गीत/नवगीत

गीत – पंख अभीतक उग ना पाये

व्यस्क हो गई पाखी लेकिन

पंख अभीतक उग ना पाये

 

डाल पड़ोसी लगी चिढ़ाने

पत्ते सारे टोक रहे हैं

दूर लगे छोटी सी दूरी

सपने निज पग रोक रहे हैं

आवाजें कलकल झरनों की

हूक हृदय में बहुत उठाये

 

उपवन खुशबू से आमंत्रण

रोज-रोज ही भिजवाते हैं

मजबूरी को नहीं समझते

क्रोधित होकर सो जाते हैं

खुद को समझाने में असफल

औरों को कैसे समझाये

 

सिमटी दीखे भोर सुहानी

संध्या भी कैदी लगती है

चहचहाहटों की महफिल भी

साजिश ही करती लगती है

क्या सर्दी, क्या गर्मी, सावन

अब कोई मौसम ना भाये

—  कुमार गौरव अजीतेन्दु

*कुमार गौरव अजीतेन्दु

शिक्षा - स्नातक, कार्यक्षेत्र - स्वतंत्र लेखन, साहित्य लिखने-पढने में रुचि, एक एकल हाइकु संकलन "मुक्त उड़ान", चार संयुक्त कविता संकलन "पावनी, त्रिसुगंधि, काव्यशाला व काव्यसुगंध" तथा एक संयुक्त लघुकथा संकलन "सृजन सागर" प्रकाशित, इसके अलावा नियमित रूप से विभिन्न प्रिंट और अंतरजाल पत्र-पत्रिकाओंपर रचनाओं का प्रकाशन

One thought on “गीत – पंख अभीतक उग ना पाये

  • विजय कुमार सिंघल

    वाह वाह !

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