लघु कथा : रण बाँकुरा
अगले दिन दीपावली थी लेकिन छावनी में कहीं भी चहल-पहल नहीं थी । 1987 में मेरे पति भी भारतीय शान्ति रक्षक सेना (IPKF) में थे ।पूरी पलटन श्री लंका में थी। यही सोचते हुए मासिक परीक्षा की उत्तर पुस्तिकाएं जाँच रही थी कि दरवाजे पर दस्तक हुई।
घड़ी रात के 11 बजा रही थी। एक अजीब सी आशंका मन मे हुई और मैंने काँपते हाथों से दरवाजा खोला। सामने नायक सुरेन्द्र की डूबती हुई आवाज़ ने अनहोनी का संकेत दिया। “सूबेदार ओमप्रकाश साहब… पलटन से आपके लिए जीप…” इससे आगे न सुन सकी, झटपट सीढ़ियां उतरकर जीप में बैठ गई।
सूबेदार साहब के घर के सामने लोगों का ताँता लगा था। अन्दर से चीखपुकार कीआवाजें आ रही थीं । अन्दर जाकर जो दृश्य देखा तो कलेजा मुँह को आगया । सिलाई मशीन पर स्वर्णा का फुलकारी वाला अधसिला जोड़ा रखा था। उसे यकीन ही नहीं हो रहा था कि सुर्ख जोड़ा लाने वाला उसका रखवाला जा चुका था ।
“मैडम, आपने तो कहा था कि किसी को कुछ भी नहीं होगा,” सूबेदार साहब ने परसों ही तो कहा था- “साहब की फिक न करें, पहली गोली मुझे लगेगी, उसके बाद ही साहब को कोई छू सकेगा ”
मैं कुछ नहीं कह सकी । आँखों से अविरल अश्रुधार बह रही थी । कोई कह रहा था- “सूबेदार साहब ने अपने बारह जवानों की जान बचाने के लिए माइन पर से तब तक पैर नहीं हटाया जब तक सब दूर नहीं हो गए।”
चीखने की आवाजे अभी भी आ रही थीं फौजी कार्यवाई हो रही थी अपने साथियों को बचाते हुए एक जिम्मेदार पिता, पति, मित्र व देशभक्त देश पर बलिदान हो गया था। वह रण बाँकुरा था।