गीत – पंख अभीतक उग ना पाये
व्यस्क हो गई पाखी लेकिन
पंख अभीतक उग ना पाये
डाल पड़ोसी लगी चिढ़ाने
पत्ते सारे टोक रहे हैं
दूर लगे छोटी सी दूरी
सपने निज पग रोक रहे हैं
आवाजें कलकल झरनों की
हूक हृदय में बहुत उठाये
उपवन खुशबू से आमंत्रण
रोज-रोज ही भिजवाते हैं
मजबूरी को नहीं समझते
क्रोधित होकर सो जाते हैं
खुद को समझाने में असफल
औरों को कैसे समझाये
सिमटी दीखे भोर सुहानी
संध्या भी कैदी लगती है
चहचहाहटों की महफिल भी
साजिश ही करती लगती है
क्या सर्दी, क्या गर्मी, सावन
अब कोई मौसम ना भाये
वाह वाह !