आत्मकथा

आत्मकथा – दो नम्बर का आदमी (कड़ी 40)

26.10.1990 (शुक्रवार)

आज हमारा टोकियो में अन्तिम दिन था। मेरी उड़ान इटालियन एयर लाइन्स अलइटालिया के साथ बुक थी, जो रात 7 बजे जाती थी। इसलिए मैंने होटल से एअरपोर्ट तक जाने के लिए बस में सीट बुक कर ली। वह बस 3.15 बजे दोपहर बाद जाती थी और 5 बजे हवाई अड्डे पहुँचा देती थी। मैंने सोचा कि अगर थोड़ा बहुत लेट भी हो गयी तो 5.30 या हद से हद 6 बजे तक वहाँ पहुंच जाऊंगा और उड़ान पकड़ लूँगा।
मेरे पास तीन बजे तक का समय था। मेरा विचार माउन्ट फूजी देख लेने का था, जो वहाँ से काफी दूर थी। पता चला कि अगर गये तो तीन बजे तक लौटना सम्भव नहीं होगा और फ्लाइट छूट जायेगी, इसलिए यह विचार त्याग दिया। श्री वी.के. गुप्ता जो उसी उड़ान में मेरे साथ दिल्ली जाने वाले थे प्रेसीडेन्ट होटल में ठहरे थे। उनका विचार अगले दिन खरीदारी करने का था। इसलिए हमने यह तय किया कि मैं प्रातः 9 बजे तक उनके होटल में आ जाऊगा और वहाँ से साथ चलेंगे।

परन्तु इस दिन कुछ बारिश हुई और मौसम जरा ठण्डा था इसलिए मैं नहीं जा पाया। करीब 8 बजे जब मौसम खुला तो मैं निकला। मेरा विचार तो प्रेसीडेन्ट होटल जाने का था, परन्तु अकेला होने के कारण मैं गलत गाड़ी में चढ़ गया और कहीं का कहीं पहुँच गया। अब प्रेसीडेन्ट होटल जाने का सवाल ही नहीं था इसलिए, मैं उसी लाइन पर वापस आया और अपने होटल में पहुँच गया। मेरा विचार वहाँ बैठकर लिखने का था, ताकि समय का कुछ तो उपयोग हो सके।

मैंने लिखना शुरू किया। मुश्किल से 11:30 बजे होंगे कि होटल का एक लड़का वहाँ आया और पूछा कि मैं कमरा कब खाली करूँगा। मैंने बताया कि मैं तीन बजे बस से एअर पोर्ट जाऊँगा इसलिए 2 बजे कमरा खाली कर दूँगा।

उसने पहले अपने होटल के काउन्टर पर कुछ बात की फिर मुझसे बोला कि वहाँ बात कर लो। मैं फोन पर बात कर नहीं सकता था, अतः उसके साथ नीचे गया। वहाँ रिसेप्शन पर एक अंग्रेजी जानने वाली लड़की ने मुझसे लिखकर कहा कि सी.आई.सी.सी. ने 5 दिन का किराया दिया है, जिसका समय 11 बजे खत्म हो गया है। अतः यदि मैं 2 बजे खाली करूँगा, तो 33 प्रतिशत किराया देना पड़ेगा। मैं इतने समय के लिए करीब 500 रुपये खर्च करने को तैयार नहीं था इसलिए मैंने कहा कि कमरा मैं तुरन्त खाली कर सकता हूँ। इसके लिए वह तैयार हो गयी और मैं अपना सामान जो प्रायः बंधा रखा था, लेकर आ गया और चाबी उसे सोंप दी। मैंने कुछ और सेवा ली नहीं थी, इसलिए और कुछ देना नहीं था।

अब मुझे करीब 3:30 घंटे गुजारने थे। मैंने अपने दोनों बक्स (अटैची) वहीं जमा कर दिये जो कि बस में जाने थे और शेष एक थैले तथा कैमरे को लेकर बाहर निकला। मेरा विचार इधर-उधर चक्कर मारने का था। पहले मैं शहर की ओर गया। काफी दूर तक पैदल चला। पुलों पर चढ़ा। इधर-उधर दो चार फोटो खींचे। एक जगह बच्चे स्कूल जा रहे थे या शायद लौट रहे थे। उनके साथ एक टीचर भी थी। बच्चों के पास कोई वर्दी नहीं थी, परन्तु सबने एक जैसे एक ही रंग के हैट लगा रखे थे। उनकी लाइन बड़ी अच्छी लग रही थी। यहाँ के बच्चे वैसे भी काफी सुन्दर होते हैं। मैंने उनके भी फोटो खींचे। एक औरत अपने बच्चे को गाड़ी में ले जा रही थी। मैंने उसका भी फोटो खींच लिया।
वहीं घूमते-घामते मैंने एक रेस्तरां में चिप्स खाये। यह चौकोर फली जैसे होते हैं तथा आलू चावल के बनते हैं। (इनको फ्रेंच फ्राई कहते हैं, जो मुझे उस समय पता नहीं था.)  240 येन देकर एक पैकेट चिप्स लिये। मैंने वाटर कह कर पानी माँगा, तो वह नहीं समझ पायी। मिईजी कहने पर उसकी समझ में आ गया और वह एक गिलास पानी बर्फ डालकर ले आयी। चिप्स खाकर और पानी पीकर मैंने अपना पेट भरा।

वहाँ से मैं अपने होटल तक आया। तब तक मात्र एक बजकर 30 मिनट हुए थे, इसलिए मुझे अभी 1.30 घंटा और बिताना था। इसलिए मैं अब दूसरी ओर निकला। वहाँ एक पुल से शहर का दृश्य अच्छा लगता था। मैंने वहाँ दो चार फोटो खींचे। एक जगह चौकोर पत्थर लगे थे। कुछ देर वहाँ बैठा और अन्त में एक चक्कर काटकर वापस आया। ठीक 3 बजे मैं होटल में आ गया और जो आदमी बस में बैठाने वाला था और जहाँ मेरा सामान रखा था, उनको बता दिया कि मैं यहाँ इन्तजार कर रहा हूँ।

बस ठीक 3:20 बजे आ यी। मैं बैठ गया। अपने होटल से मैं अकेला ही बैठा था। दूसरी सवारियां उसे दूसरे होटलों से लेनी थीं, जो आसपास ही हैं। जब बस चली तो मैं निश्चिन्त था कि 5 बजे एअरपोर्ट पहुंच जाऊँगा। लेकिन रास्ते में बस न केवल धीमी हो गयी बल्कि एकदम रुक गयी। जब काफी देर तक बस न चली तो मैं घबराया क्या बात है। पता चला कि आगे चुंगी की बजह से ट्रैफिक जाम है। चुंगी तक पहुंचते-पहुंचते 5:30 बज गये। अब मैं घबराया कि अगर 6 बजे तक भी बस एयरपोर्ट तक नहीं पहुंची, तो मेरी उड़ान छूट जायेगी। बस वाले ने बस पूरी स्पीड पर भगाई परन्तु एअर पोर्ट वहाँ से 65 कि.मी. दूर था। इसलिए खूब तेज चलने पर भी हम 6:20 बजे एअरपोर्ट पहुंचे। सामान लेकर मैं उसके भीतर घुसा।

एअर पोर्ट मेरे लिए नया था और जब तक मैं पूछ-पूछ कर अलइटालिया के चैक इन काउन्टर पर पहुँचा, तब तक वह बन्द हो चुका था यानी मेरी फ्लाइट छूट चुकी थी। जिसका मुझे डर था वही हुआ। अब मैं बहुत घबराया। मैं वहाँ सात समुन्दर पार घोर परदेस में मैं किसी को जानता भी नहीं था। एक श्री हिरानो थे जो वहाँ से 80 कि.मी. दूर बैठे थे। मैं अपनी कानों की बीमारी के कारण फोन पर भी किसी से बात नहीं कर सकता था। क्या करूँ? कहाँ जाऊँ?

पहले मैं एअर पोर्ट के सूचना काउन्टर पर गया। वहाँ एक लड़की कम्प्यूटर लिये बैठी थी। उसमें उड़ान की नवीनतम जानकारी आ रही थी। मैंने अपनी समस्या उसे बतायी। उसने कम्प्यूटर देख कर बताया कि वह जहाज उड़ने ही वाला है। देखते-देखते जहाज उड़ गया और कम्प्यूटर पर भी आ गया। मैंने उससे पूछा कि अब क्या करूँ? उसने मुझे अलइटालिया के आफिस का पता बताया और वहाँ जाने की राय दी।

थोड़ा भटकने के बाद मैं अलइटालिया के आॅफिस में पहुँचा। मैंने अपनी समस्या बतायी तो उन्होंने न घबराने की राय दी। मैं जानता था कि वे अगली फ्लाइट दे सकते हैं, परन्तु मुझे डर था कि वे उसकी कीमत मांगेंगे, जो मैं दे नहीं सकता था। परन्तु सौभाग्य से उन्होंने कुछ नहीं मांगा और मेरे नाम 28 तारीख की उड़ान बुक कर दी। 27 तारीख को कोई उड़ान दिल्ली के लिए नहीं थी, इसलिए मुझे पूरे 48 घंटे इन्तजार करना था।

मेरी सबसे बड़ी समस्या तो हल हो गयी, परन्तु एक नयी समस्या पैदा हो गयी कि ये दो दिन कहाँ गुजारे जायें। इसका सरल हल तो यह था कि किसी होटल में ठहरा जाय, परन्तु वापस टोकियो जाकर मैं रिस्क लेना नहीं चाहता था। इसलिए मैंने सोचा कि यदि पास में ही कोई होटल हो तो वहाँ ठहर सकता हूँ। मैंने एअरपोर्ट पर पूछ लिया था कि वहाँ कोई वेटिंगरूम नहीं था, केवल लाबियों में कुर्सियाँ पड़ी रहती थीं।

यहाँ होटल बुक करने वाले एजेन्टों के काउन्टर हैं जिन पर कमसिन लड़कियाँ बैठी रहती हैं। मैंने एक लड़की से होटल के बारे में पूछा। बड़ी मुश्किल से उसकी समझ में यह बात आयी कि मैं सुन नहीं सकता, इसलिए लिखकर बात करनी पड़ेगी। उसने बताया कि पास में ही एक होटल में 11000 (जी हाँ ग्यारह हजार) येन प्रतिदिन पर कमरा मिल जायेगा। मेरे पास न तो इतने रुपये फालतू थे और न मैं एक रात सोने के लिए इतना (लगभग 1500 रुपये) रुपये खर्च करने को तैयार था। इसलिए मैंने कहा कोई सस्ता होटल बताओ। वह कहने लगी कि यही सबसे सस्ता है।

मैं इतना खर्च करने को तैयार नहीं था। मैंने सोचा कि श्री हिरानो को सूचना दे देना ठीक रहेगा। इसलिए मैंने पूछा कि क्या वह टोकियो में मेरी ओर से एक फोन कर सकती हैं। उसने मना कर दिया। मैंने उसे लालच दिया कि यदि वह फोन कर देगी तो मैं कमरा बुक करा लूँगा। वह मान गयी और मैंने उसे श्री हिरानो के आफिस का नम्बर दिया। उसने मिलाया और न जाने किससे क्या बात की। मैं सोच रहा था कि वह शायद मेरे ठहरने के इन्तजाम के बारे में बातें कर रही होगी। काफी देर बाद उसने फोन रखा। मैंने पूछा कि श्री हिरानो क्या कह रहे थे, तो उसने बताया कि वे बाहर हैं। फिर मैंने पूछा कि उसकी किससे क्या बात हो रही थी, तो उसने कोई जवाब नहीं दिया और मुझसे कहने लगी कि मैं कमरा बुक करा लूँ। मैं समझ गया कि यह लड़की मेरी मदद कुछ नहीं करना चाहती, केवल अपना कमीशन चाहती है। इसलिए मैं उससे मदद की उम्मीद छोड़कर चला आया।

(जारी…)

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: [email protected], प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- [email protected], [email protected]

6 thoughts on “आत्मकथा – दो नम्बर का आदमी (कड़ी 40)

  • विजय भाई, ऐसी मुसीबतें जब आती हैं तो इंसान बेबस हो जाता है . परदेस में हर चीज़ मैह्न्घी है . होटल तो यहाँ भी इतने मैह्न्घे हैं कि हम भी यहाँ अफोर्ड नहीं कर सकते लेकिन जो बाहिर से ख़ास कर इंडिया से आता है तो वोह कीमत इंडिया के रूपए के हिसाब से लगाता है तो वोह बहुत पैसे हो जाते हैं . मैं भी जब आया था तो मेरे पास तीन पाऊंड थे .तीन पाऊंड तो मामूली टैक्सी का कराया था , मैंने तो एअरपोर्ट से बहुत दूर जाना था . भाग्य से दो इंडिया वहां आ गए जो किसी को ढूँढने आये थे , उन्होंने मुझे पूछ कर मुझे घर तक छोड़ने आये . वोह लोग अब दुनीआं में है नहीं लेकिन कभी कभी उन की याद आ जाती है.

    • विजय कुमार सिंघल

      धन्यवाद, भाई साहब ! मुसीबतों से लड़ने का नाम ही जिंदगी है.

  • Man Mohan Kumar Arya

    आपकी टोक्यो से भारत की उड़ान छूट गई इससे आपको जो परेशानियां हुई वा हुई होंगी उसका अनुमान लगा रहा था। यह सब परिस्थितियों वश हुआ। ऐसी समस्याएं यदा कदा हमें भी आती रही हैं लेकिन यह अपने देश में होने से हमारी चिंता का स्तर कुछ कम रहता है। अगली क़िस्त का इंतजार है जब पता चलेगा कि आपने एयरपोर्ट पर ४८ घंटे कैसे बिताये थे। हार्दिक धन्यवाद।

    • विजय कुमार सिंघल

      आभार महोदय ! आप उस समय मेरी मानसिक स्थिति की कल्पना कर सकते हैं. प्रभु की कृपा से ही मैं वहां से सुरक्षित निकल पाया था. आगे की कड़ियों में पढ़िए कि मुझे जापान में और अपने देश में भी और क्या क्या भुगतना पड़ा.

    • विजय कुमार सिंघल

      धन्यवाद.

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