संस्मरण

मेरी कहानी-19

बहुत दिनों से भारत के किसानों की ख़ुदक़शियों के बारे में पढ़ और टीवी पर देख रहा हूँ, जिससे मेरा मन बहुत दुखी है। आज एक किसान ने वृक्ष पर चढ़ कर अपने आपको फांसी लगा ली वोह भी इतने लोगों के सामने ,इससे भी ज़्यादा दुःख कुछ दिन हुए एक किसान को महज़ तीस पैंतीस हज़ार रूपए की खातिर अपने दोनों बेटों को बेचना पड़ा, सुनकर हुआ । सारे देशवासिओं को भूख से बचाने वाला अन्नदाता खुद भूखा मर रहा है और आत्महत्या करने पर मजबूर है । एक किसान दिन रात कितनी मशक्कत करता है , घर के सभी सदस्य साथ देते हैं। बीज बो दिए जाते हैं , फसल तैयार होने को होती है जिससे एक आशा की किरण दिखाई देने लगती है, जब अचानक बारिश और आंधी सब स्वाहा कर देती है , तो जब उसकी यह सब देख कर हालत होती है उस को मुझसे ज़्यादा कौन समझ सकता है, क्योंकि मैंने भी दादा जी के साथ खेती की है।

मेरे दादा जी मेरे पैदा होने से पहले खेती किया करते थे लेकिन बाद में मेरे पिताजी ने अफ्रीका जाने के बाद दादा जी से खेती छुड़वा दी थी। इस लिए सारी जमीन जो दो जगह पर होती थी, दो किसानों को दे दी थी। वोह किसान हमारी जमीन में खेती करते थे और फसल होने पर सब आधा आधा बांट लेते थे। दादा जी इस से संतुष्ट नहीं थे, उन का कहना था कि यह लोग खेतों को अच्छी तरह रखते नहीं थे और घास जड़ी बूटिओं आदि को खेतों से निकालते नहीं थे, जिससे खेत खराब हो गए थे। फिर एक दिन उन्होंने फैसला कर लिया कि वे खुद खेती करेंगे। जब पिता जी को अफ्रीका में पता चला तो उन्होंने दादा जी को खत लिखा कि वे खेती न करें क्योंकि लोग बातें करेंगे कि बेटा अफ्रीका में है और बाप खेतों में पसीना बहा रहा है। दादा जी भी ज़िद्दी स्वभाव के थे, उन्होंने काम शुरू कर दिया।

सबसे पहले उन्होंने दो बैल खरीदे। फिर खेती में काम आने वाले हल बनाये, क्योंकि वोह खुद कारपेंटर भी थे। उन्होंने एक छकड़ा बनाना शुरू किया। सबसे पहले दो बड़े बृक्षों को काट कर उन पर निशान लगाए और उन बड़ी बड़ी लकड़ीओं को किसी और के छकड़े पर लाद कर शहर ले गए और उन लकड़ियों को एक लकड़ मिल में चिरवाया गिया। घर ला कर दिन रात मेहनत करके एक सुन्दर छकड़ा और नए पहिए बनाये। दादा जी ने हल चलाना शुरू कर दिया। मैं भी स्कूल से फारग हो कर दादा जी के साथ काम करवाता। था तो मैं अभी बहुत छोटा लेकिन गाँव में सभी लड़के ऐसे ही काम करते थे। दादा जी ने मुझे हल चलाना मना कर दिया था क्योंकि उन का विचार था की हल चलाने से बच्चों की टाँगे टेहड़ी हो जाती थी। हल को छोड़ कर मैंने सब काम किये। यह नहीं कि मुझे कोई मजबूरी थी, मैं खुद ही खेती का काम करना बहुत पसंद करता था।

खेतों में हम गेंहूँ, चने, मसूर, कुछ और दालें, मक्की, बाजरा, ज्वारी, गन्ने , बासमती, कपास और कुछ सब्जिआं जैसे करेले फूल गोभी, बंद गोभी, बैंगन, प्याज़ जो साल भर के लिए उगाते थे और ख़रबूज़े तरबूज जिस को पंजाब में हदवाने बोलते हैं, कद्दू , टमाटर और लौकी। और भी बहुत कुछ बीजते थे जैसे मुलीआं गाजरां और सरसों का साग तो सारा साल ही खत्म नहीं होता था। इतनी सब्ज़ियाँ हम खा तो सकते नहीं थे , इसलिए कुछ लोग जो साइकलों पर सब्जिआं बेचने जाते थे हमसे सस्ते भाव में ले जाते थे जिससे उनकी भी रोज़ी रोटी चल जाती थी। इसमें एक बात तो मज़ेदार होती थी कि अपने खेतों से ताज़ी मुलीआं गाज़रां खरबूजे खाने का मज़ा ही कुछ और होता था क्योंकि उस समय सब कुछ ऑर्गैनिक ही होता था यहां तक कि कुंए का पानी भी ऐसा होता था जैसे फिल्टर हुआ हो।

इतना कुछ हम उगाते थे , यह कहने सुनने को तो बहुत आसान लगता है लेकिन जो इस काम में मेहनत होती है उस को लफ़्ज़ों में दर्शाना अत्यंत कठिन है। एक एक बात को लिखने लगूँ तो बहुत अध्याय लिखने पड़ेंगे लेकिन एक उदाहरण ही दूंगा। जिस खेत में हल चलाना हो दादा जी सुबह मुंह अँधेरे में ही बल्दों (बैलों) को ले कर चले जाते थे और जब तक मैं स्कूल जाने से पहले रोटी देने जाता उन्होंने आधा खेत खत्म कर लिया होता। खेत के किनारे बैठ कर मैं दादा जी का इंतज़ार करता। कुछ देर बाद दादा जी बल्दों को हाथ से उन की पीठ पर शाबाशी देते और मेरी ओर आने लगते। पहले मैं पानी से दादा जी के हाथ धुलवाता और मक्की की रोटीआं, साग या सब्ज़ी, दही, माखन और हरी मिर्च या आम का अचार देता। दादा जी खाने लगते और मैं एक ग्लास लस्सी का भरके भी दे देता। बहुत दफा दादा जी साग को कौली से निकाल कर रोटी के ऊपर ही रख लेते। इस तरह रोटी खाने का मज़ा कुछ हटकर ही होता था। मक्की की रोटी एक प्लेट जैसी ही होती थी जिस के बारे में एक जोक भी प्रचलित थी कि एक दफा एक अँगरेज़ किसी गाँव में गिया, उस को भूख लगी हुई थी, उसने किसी किसान को कुछ खाने के लिए कहा , किसान एक मक्की की रोटी पर साग रखकर ले आया, अँगरेज़ ने साग खा लिया और किसान को रोटी वापिस करते हुए बोला, “लो मैन अपनी प्लेट।”

दादा जी के रोटी खाने के बाद मैं घर वापिस आ कर स्कूल चले जाता लेकिन दादा जी हल चलाते रहते और गर्मी बढ़ने तक सारा खेत खत्म कर देते। इस के बाद वोह मशीन से चारा जिस को पट्ठे बोलते थे और इसमें हरा और सुखा मिक्स होता था कुतरते और बल्दों के आगे उनकी खुरली में दो टोकरे भर कर डाल देते। बल्द खाने लगते जिस से दादा जी को तसल्ली का अनुभव हो जाता और वोह खुद भी आम के वृक्ष के नीचे चारपाई पर लेट जाते। इस चारपाई पर कोई कपडा नहीं होता था। गाँव के सभी लोग इस तरह चारपाई पर सोने के आदी थे और बहुत दफा तो गर्मिओं के दिनों में बगैर कमीज के ही लोग लेट जाते थे जिस से जब वोह उठते तो उन की पीठ पर चारपाई की रसिओं के निशान पड़ जाते थे।

स्कूल के बाद रोटी खाकर मैं भी सीधा खेतों में चला जाता और दादा जी की मदद करता। यह मदद मौसम के मुताबक ही होती थी। जब गेंहूँ का मौसम होता तो खेतों को पानी देना होता था। कुएं से पानी निकालने के लिए बल्द काम आते थे जो एक लकड़ी को बंधे रस्से को गोल दायरे में खींच कर चलते रहते थे जिससे कूंएं से पानी निकल कर एक पॉर्शे में गिरता रहता था और वोह पानी आगे एक गड़े में गिरता था जिस को चलह कहते थे , इस के आगे वोह पानी छोटी नाली में बहता हुआ खेत को जाता था। खेत कई हिस्सों में बांटा हुआ होता था जिस को क्यारे बोलते थे। जब एक क्यारा भर जाता तो उस का मुंह मट्टी से बंद करके दूसरे क्यारे को पानी छोड़ दिया जाता था। इस तरह सारा खेत भर जाता था।

कुएं से पानी खींचते हुए बल्दों के पीछे भी एक आदमी पीछे पीछे घूमता रहता था वरना वोह थककर खड़े हो जाते थे। उस लकड़ी के ऊपर एक सीट सी बनी हुई होती थी जिस पर वोह आदमी भी कई दफा थक कर बैठ जाता था। इन कुओं के जो गियर होते थे उस के साथ एक छोटा सा लीवर लगा होता था जो लगातार गीयरों के दांतों पर लग कर टिक टिक की आवाज़ देता रहता था, जिस को कुत्ता कहते थे पता नहीं क्यों, यह इस लिए होता था की कुँआ खड़ा होने पर पानी के भार से पीछे की ओर ना घूम जाए। एक फायदा यह होता था कि इस टिक टिक से लोगों को सुबह सुबह पता चल जाता था कि कुआं चल रहा था और कुछ लोग जो खेतों में जंगल पानी जाते थे साबुन तौलिआ भी साथ ले जाते थे और कुएं के चलहे में बैठ कर स्नान भी कर लेते और साथ साथ पाठ भी करते रहते। हमारे यह खेत तो गाँव के साथ ही थे और नज़दीक होने की वजह से हम जाते ही रहते थे।

खेतों का वातावरण बहुत सुहावना होता था, सरसों के फूलों से हर तरफ बसंत का सुन्दर नज़ारा देखने को मिलता था। जब जी चाहा खेत से मूली उखेड़ ली, जब चाहा गाजरें उखेड़ ली और जब जीअ चाहा दरान्ती से गन्ना काट कर चूसना शुरू कर दिया। लोग आते जाते रहते, उनसे बातें होती रहती और कभी कभी किसी के खेतों में गुड़ बनने की खुशबू आती रहती और हम उधर ही चले जाते और वोह किसान हमें ताज़ा ताज़ा गर्म गर्म गुड खाने को देते जिस का मज़ा ही बताना असंभव होता। इस स्वर्गीय नज़ारे के पीछे एक कड़ी मिहनत और बहाया हुआ पसीना होता जिसका फल कितना मिलेगा इसकी आशा करना इतना आसान ना होता। आज जब वैसाखी का मौसम लोग मना रहे हैं तो कितने किसानों का मन खुश हुआ होगा और कितने निराशा में डूब गए होंगे , यह जानना बहुत कठिन है।

चलता ……

7 thoughts on “मेरी कहानी-19

  • bahut achha kaha …………kai yadein to judi hain ham sabhi ki……….lekin bahut durbhagyapurn yahi hai….. ki kisaan jo hamara aandata hai…..use hi do vaqt ki roti jutana mushkil ho raha hai …rajneta samvedanheenta ki limits cross karke rajneeti ki rotiyan senk rahe hai n kisaan bhokhon mar rahe hain……atmhatya karne par mazboor ho rahe hain.!!

    • अनु जी , सही कहा आप ने . किसान कर्जों के बोझ के नीचे कुचले जा रहे हैं . राजनेता राजनीतक रोटीआं सेंक रहे हैं . अगर किसी को दस हज़ार रूपए मिले भी तो चैक बाऊंस हो जाता है . किसी देश की उन्ती बड़ी बड़ी कोठिओं में रहने वाले लोगों से नहीं होती , उन्ती होती है जब गरीब वर्ग पेट भर कर रोटी खा सके . मैं जानता हूँ सभी लोग अमीर नहीं हो सकते लेकिन जब गरीब खुदकशी करने को मजबूर हो जाएँ तो वोह उन्ती नहीं कहला सकती , कहीं कुछ गलत हो रहा है.

  • Man Mohan Kumar Arya

    नमस्ते श्री गुरमेल सिंह जी। आपके संस्मरण पढ़कर अपनी पुरानी यादें भी ताजा हो जाती हैं। हमारी माता जी भी देहरादून से २० किलोमीटर की दूरी पर स्थित डोईवाला गाँव की रहने वाली थी। बचपन में हम गर्मी की छुट्टियों में माताजी और तीन बहनों के साथ नानी, मामा और मौसी के यहाँ जाते थे और उनके खेतो में खूब घूमते थे। जुलाई में हमारे स्कूल खुलते थे तो हमें लौटना पड़ता था तब हमारा मन आने का नहीं होता था। गाँव में हमने भी घर के मक्की के आंटे और घर के सरसों के तेल में बनी हुई अपने खेत की लौकी की सब्जी का स्वाद लेकर जी भर कर भोजन का सेवन किया है और बासमती के चावल भी खूब स्वाद लेकर खाएं हैं और तृप्त हुए हैं। अब खाने में वो स्वाद नहीं आता। पहले भोजन चूल्हे में बनता था और अब एलपीजी रसोई गैस में। किसान आत्म हत्या कर रहें हैं यह दुःख और भारत के लिए लज्जा की बात है। क्या १२५ करोड़ और टाटा, बिरला, अम्बानी और करोड़पति राजनेताओं और क्रिकेटरों का देश अपने इन किसान भाइयों का दुःख दर्द नहीं बाँट सकता? इस आधुनिक जीवन ने मानवीय संवेदनाओं को समाप्त कर दिया है। महर्षि दयानंद जी ने किसान को राजाओं का राजा कहा है। आज इन राजाओं के राजा के भाग्य विधाता हमारे राजनेता हैं जो केवल राजनीति ही करते हैं। किसानों की उन्हें शायद ही कुछ परवाह हो। आपका हार्दिक धन्यवाद।

    • मनमोहन भाई , हम सब गाँव के रहने वाले थे और हम ने यह सब काम इतनी नजदीकी से देखा और किया है कि जब किसी किसान को इस स्थिति में देखता हूँ दिल रोने को करता है . हर सुबह उठते ही या एबीपी निऊज़ या आज तक का चैनल लगा होता है . गजेंदर सिंह का वोह सीन बार बार दिखाया जाता है और साथ ही सिआसी लोग अपनी अपनी रोटीआं सेंक रहे हैं . हर कोई यह साबत करने को लगा है कि दुसरी पार्टी का दोष है . और तो और एक किसान को मदद का सरकार की ओर से दिया दस हज़ार का चैक भी बाऊंस हो गिया . देश को होश तब आएगी जब देश में अकाल पड़ जाएगा और बिदेश से अनाज मंगवाने को भी बिदेशी मुद्रा नहीं बचेगी .

      • Man Mohan Kumar Arya

        अगर किसानों की उपेक्षा होगी तो निःसंदेश देश में अकाल आ सकता है। शास्त्रों में लिखा है कि जहाँ अच्छे लोगो के साथ अन्याय होता है वहां अकाल, मृत्यु व भय का वातावरण होता है। किसानों के प्रति किसी भी प्रकार का अन्याय दूर होना चाहिए। मुझे लगता है की आधुनिक जीवन शैली ने हमारे मन व मस्तिष्क को वेस्टर्नाइज़ कर दिया है। मानवीय संवेदनाएं समाप्त होती जा रही हैं। ईश्वर कृपा करें। धन्यवाद।

  • विजय कुमार सिंघल

    भाई साहब, इस कड़ी में आपने अपने दादा जी द्वारा खेती करने का जो विवरण दिया है, ठीक उसी तरह हमारे गाँव के किसान खेती करते थे. यह हमने स्वयं अपनी आँखों से देखा है. हमारे पिताजी के पास भी खेत थे, परन्तु वे हमने एक अन्य किसान को आधी-आधी उपज बाँटने के आधार पर दे रखे थे. वैसे हल चलाने के अलावा खेतों के बहुत से काम हमने भी किये हैं, जैसे पानी देना, अनाज काटना, खर-पतवार उखाड़ना आदि.
    आपने बैलों को गोल-गोल घुमाते हुए कुँए से पानी निकालने का जो विवरण दिया है, ठीक वैसा ही हमारे गाँव में होता था. उसे हम रहट कहते थे. एक रहट हमारे घर के बहुत पास में था, इसलिए जब वह चलता होता था, तो हम नहाने के लिए उसी पर चले जाते थे. बाद में इंजन वाले ट्यूब वेल आ गए तो रहटों का जमाना चला गया. मैंने अपनी आत्मकथा के पहले भाग में इनका यानी रहटों और ट्यूबवेलों का उल्लेख किया है.
    किसी समय खेती को सबसे अच्छा कार्य माना जाता था- उत्तम खेती, मध्यम बान ! परन्तु, आज किसान आत्महत्या करने को मजबूर हैं यह हमारा घोर दुर्भाग्य है. देश को इसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी.

    • विजय भाई , देश में खेती का काम एक जैसा ही होता था सिर्फ कामों के नाम इलग्ग इलग्ग थे . जो रहट आप ने लिखा , पंजाब में खूह कहते हैं और कुछ लोग हल्ट भी कहते थे . बलद को बैल भी कहते थे . आप ने सही बात लिखी कि खेती को उतम कहते थे , पंजाबी में कहते थे , उतम खेती , मद्धम विओपार , नखिध चाकरी .

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