ग़ज़ल
जब मुकद्दर आजमाना आ गया
वक़्त भी अपना सुहाना आ गया
झूमती हैं डालियाँ गुलशन सजे
ये समां भी कातिलाना आ गया
ठूंठ की इन बस्तियों को देखिये
शामे गम महफ़िल सजाना आ गया
आदमी भी राम से रावण बने
आग में खुद को जलाना आ गया
दर्द जब अपनी हवेली के मरे
रफ्ता रफ्ता मुस्कुराना आ गया
भागते हैं लोग अंधी दौड़ में
मार औरों को गिराना आ गया
जालिमों के हाथ में हथियार हैं
खौफ़ो वहशत का ज़माना आ गया
मौत से अब डर नहीं लगता मुझे
जिंदगी को गुनगुनाना आ गया
— शशि पुरवार
बहुत शानदार ग़ज़ल !
मजेदार ग़ज़ल .