गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

जब  मुकद्दर आजमाना आ गया
वक़्त भी अपना सुहाना आ गया

झूमती हैं डालियाँ गुलशन सजे
ये समां भी कातिलाना आ गया

ठूंठ की इन बस्तियों को देखिये
शामे गम महफ़िल सजाना आ गया

आदमी भी राम से रावण बने
आग में खुद को जलाना आ गया

दर्द जब अपनी हवेली के मरे
रफ्ता रफ्ता मुस्कुराना आ गया

भागते हैं लोग अंधी दौड़ में
मार औरों को गिराना आ गया

जालिमों के हाथ में हथियार हैं
खौफ़ो वहशत का ज़माना आ गया

मौत से अब डर नहीं लगता मुझे
जिंदगी को गुनगुनाना आ गया

शशि पुरवार

2 thoughts on “ग़ज़ल

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत शानदार ग़ज़ल !

  • मजेदार ग़ज़ल .

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