कविता

चांदनी की आँखों का आंसू (ओस)

शबनमी बूँदें

रातें गुमसुम सी थीं
बातें कुछ भी ना हुई थीं
सिलसिला यही चलता रहा
गर्मीयों में कहाँ कुछ सुनने को मिला

जाड़े की ठिठुरन भरी रात
बागीचे की हरी चटाई पर
गुपचुप हुई कई बात
सुनगुन हमने भी सुनी
खिड़की खोलकर बाहर
देखने की हिम्मत ना हुई

सुबह होते ही खिड़की खोली
हरी हरी चटाई भीगी मिली

मैंने सोचा-
आज कितना रोई होगी चांदनी
चाँद से जब यूँ अरसे बाद मिली
महीनों के उसने ग़म बांटे होंगे
ख़ुशी से भी आँखें छलकी होंगी

चाँद नहीं भर पाया होगा अंजुली में
वह भी इस दुःख में रो ही दिया होगा

प्रिय चांदनी की आँखों का आँसू
हरी चादर ने जमीं में न गिरने दिया होगा
दोनों के प्यार भरे वार्तालाप को
कुछ यूँ ही उसने
अपनी झोली में संजोया होगा

देख शबनमी बूँदें
कुछ इस कदर मैं भी खोयी
कि चढ़ते सूरज की किरणों से ही जागी
देखा-
देखते-देखते ओस की बूँदें
आँखों से ओझल हुईं
सूरज की तपिश को
प्यार भरी ओस की बूँदें
भला कैसे सह पातीं

सूरज की लाल लाल आँखों में
समाहित जैसे वो हों गयीं |..सविता मिश्रा

*सविता मिश्रा

श्रीमती हीरा देवी और पिता श्री शेषमणि तिवारी की चार बेटो में अकेली बिटिया हैं हम | पिता की पुलिस की नौकरी के कारन बंजारों की तरह भटकना पड़ा | अंत में इलाहाबाद में स्थायी निवास बना | अब वर्तमान में आगरा में अपना पड़ाव हैं क्योकि पति देवेन्द्र नाथ मिश्र भी उसी विभाग से सम्बध्द हैं | हम साधारण गृहणी हैं जो मन में भाव घुमड़ते है उन्हें कलम बद्द्ध कर लेते है| क्योकि वह विचार जब तक बोले, लिखे ना दिमाग में उथलपुथल मचाते रहते हैं | बस कह लीजिये लिखना हमारा शौक है| जहाँ तक याद है कक्षा ६-७ से लिखना आरम्भ हुआ ...पर शादी के बाद पति के कहने पर सारे ढूढ कर एक डायरी में लिखे | बीच में दस साल लगभग लिखना छोड़ भी दिए थे क्योकि बच्चे और पति में ही समय खो सा गया था | पहली कविता पति जहाँ नौकरी करते थे वहीं की पत्रिका में छपी| छपने पर लगा सच में कलम चलती है तो थोड़ा और लिखने के प्रति सचेत हो गये थे| दूबारा लेखनी पकड़ने में सबसे बड़ा योगदान फेसबुक का हैं| फिर यहाँ कई पत्रिका -बेब पत्रिका अंजुम, करुणावती, युवा सुघोष, इण्डिया हेल्पलाइन, मनमीत, रचनाकार और अवधि समाचार में छपा....|

One thought on “चांदनी की आँखों का आंसू (ओस)

  • विजय कुमार सिंघल

    वाह वाह बहिन जी ! बहुत खूब !!

Comments are closed.