पहचान गयी थी बेटी जिस दिन तुम मुझे मिली थी। मै तुम्हे घर लायी ही इसलिए थी कि तुम यहाँ रह सको।’
‘नहीं माँ जी मेरा अतीत बहुत घिनौना है। वो मुझे यहाँ रहने न देगा।’
‘देखो अस्मिता जो अतीत से सीख लेकर सुधर जाते है उनका वर्तमान और भविष्य दोनों सुधर जाते है। मुझे उम्मीद है तुम अपना अतीत भुला कर आगे कदम बढ़ोगी।’ माँ ने अस्मिता को समझाते हुए कहा।
इतना कह कर माँ उठकर अपने कमरे में चल दी, फिर रुक कर बोली – ‘मुझे लगता है तुमने अपना अतीत ऋषि को बता दिया होगा, अगर वो इजाजत दे तो मेरे लिए चाय बना कर ले आना।’ – इतना कह कर माँ अपने कमरे में चली गयी।
अस्मिता खड़ी थी, मैंने उठ कर उसकी तरफ अपनी दोनों बांहे फैला दी और वो अतीत से भविष्य की तरफ भागती हुई मेरी बांहों में समा गयी।
— सुधीर मौर्य
बहुत अच्छी और प्रेरक कहानी !