कविता

दो औरतें

अँधेरी छत की
मुंडेर पर
सूखे कपड़े समेटती
धुधंलके तले
दो औरतें
अरसे बाद मिलीं।
पतियों के मिज़ाज
बच्चों की पढाई
महरी नौकर
महंगाई..
अपनी नहीं, पर
इसकी उसकी बीमारी
सास के ताने
ननदों की आवाजाही
दबे स्वरों में
दिल की बातें…
कपड़े तहाती जाती
दो औरतें।
बचपन का खेलकूद
माँ का घर
सखी सहेलियाँ
आम का बाग़
बड़ा तालाब
पालतू तोता
मोती की माला
कपड़े की गुड़िया
मिट्टी की गाड़ी
टेढ़े घरौंदे
गाना बजाना
चमकीली आँखें
गहरी उसाँसे
अगल बगल रहतीं
दो औरतें।
पूछने वालीं ही थीं
कैसी हो तुम
सच्ची बताओ..
कि
नीचे कहीं
फट सी पड़ीं
लावे की आवाजें
कर्कश कठोर
क्या कपड़े ही उठाती रहोगी?
ये कौन करेगा
और वो कौन?
कुम्हलाती
भागती सी
शर्मिंदा
फिर मशीन बन गयीं
दो औरतें।
याद ही नहीं रहा
सोचा था
कपड़े उठाने के बहाने
आज देखेंगी
क्या चाँद
लगता है वैसा ही
था लगता जैसा
माँ के आँगन में?
पर
देख नही पायीं
चाँद उगने के
घंटों बाद
लेटने जाती
दो औरतें..

डॉ छवि निगम

One thought on “दो औरतें

  • विजय कुमार सिंघल

    अच्छी कविता !

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